हिंदुत्व के साथ आक्रामक राष्ट्रवाद !

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हिंदुत्व के साथ आक्रामक राष्ट्रवाद !

उर्मिलेश 

नई दिल्ली.हिन्दी भाषी दो राज्यों-यूपी और बिहार के तकरीबन 10 संसदीय क्षेत्रों के मतदान-सम्बन्धी ब्यौरेवार आंकड़े देखा. इनके सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य, चुनावी इतिहास और इस चुनाव के दौरान उभरे समीकरणों का भी जायजा लिया. इन आंकड़ों और तथ्यों की रोशनी में इस 'चुनावी-जनादेश' के बारे में मेरा निष्कर्ष: 

चुनावी धांधली के आरोपों में दम दिखता है. विपक्षी प्रत्याशियों या उनके समर्थकों का कहना है कि कई क्षेत्रों में सत्ताधारी दल के समर्थकों की तरफ से धांधली और जबरदस्ती की गई. चुनाव प्रशासन मूक दर्शक रहा या उसमें स्वयं भी शामिल हो गया. मतगणना के दौरान भी कुछ क्षेत्रों में गड़बड़ी के आरोप लगे. उनकी सूची भी देखी. संभव है, कुछेक मामलों में दम हो. यह निष्पक्ष जांच का विषय है. 

हमारा मानना है कि निर्वाचन आयोग अगर निष्पक्षता से काम करता और वीवीपैट   की गणना सुसंगत और ज्यादा संख्या में की जाती तो यह धांधली नहीं हो पाती. इसलिए ईवीएम  एक मसला है. यह मैं भी मानता हूं. पर यह चुनाव मोदी-शाह ने सिर्फ ईवीएम के बल पर नहीं जीता. जीत के मुझे ये आठ प्रमुख कारण नजर आते हैं: 

1. चुनावी परिदृश्य पर आक्रामक 'हिंदुत्व-राष्ट्रवाद' का छा जाना. बहुजन समाज के हिस्सों का भी इससे प्रभावित होना.

2. अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुक़ाबले भाजपा की ज़्यादा कारगर सोशल-इंजीनियरिंग और प्रभावी गठबंधन-रणनीति.

3. आरएसएस का ताक़तवर और प्रभावी सांगठनिक नेटवर्क. 

4. मोदी सरकार की कुछ चुनिंदा कल्याणकारी योजनाएँ (उदाहरण के लिए गृहनिर्माण के लिए सरकारी धन मुहैया कराना).

5. बंटा हुआ कमजोर विपक्ष. यूपी में सपा-बसपा-रालोद और बिहार में राजद-कांग्रेस-कुशवाहा-मांझी आदि के गठबंधनों का बेहद लचर और असंगठित चुनाव अभियान. अनेक स्थानों पर खराब उम्मीदवार-चयन. बूथ स्तर पर किसी तरह का समन्वय और संगठन न होना. आकर्षक नारा और ठोस एजेंडा ना होना.यूपी में सपा-बसपा नेतृत्व का तमाम दलित-पिछड़ों को अपना स्वाभाविक मतदाता (टेकेन फार ग्रांटेड.) समझकर उनके बीच काम नहीं करना. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को छोड़कर हिन्दी पट्टी में ज़्यादातर विपक्षी नेताओं ने चुनाव प्रचार अभियान भी काफ़ी देर से शुरू किया.

6. सत्ताधारी दल के पक्ष में जबरदस्त कारपोरेट लामबंदी. चुनावी फंड और खर्च के मामले में उसका दूर-दूर तक कोई जोड़ नहीं होना. 

7. सत्ताधारी दल को बेमिसाल मीडिया-समर्थन, खासतौर पर ज़्यादातर हिन्दी न्यूज़ चैनलों का दिन-रात भाजपा के पक्ष में 'अभियान' चलाना. 

8.निर्वाचन आयोग की अभूतपूर्व सत्ता-पक्षधरता


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