चंचल
बिहार की राजनीति से जुड़ना उनकी सहूलियत थी और वहाँ से खिसक कर बनारस आ पहुँचना और काशी विश्व विद्यालय में ' संड्सा ' गाड़ना , उनकी आंतरिक इच्छा . अरसे से उनकी मंडली काशी विश्वविद्यालय में अड़ी जमाए , अपने दबदबे पर अलमबरदारी लिए बैठ थी . इसमें देवव्रत मजूमदार , सुरेश अवस्थी , राम वचन पांडे , अशोक मिश्रा , के अलावा शहर के कल्पनाथ सिंह , मशहूर तबलाबादक लच्छु महराज वग़ैरह शामिल रहे . हम लोग जूनियर की भूमिका लिए आगे पीछे होते रहे . जाने दीजिए यह क़िस्सा और सुनना ही है तो हमकरे अग्रज अशोक मिश्रा चाँदपुर वाले से सुनिए जो उनके समधी भी हैं . हम तो आपको सीधे जेल ले चलते हैं , जहाँ हम सब एक परिवार बने . हम उनके लिए “ चे कुमार “ या “ चोंचल “ बन गये और चौबे जी हमारे लिए ' बाबा ' .
26 जून 1975 को देश में आपातकाल लगा और गिरफ़्तारियाँ शुरू हो गयी . छात्र नेताओं पर सरकारी आरोप लगा की ये लोग दिल्ली की तख़्त को पलटने की साज़िश में हैं चुनांचे इन्हें किसी महफ़ूज़ जगह रखा जाय , जिससे सरकारी तख़्त को बचाया जा सके . जेल से बेहतर कोई दूसरी जगह नही मिली . देश के सारे नेता 'जो भी पुलिस की नाक में कभी उँगली किए रहे हब राडार पर आ गये और उन्हें तुरत पुलिस ने अंदर कर दिया , वरना इंदिरा ( गांधी ) को का मालूम क़ि नरिया ( बनारस लंका के बग़ल का एक मोहल्ला जहाँ दीन दयाल सिंह किराए के कमरे में रहते थे , दीन दयाल एक आँख के थे लेकिन किसी की हिम्मत नहीं क़ि उन्हें उनके सामने काना बोल दे , यह छूट सीनियर लोंगो को मिली थी लेकिन बर बखत नही ) का एक गो काना उनका तख्ता पलटने में लगा है ? ई तो भेलूपुर थाने कि दरोग़ा नगेंदरवा रहा , लाद लीयाय जेल तक . ' कहते हुए राम वचन पांडे खैनी वाली गदोरी दीन दयाल के सामने खोल देते - दीन दयाल ! ई चौबे जी ( लालमुनि चौबे कैसे पकड़ाए ? और दीन दयाल शुरू हो जाते अपनी मादरी ज़ुबान को अंग्रेज़ी , फ़ारसी , भोजपुरी के मिले जुले बलियाटिक ल्यकारी में .
- चौबे जी ? ग़ज़ब पकड़ाए , जव जानि रहे हैं क़ि इमरजेंसी लगी है , तो लंगोटा पहन्ने की का ज़रूरत ?
संजीदगी से कथा सुन रहे जनेश्वर मिश्र मुस्कुराए - हिस्सस ! लंगोटा से कैसे गिरफ़्तारी होगी ?
दीन दयाल को ऐसे में खुजली होने लगती है , कु जगहें . बीच में टोकना ठीक नही होता . दीन दयाल ने हाथ के इशारे से जनेश्वर जी को रोका - ठंढा रहा जाय , पूरा सुना जाय , चौबे जी हिंया तो नही हैं ? नही तो बोलेंगे सेक्रेट लीक हो गया , हुआ जे क़ि चौबे जी भभुआ से बचते बचाते बनारस आ गये . बनारस के सारे अड्डे उजाड़ , मजूमदार जेल में , पांडे जी अंदर ग्राउंड , कल्पनाथ सिंह के घर ताला , लच्छू महराज बांबे अब का करें चौबे जी ! आव देखा न ताव देखा ख़ाली पड़ी छतरी के लिए आसन जमाय लिए . यहाँ तक ठीक रहा , गलती हो गयी चौबे जी उठ कर चले गये नहाने , यह भी ठीक रहा , पुलिस गयी पहचान , पुलिस ने ललकारा रुक जाओ , नही माने , कूद गये गंगा में चौबे जी के पीछे एक पुलिस वाला कूदा लेकिन चौबे जी दस हाथ आगे . ब यहीं गलती हो गयी . चौबे जी दस हाथ आगे लेकिन ससुरा लंगोटवा दगा दे दिया . पाँच हाथ लम्बी लंगोट की पूँछ पुलिसवाले के हाथ आ गयी . यह है क़िस्सा . दीन दयाल अभी जारी रहते लेकिन तब तक चौबे जी कहीं से आ गये और दीन दयाल को रुकना पड़ा .
