आज मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन है

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आज मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन है

चंचल 

31 जुलाई .  आज मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन है .  समकालीन साहित्यकारों से हमारी मुलाक़ात , मुंशी प्रेमचंद के बहाने से  हुई . गुलशेरखान शानी , शिवमंगल सिंह सुमन , विष्णु खरे  वग़ैरह वग़ैरह . वाक़या कुछ यूँ है  77/78 की बात है . साहित्य अकादमी मुंशी प्रेमचंद पर एक सेनिनार आयोजित की थी . स्थान का चयन बनारस था . हम उन दिनो काशी विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष थे और महेंद्र पांडे जी (आज कल भाजपा सरकार में केंद्रीय मंत्री है ) सचिव थे . आफिस  में  बैठे हम अख़बार देख रहे थे कि , अचानक एक सूचना पर ध्यान चला गया . सूचना थी - मुंशी  प्रेमचंद पर क्लार्क होटल में दो दिवसीय गोष्ठी . उद्घाटन - सुश्री महादेवी वर्मा . आयोजक साहित्य अकादमी . समय ग्यारह बजे दिन . 

  चौंका - मुंशी प्रेमचंद , पाँच सितारा होटल क्लार्क में ? और शिरकत कर रही हैं महादेवी जी ? हमने महेंद्र पांडे जी से जानकारी  ली क़ि क्या आपको इस खबर की सूचना है ? या आपके विभाग को ? पांडे जी ने बताया की हमारी जानकारी में ऐसी कोई सूचना नही है . फिर हमने राय कृष्ण दास जी के यहाँ फ़ोन किया , आनंद कृष्ण जी से बात हुयी , उन्होंने पूरी  जानकारी दी क़ि महादेवी जी इलाहाबाद से सीधे क्लार्क पहुँचेगी , कार्यक्रम  में भाग लेंगी दोपहर बाद हमारे यहाँ आएँगी . ( महादेवी जी जब काशी आती थी , तो वे राय कृष्ण दास जी के यहाँ ही रहती थी .) आगे क्या हुआ ? इस पर विस्तार से लिख चुका हूँ , यहीं फ़ेस बुक पर , चुनांचे संक्षेप में . 

      (हमारे पास दो बहादुर “ बुआएँ “ थी . यह बताने की ज़रूरत नही क़ि हिंदी पट्टी में बुआ और भतीजा किस राग से  बंधा होता है . बेबाक़ी का खुला पन , ज़िद , झिड़की , प्यार ,  असहमति सहमति का मेल और बेबाक़ संवादी . ये दो बुआ रहीं - महादेवी वर्मा और गिरिजा देवी . ) 

     गाड़ी निकली , साथ में तीन दोस्त और हम निकल लिए क्लार्क होटल . सौभाग्य से जब हम क्लार्क होटल के गेट पर पहुँचे , उसी समय महादेवी जी की कार आकर खड़ी हो गयी . हम गाड़ी के पास गये . महादेवी का पैर छुआ .  वे  मुस्कुरायीं 

     - कैसे हो ? तुम लोग भी कार्यक्रम में आए हो ? 

     - आपका भाई  पाँच सितारा होटल में बैठने लगा ? 

     - देख लो ! अब तो प्रेमचंद भी सरकारी हो गये हैं 

     - लेकिन हम नही होने देंगे ! 

हंसी ज़ोर से - क्या कर लोगे ? 

      - आपका अपहरण ! 

खूब ज़ोर से ठहाका लगायीं , हमने उनकी कार का दरवाज़ा खोल दिया , अपनी कार की तरफ़ इशारा किया . ज़ोर से हमारी पीठ पर धप्पा मारा - बचा लिया रे ! बड़ा पाप लगता . चल कहाँ चलना है ? 

    - विश्वविद्यालय 

               

     उन दिनो काशी विश्वविद्यालय में खबर आग की तरह फैलती थी , रिमोट छात्र संघ कार्यालय  होता था . छात्र संघ के सामने खुले मैदान में जिसे आज मधुवन बोलते हैं महादेवी जी दरी पर पालथी  मारे बैठी हैं . भाषण नही , बतिया रही हैं . भाव भंगिमा के साथ . सामने हज़ारों छात्र , अध्यापक , कर्मचारी , सामने सड़क पर क्लार्क होटल की बस आकर रुकी . शिव मंगल सिंह सुमन , विष्णु खरे एक एक कर सब नीचे उतरे , चेहरे पर ख़ौफ़ .  हमने स्थिति को भाँप लिया . बस के पास गये और इन लेखकों का अभिवादन किया , अपना परिचय दिया , कष्ट के लिए माफ़ी माँगा . उन सब को ले आकर महादेवी जी के पास बिठाया . 

          अथ कथा मुंशी प्रेमचंद की 

      “ मेरा भाई , बहुत संकोची था , सरल तो था ही . एक बार हमारे घर आया , इलाहाबाद . (महादेवी जी का असल घर  फरुख़ाबाद रहा लेकिन वे रहीं इलाहाबाद ही समाजवादियों से उनके रिश्ते बहुत  अच्छे थे , उन्मे एक हम भी रहे ) जून का महीना था , गर्मी ज़ोरों की पड़ रही  थी . दोपहर ग्यारह बजे हम सोने चले जाते थे , हमारे माली को यह बात मालूम थी . इसी  बीच बारह ओरह बजे भैया आए होंगे , माली से पूछे होंगे , माली ने बताया होगा की अब मैं तीन बजे उठूँगी . भैया ने कहा होगा हम यहीं पेड़ के नीचे आराम कर लेते हैं , तीन बजे जब उठेंगी तो मिल लूँगा .भैया को  माली अपनी झोपड़ी में ले गया , गुड़ खिलाया पानी पिलाया और दोनो जन तीन बजे तक आपस में बयियाते रहे . दोनो ने भरपेट हेरमाना ( तरबूज़ ) खाया . जब हम तीन बजे के बाद बाहर आए तो भैया सामने खड़े मुस्कुरा रहे थे . कहते कहते महादेवी जी की आँख डबडबा आयी . 

     महादेवी के भैया मुंशी प्रेमचंद  की कलम इन्ही  मालियों की झोपड़ी में  सहेज कर रखे गये गुड़ के  ढोंकेमें धँस कर ही चली है . लेखन में महल और झोपड़ी के बीच के फ़ासले की कसक तो है पर घृणा , नफ़रत , और हिंसा नही , क्यों क़ि गुड़ का ढोंका तो बापू की हथेली पर है .

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