मुक्तिबोध की 'दिग्विजयी' यादें

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मुक्तिबोध की 'दिग्विजयी' यादें

कनक तिवारी

मुक्तिबोध को 1958 में साइंस काॅलेज रायपुर के प्रथम वर्ष के छात्र के रूप में मैंने राजनांदगांव के दिग्विजय महाविद्यालय के प्राध्यापक होने पर देखा था.  मैं 1963 में अंगरेज़ी विभाग में प्राध्यापक होकर उनका सहकर्मी बना.  उनकी यादों का कबाड़ भी मूल्यवान है.            वह पारचून यादों का प्राथमिक ड्राफ्ट है.  साहित्यिक दुनिया में तब मुक्तिबोध की वह ख्याति नहीं थी जिसका बवंडर उनकी मृत्यु के बाद उठा.  जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ को लेकर मुक्तिबोध की रचनात्मकता उत्तेजित होती रहती.  उन्हें एक यात्री की ज़रूरत महसूस होती रही, जिसे वे प्रसाद के साहित्यिक राजप्रासाद का रोज नया सिरा पकड़कर ‘कामायनी’ का अलग चेहरा दिखा दें.  मैंने गर्वोक्ति में कहा था गद्य मेरे लिए ग्लैशियर है.                           ऊपर चट्टानी बर्फ का बोध कराता है.  नीचे पानी ही पानी भरा होता है.  ठहरे हुए जल से नहाने वाले मुझ पर उद्दाम नदी, वर्षा या हहराता झरना बनकर भिगोती कविता से गीला होना नियति नहीं है.  मुक्तिबोध कहते यह शब्द-छल है.  आप कविता से आजिज नहीं हुए हैं.  सोहबत में हैं.  सच है इतने वर्षों बाद भी मुक्तिबोध की कविता में डूब उतरा रहा हूं. 

श्रीकांत वर्मा, अशोक वाजपेयी, हरिशंकर परसाई, प्रमोद वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल आदि राजनांदगांव आते.  उनकी मुक्तिबोध की निकटता रही.  श्रीकांत में टीस देखी जा सकती थी, जो कवि को नहीं बचा पाने की हताशा के कारण पैठ गई थी.  श्रीकांत की पहल के कारण मरणासन्न और मरणोत्तर मुक्तिबोध की ओर पढ़ी लिखी दुनिया का ध्यान गया.                             मध्यप्रदेश शासन के संस्कृति विभाग के नियामक अशोक ने मुक्तिबोध की छबि-स्थापना के लिए तटस्थ, निरपेक्ष कर्तव्यनिष्ठ अभियान किए.  प्रमोद वर्मा का मुक्तिबोध पर ‘पहल’ के लिए लिखा मोनोग्राफ कवि की रचनात्मकता पर सबसे गंभीर शोधप्रबंध है.                   ब्रह्मराक्षस, ओरांग उटांग, क्लाॅड ईथर्ली जैसे बीसियों अटपटे नाम मुक्तिबोध की रचनाओं में अटे पड़े हैं.  मुक्तिबोध के प्रतीकों में अंधेरा, काला जल, सर्प, पत्थर, मृत्यु, चीत्कार वगैरह की परछाइयां नहीं झाइयां हैं.  ब्रह्मराक्षस मुक्तिबोध के उपचेतन में उकडूं बैठा रहता है.  शेक्सपियर और मिल्टन से बढ़ते उन्होंने आधुनिक कवियों और आलोचकों की पुस्तकों की बिब्लियोग्राफी खंगाल डाली.  अंगरेज़ी और हिन्दी नई कविता के उन्मेषक, अन्वेषक और आग्रही प्रवक्ता बने पुस्तकें हाथ में लिए घूम घूमकर स्टाफ रूम में वाचन करते. 


मुक्तिबोध में समय के आगे बूझने की ताकत थी.  उन्होंने खुद से जद्दोजहद करते तराशी हुई भाषा में पीढ़ियों और विश्व बिरादरी के लिए परोसने की कोशिश की.  उनके लेखन का दुनिया की कई भाषाओं में अनुकूल समझ के साथ अनुवाद हुआ.            मुक्तिबोध भौगोलिक सीमा में बंधे कवि नहीं, विश्व कविता की समझ के प्रयोगशील हस्ताक्षर समझे जाने चाहिए.  उन्होंने कई नेताओं और समस्याओं पर विपुल पत्रकारिक लेखन किया.  वह सब लेकिन आकार, समय और अन्य सीमाओं के चलते मुक्तिबोध को वैज्ञानिक समाजशास्त्री की तरह प्रतिष्ठित नहीं कर पाया जिसकी उनमें पूर्वपीठिका थी.  दिग्विजय महाविद्यालय के अपने अवलोकन, अनुभव और आकलन को लेकर मुक्तिबोध ने अपनी उपन्यासिका अथवा लंबी कहानी ‘विपात्र’ लिखी.  महाविद्यालय के किरदारों का फोटोग्राफिक चित्रण उसमें निगेटिव में भी दिखाए गए हैं.  ‘विपात्र’ के नायक जगत याने पार्थसारथी की विलक्षण प्रतिभा पर मुक्तिबोध फिदा थे.  