इसी सोहबत में हम भी रहे बाबा के साथ .
किसी को सम्पूर्णता में जनना हो तो जेल का साथ ले लो . हम लोग तक़रीबन अट्ठारह महीने एक बैरक में , एक छत के नीचे हंसते गाते रहे और पता हाई नही चला कब वक्त कट गया . इस वक्त काटने में जिन लोंगों का भरपोईर सहयोग मिला उसमें बाबा का का योगदान बहुत बड़ा है . कहने को वे संघी थे लेकिन अपने व्यवहारिक जीवन में हर दल , हर विचार और तरह के लोग बाबा की जफडी में थे . साहित्य , कला , संगीत और राजनीति , हर जगह उनका मसनद तना हाई मिलता . अपने लोंगो के बीच उनका हाज़िर जवाबी , हास्य और उत्साह देखते ही बनता . एक वाक़या सुन लीजिए - बाबा संसद सदस्य के रूप में दिल्ली आ गये थे , हम दिनमान में थे , गाहें बगाहे मुलाक़ात होती ही रहती . एक दिन बाबा काफ़ी हाउस में मिल गये , बोले - कल मजूमदार और बचनी आ रहे हैं , आ जाना . ( बचनी कहते थे , काशिविश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष राम वचन पांडे को , पांडे जी से उनकी रिश्तेदारी भी थी ) शाम को हम बाबा के सरकारी आवास पर पहुँचे महफ़िल जुट गयी थी . उस समय बाबा के रसोईया , सचिव , सब कुछ एक बिहारी थे जिन्हें बाबा समेत सब लोग ठाकुर जी बोलते थे . उस शाम मछली बनी , डेबू दा और बाबा ने मिल कर बड़े जतन से मछली बनाए लेकिन खाने के वक्त कई बे बुलाए मेहमान बढ़ गये , तुर्रा इस बात का क़ि सब समाजवादी यानी कोई उठ के जाने का नाम न ले और बीच बीच में ये मेहमान मछली के सुगंध की तारीफ़ भी किए जा रहे थे . बहरहाल दस्तरखान बिछा और लोंगो की प्लेट लग गयी . पांडे जी की प्लेट में केवल पूछ वाला हिस्सा आया . पांडे जी मुस्कुरा के रह गये . दूसरे दिन सब लोग विसर्जित हुए और अपने काम पर चले गये . बाबा संसद चले गये और आवास पर रह गये केवल दो लोग एक राम वचन पांडे और दूसरे ठाकुर जी . पांडे जी ने हमे फ़ोन कर के बुला लिया अब हम दो से तीन हुए . पांडे जी ने ठाकुर जी को समझाया - राजनीति का मतलब क्या होता है .
- फ़ोन उठाना जानते हो न ?
- हाओ
- लिफ़ाफ़ा खोलना आता है न ?
- हाओ
- फ़ोन पर बतिया लेते हो न ?
- हाओ
- जाति के ठाकुर हो न ?
- आऊर का
- चलदो बिहार और करो राजनीति , करपूरी ठाकुर के बाद कोई दूसरा ठाकुर मुख्यमंत्री नही बना है , निकल लो बिहार और करो राजनीति , कब तक बर्तन माँजोगे ? आया समझ में ?
ठाकुर के समझ में आ गया और ठाकुर तैयार हो गये . सौ रुपए हमे देने पड़े . और ठाकुर निकल गये नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन .
शाम को ठाकुर की तलाश हुयी , लेकिन ठाकुर तो उस खिड़की के पास बैठे थे जिसके सामने लिखा था - चलती गाड़ी में शरीर का कोई हिस्सा बाहर न निकालें .
दोस्तों के बीच इस तरह के रिश्ते अब ख़्वाब में भी नही आते . नमन बाबा
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