अरूण कुमार त्रिपाठी
जमीन से उठी नंदीग्राम की कथा ,इस डायरी को लिखने के लिए यायावरी लेखक ने न सिर्फ अपनी जान जोखिम में डाल कर तथ्य जुटाए हैं बल्कि स्थानीय इतिहास, कला और संस्कृति की जानकारी इकट्ठा करने के लिए विधिवत शोध भी किए हैं। इसीलिए १६ मार्च 2007 से 10 मार्च 2008 तक नंदीग्राम और आसपास के क्षेत्रा में घटी घटनाओं का वर्णन महज लेखक की तरह नहीं बल्कि एक युद्ध संवादाता की तरह किया गया है। इसमें संघर्ष करते किसानों की हुंकार है तो दमन करते पार्टी काडरों का वीभत्स चेहरा भी है।
पुष्पराज की ‘नंदीग्राम डायरी’ किसान संघर्ष की महागाथा है और पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार के दमन और दुर्नीति का एक मार्मिक दस्तावेज। इसे लिखने के लिए यायावरी लेखक ने न सिर्फ अपनी जान जोखिम में डाल कर तथ्य जुटाए हैं बल्कि स्थानीय इतिहास, कला और संस्कृति की जानकारी इकट्ठा करने के लिए विधिवत शोध भी किए हैं। इसीलिए १६ मार्च २॰॰७ से १॰ मार्च २॰॰८ तक नंदीग्राम और आसपास के क्षेत्र में घटी घटनाओं का वर्णन महज लेखक की तरह नहीं बल्कि एक युद्ध संवाददाता की तरह किया गया है। इसमें संघर्ष करते किसानों की हुंकार है तो दमन करते पार्टी काडरों का वीभत्स चेहरा भी है। आगजनी, तोड़फोड़ रक्तपात के साथ उन स्त्रियों और बच्चों की चीखें भी हैं जिनके साथ बलात्कार हुआ या जिनके परिजनों को मार दिया गया। इस महागाथा के खलनायक के तौर पर कभी मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य, विनय कोनार, सांसद और हल्दिया विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष लक्ष्मण सेठ और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता दिखाई पड़ते हैं, तो नायक के तौर पर तमाम किसान और आदिवासी। संघर्ष को प्रेरणा देने के लिए महाश्वेता देवी, मेधा पाटकर, दीपांकर भट्टाचार्य और बंगाल के तमाम कलाकार और रचनाकार दिखाई पड़ते हैं। इन सभी की भूमिकाओं पर लेखक ने विस्तार से लिखा ह। कोलकाता में राजभवन में गोपाल कृष्ण गाँधी के सामने होने वाली राजनीति पर भी खूब लिखा है। लेकिन लेखक की इस डायरी में एक कमी जरूर खटकती है कि इसमें तृणमूल कांग्रेस और उसकी नेता ममता बनर्जी की भूमिका पर बहुत कम लिखा गया है। ममता का जिक्र है, कोलकाता में उनकी सभाओं का जिक्र है, अनशन का जिक्र है, पर जिस पैमाने पर मुख्यधारा की मीडिया में उनकी भूमिका चर्चित रही है, उस रूप में पुष्पराज ने नहीं दिखाया है। यहां डायरी लेखक ने अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता निभाई है। उनके वर्णन से साफ लगता है कि नंदीग्राम का पूरा संघर्ष माओवादियों के नेतृत्व में किसानों की तरफ से चलाया गया संघर्ष है। यह संघर्ष ३॰ साल के वाममोर्चा शासन में पिछड़े गाँव का असंतोष है और शिल्पायन यानी सेज के बहाने हो रहे उद्योगीकरण का प्रचंड विरोध है।