लगभग दो तीन किलोमीटर शाम को सड़क पर चलते ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के टूटते जुड़ते विवरण दूसरी दुनिया में भेजते.  अपने विश्वसनीय अज्ञान से उत्पन्न नासमझी में मैं बार बार प्रिय रूमानी कवि, आलोचक काॅलरिज़ को रक्षाकवच से मुठभेड़ खड़ा कराता.                   मुक्तिबोध के ‘तीसरे क्षण’ की समालोचनात्मक उपपत्ति को उस दुर्लभ आलोचक की थ्योरी के समानांतर बताने लगता.  मुक्तिबोध कभी गंभीर होने पर भी ठहाके लगाते.  पता नहीं मुझे अनुमोदित या खारिज कर रहे होते.  व्यवहार में अनुशासित, तमीज़दार और करुणामय मुक्तिबोध की कविता का बड़ा अंश ऐब्नाॅर्मेलिटी के लिबास में मनुष्यता का जनस्वीकृत हलफनामा है.  मुक्तिबोध की ख्याति के बावजूद कई वामपंथियों ने उन्हें खारिज किया.  

बूढ़ासागर की पथरीली पटरियों पर बैठ पुराने शीर्षक ‘आशंका के द्वीप अंधेरे में’ वाली कविता का एकल श्रोता बनना मेरे नसीब में आया.  कविता मुझ युवा श्रोता-शिष्य में घबराहट, कोलाहल, आक्रोश और जुगुप्सा भरती गई.  उनका अविस्मरणीय काव्यपाठ सूरज के बूढ़ासागर में डूबने तक चलता रहा.  एक अमर कविता के अनावृत्त होने का रहस्य देखना कालजयी क्षण जीना था.  पहली बार लगा कविता हमारे अस्तित्व को न केवल झकझोर सकती है, बल्कि वंशानुगत और पूर्वग्रहित धारणाओं तक की सभी मनःस्थितियों से बेदखल कर सकती है.                                  मुक्तिबोध की कविता का यह बाह्यांतरिक भूचाल है.  ‘अंधेेरे में’ आंतरिक उजास की कविता और जनता का लोकतांत्रिक घोषणापत्र है.  आंशिक, अपूर्ण आत्मिक-लयबद्धता का ऐलान है.  मुक्तिबोध संभावित जनविद्रोह की निस्सारता से बेखबर नहीं थे.  इसलिए कविता में लाचारी का अरण्यरोदन नहीं, हताशा की कलात्मक अनुभूति है.  यह तयशुदा पाठ विद्रोही कवि का उद्घोष है, जिसे जनसमर्थन चाहिए लेकिन जनआकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए प्रतीक्षा करने की स्थिति में नहीं है.  ‘अंधेरे में’ को जितनी बार और जितनी तरह से पढ़ें उसकी दृश्यसंभावनाओं, नाटकीयता और अतिरेक लगती संभाव्यता में मुक्तिबोध की कलम की बहुआयामिता का अनोखा और अकाट्य साक्ष्य गूंजता रहता है. 

कवि की अन्य कविता की एक पंक्ति है ‘पता नहीं कब कौन कहां किस ओर मिले. ‘ मुझे ‘पता नहीं’ ‘यादें’ और ‘कभी कभी’ एक दूसरे के समानार्थी क्यों लगते हैं? कवि से मेरा निजता का रिश्ता रहा, लेकिन शायद कविता से उतना नहीं.                    मुक्तिबोध की कविताओं में स्वप्न की जटिल इमेजरी अनायास है.  जीवन के यथार्थ सपनों से भी झरते थे.  बाद में प्रामाणिक सिद्ध हुआ उनके सपनों में भी कविता ही रही है.  मुक्तिबोध की कविताओं को पढ़ते हुए कवि का नाम नहीं बताए जाने पर भी विश्वासपूर्वक उन पर उंगली रखी जा सकती है.  शास्त्रीय नस्ल की भाषा का इस्तेमाल करते भी मुक्तिबोध आधुनिक किस्म की जनवादिता का आह्वान करते हैं.  वह विद्रोह का जनदस्तावेज़ इस तरह भी रचते हैं जिसके लिए टकसाल में गढ़ी किसी समकालीन या अंतर्राष्ट्रीय भाषा के विन्यास के लिए सायास उत्प्रेरण नहीं करना होता.  मुक्तिबोध का काव्य लेखन उनका साहित्य-धर्म रहा होगा.  उसे लेखकीय कर्म भी लोग कहते हैं.  दरअसल वह ऐसा मानवीय मर्म है जिसे मुक्तिबोध की इबारत में पढ़ने से अहसास होता है जो उनके पहले हिन्दी कविता ने अपनी स्याही का पसीना बहाकर उस तरह हासिल नहीं किया था.   

कवि मुक्तिबोध कवि सदैव मनुष्य बने रहे.  उनकी निजी ग्रंथियां तक मानवीय मूल्यों की उत्प्रेरक रहीं.  उनके पारिवारिक और सांसारिक जीवन में असंगत ज़्यादा रहा.  नहीं रहता तो कवि में जीवन भले होता, कविता कहां रहती! उनके मन में जो कुछ छूट जाता, वही चकरघिन्नी की तरह घूमता.  कविता के गर्भगृह में तब्दील होता.  अनुशासनबद्ध चलने के विरुद्ध संभवतः सृष्टि के आदेश के विद्रोह को मुक्तिबोध का काव्य कहा जा सकता है.  मैं कविता के बाल प्राइमर की पाठशाला में और मुक्तिबोध उसका खुला विश्वविद्यालय थे.  लगता उनमें सांसों के उतार चढ़ाव का प्रवहमान ही कविता है.  उनकी विनम्रता में सबसे पहले और सबसे ज़्यादा समाज-सार्थक व्यंग्य आज भी दिखाई पड़ता है.  वे अपने सपने तक में सचेतन होते तो हम उसे यथार्थ कह सकते थे.  निस्संगता महसूस करते मुक्तिबोध हर वक्त रचनात्मक उर्वरता की स्थिति में जीते.  व्यापक भारतीय जीवन के कोलाहल की हहराती ध्वनि को भी उन्होंने कविता की सिम्फनी बना दिया. 

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