लेखक संग्राम में हिंसा और घृणा को अवश्यंभावी मानते हैं, तभी वे आरंभ में लिखते हैं, ‘नंदीग्राम के किसानों ने भी काॅमरेड कैडरों के सत्ताबल और बंदूकबल का प्रतिकार करते हुए कभी-कभी हिंसात्मक रास्ते अपनाए। अगर संग्राम पूरी तरह अहिंसात्मक ही होता, तब भी हमले उतने ही बर्बर होते। मार्च ओर नवंबर के रक्तपात निहत्थे किसानों के अहिंसात्मक प्रदर्शनों पर हमलों की वजह से हुए। १४ मार्च को हिंदू-मुस्लिम कृषकों ने कृष्ण के अवतार भगवान गोरांगो ठाकुर की सामुहिक पूजा का फैसला किया था। शंख अजान, रामायण-कुरान पहली बार साथ हुए थे और प्रसाद वितरण से पहले अनुष्ठान पर गोलियां बरसने लगी।’
डायरी के आखिर में वे घृणा की चेतना को मानवता के लिए जरूरी मानते हुए लिखते हैं, ‘हमें तब नई बात समझ में आई कि जो माओवादी कहलाने के प्रचार से घृणा नहीं करते थे, वे भ्रष्ट होने के प्रचार से आप से घृणा कर रहे हैं।…..घृणा की यह चेतना भी जब खत्म हो जाएगी तो कौन किसके भ्रष्ट होने से दुखी होगा? हम उनके कृतज्ञ हैं, जो हमारी चूकों पर नजर रहखते हैं और तत्काल घृणा करना भी जानते हैं। काॅमरेड आप की घृणा ने हमें इंसानियत की तमीज सिखायी है।’
डायरी में मेदिनीपुर का इतिहास और किस तरह यह मिदनापुर बना, उसकी रोचक कथा है। १९४३ में बंगाल के अकाल का वर्णन आईसीएम कुदरतुल्लाह के उर्दू में लिखे ‘शाहबनामा’ से लिया गया है जिसमें नंदीग्राम की बर्बादी का दिल दहलाने वाला वर्णन है। यह वर्णन नंदीग्राम का अदम्य साहस और उसके जुझारूपन की भी कहानी कहता है। ‘अतिवादी इंकलाबियों के गढ़ मेदिनीपुर में तीन अंग्रेज कलेक्टरों को मार दिया गया था।’ इस वर्णन से पता चलता है कि आज अत्याचार के खिलाफ नंदीग्राम कोई पहली बार नहीं उठ खड़ हुआ है। अन्याय का प्रतिरोध उसकी माटी में है। इंकालाबियों की नेता मातंगिनी हाजरा को १९४२ में आंदोलन का नेतृत्व करते हुए तमलुक में गोली मारी गई थी।
लेखक बार-बार यह रेखांकित करता है कि नंदीग्राम का संघर्ष तृणमूल कांग्रेस और माकपा का संघर्ष नहीं है। यह दर असल माक्र्सवादियों का अपना अंतर्विरोध है। ‘लाल झंडा, लाल झंडे से टकरा रहा है। सरकार के हाथ में लाल, जनता के हाथ में लाल, असली कौन है?’ यह प्रश्न उठाते हुए वे बंगाल के माकपा काॅडरों की असलियत बयां करते हैं। उनका मानना है कि बंगाल के कार्यकर्ताओं ने माक्र्स और लेनिन के सिद्धांतों को पढ़ना और समझना छोड़ दिया है और वे एक गिरोह रूपी संगठन के स्वार्थ से बंधे हुए हैं इसीलिए इतने क्रूर और वहशी हो गए हैं। ‘कहीं भी एक काॅमरेड दूसरे से मिलते हुए अब न ही कामरेड पुकारते हैं, न ही लाल सलाम का क्रांतिकारी अभिवादन करते हैं। अब कार्यकर्ताओं के बीच नियमित पार्टी के सिद्धांतों के बारे में कोई अध्ययन सत्र गाँवों में भी संचालित नहीं होते।’ पुरुलिया से नंदीग्राम तक होने वाली महाश्वेता देवी की यात्रा पर केंद्रित डायरी का एक पन्ना अद्भुत बन पड़ा है। सब आदिवासियों के उनका प्रेम और उपहार में सांप का पिटारा मिलने का प्रसंग एक लेखिका को सचमुच महाअरण्य की माँ का दर्जा दे देता है। तमाम समाजशास्त्रीय सवालों से जुझती यह डायरी एक रोचक साहित्यक कृति है। इसमें बांग्ला के शब्द, मुहावरे, नारे और संवाद जिस सहज और संप्रेषणीय रूप में आते हैं, वे हिन्दी को समृद्ध करते हैं। इस डायरी के माध्यम से पुष्पराज हिन्दी पाठकों के दिल में बैठ गए हैं। त
(समीक्षक वरिष्ठ पत्रकार और हिन्दुस्तान दिल्ली में एशोसियेट एडीटर हैं)