डॉ शारिक़ अहमद ख़ान
आम को चाहे चूसकर खाया जाए या काटकर खाया जाए।लेकिन आम का मज़ा तो तब है जब आम को बेसनी रोटियों संग खाया जाए।आम दो तरह के होते हैं,एक क़लमी और एक तुख़्मी. क़लमी आम को काटकर खाया जाता है. तुख़्मी आम को चूसकर खाया जाता है. लेकिन दावत-ए-आम में बेसनी रोटियों संग इसका जोड़ जमाने की रवायत सदियों से रही है.
'बारे आमों के कुछ बयाँ हो जाए
जो रोटियाँ बेसनी हों संग तो दिल रवाँ हो जाए'
मिर्ज़ा ग़ालिब ने कहा कि भई आम का मज़ा तो तब है,जब आम हों और ख़ूब हों।ग़ालिब को आम बहुत अज़ीज़ थे,अंगूर से कम नहीं।ग़ालिब मालदे के आम पर भी फ़िदा थे।कहते कि मालदे से बड़े-बड़े आम बल्लीमारान आते हैं और विलायती करके मिलते हैं,मीठे होते हैं।ग़ालिब ने हैदराबाद के आम के बारे में भी कहा कि
'और हो दिल जिनसे हमेशा शाद
वो तो होते हैं आम-ए-हैदराबाद '
ग़ालिब जब लाल किले में क़ैद रहे तो आम के साथ बेसनी रोटियाँ खाते रहे।दरअसल रसीले आमों का जोड़ ही है बेसनी रोटियों के साथ।हम क़रीब हर बरस आमों के मौसम में ग़ालिब की याद में जश्ने ग़ालिब मनाते आए हैं। जिसमें सहपहर के नाश्ते में बाल्टी में भिगाए हुए आम को बेसनी रोटियों के साथ नोश फ़रमाया जाता है और शुरफ़ा के साथ शेरो-शायरी का रंग जमता है।हर बार ये आयोजन कहीं बाहर होता था।
एक बार जश्ने-ग़ालिब ज़रा झूम के था।बेसनी रोटियाँ बनवाने का ज़िम्मा जिस शख़्स को दिया गया उसने बेसन में घोटाला कर दिया।आटे में हल्दी डालकर चार माशा बेसन ही डाला होगा।शुरफ़ा तशरीफ़ लाए,ज़ैयद आलिम आए,ज़रदार हज़रात आए और बाबा-ए-क़ौम बनकर सबकी मेज़बानी हमने की।
सबको बहुत लुत्फ़ आया.रंग जमा।ख़्वाजा मीर दर्द से लेकर जॉन एलिया मतलब जॉन औलिया तक का ज़िक्र हुआ।ग़ालिब को याद करते हुए एक बुज़ुर्ग़ ने कहा कि
'मुझसे पूछो तुम्हें ख़बर क्या है
आम के आगे नएशकर क्या है '
ख़ैर,सबने बेतहाशा बेसनी रोटियाँ सहपहर में आम के साथ खाईं।कहकहे लगे,लोग रूख़्सत हुए।बाद में पता चला कि रोटी इंचार्ज ने बेसन घोटाला किया था और घोटाले के पैसों से मय पी गया।तब से बाहरी आयोजन मैंने बंद कर दिया।अब घर के लॉन में करते हैं।बीते चार बरस पहले शायर इक़बाल अहमद ख़ान 'सुहैल' मतलब जिन्होंने आज़मगढ़ के बारे में लिखा है कि
' जो ज़र्रा यहाँ से उठता है वो नैय्यरे आज़म होता है '
उन्हीं के आज़मगढ़ ज़िले के गांव के बाग़ से दशहरी आम आ गए थे।बहुत उम्दा किस्म के आम।तभी ये दावत-ए-आम हुई थी,जो तस्वीर में है।फ़ेसबुक ने आज याद दिला दिया।लिहाज़ा दीवान-ए-ख़ास में,ख़ास शुरफ़ा के साथ सहपहर की जगह नाश्ते में ही बेसनी रोटियों के साथ आम घुलाए गए थे और ग़ालिब को याद किया गया था।
' साहब -ए-शाख़ -ओ-बर्ग-ओ-बार हैं आम
नाज़ परवरदा-बहार हैं आम '
हर बरस बनारस से एक कायस्थ हज़रत रजऊ बाबू हमें लंगड़ा आम भेजते हैं।जब भी आम भेजते हैं तो साथ में जामुन भी लगा देते हैं।एक बार जब उन्होंने आम भेजे तो हमने एक चुटका उनके पास रवाना किया और उससे ऊपर लिखकर भेजा कि
'सेहत के राज़ तुम्हें ख़ूब मालूम हैं रजऊ
साथ में जामुन भी लगा दी जो लंगड़ा भेजा'
दरअसल आम का जोड़ इसलिए भी जामुन के साथ है क्योंकि आम खाने से जो शकर मिलती है,जामुन उसे बैलेंस कर देती है।जामुन शकर की काट है।इब्नबतूता जब हिंद आया तो जामुन देखकर चकराया।उसने जामुन को अपने मुल्क के ज़ैतून जैसा बताया।
बीजू आम हिंदोस्तान में पहले से थे।लेकिन आम की क़लम लगाना और आम के बाग़ लगाने की शुरूआत हिंद में तब हुई जब मुसलमान हिंद आए।आम का इतिहास बताता है कि मुस्लिम सुल्तानों ने ही आम की क़लमें बनवाकर बाग़ लगवाने शुरू किए,ऐसे क़लमी आम हिंद में चलन में आए।दशहरी समेत तमाम आम क़लमी आम ही हैं।बीजू आम देसी आम हैं,जो छोटे होते हैं,इसका पौधा आम के बीज से लगता है,फ़सल कम होती है।जबकि क़लमी आम क़लम से लगाए जाते हैं,अब आज के दौर में क़लमी आमों की ही धूम है।बीजू बहुत कम होते हैं,जिसके पास हैं उसे ही नहीं अटते,अब बाज़ार में बहुत कम बिकने आते हैं।
जब अलाउद्दीन ख़ाँ अलाई ने मिर्ज़ा ग़ालिब को अपने लोहारू राज्य बुलाया तो एक वजह आम भी थी जिसकी वजह से ग़ालिब बल्लीमारान छोड़ लोहारू नहीं गए।ग़ालिब ने लिखा कि
'सर आग़ाज़े मौसम के अंधे हैं हम
कि दिल्ली को छोड़ें लोहारू को जाएं
सिवा नाज़ के हैं जो मक़बूले जाँ
ना वाँ आम पाएं ना अंगूर पाएं'
इसका जवाब अलाउद्दीन ख़ाँ 'अलाई' ने ख़त की मार्फ़त भेजा कि
'सर आग़ाज़े मौसम में ख़ूब है
कि दिल्ली से हज़रत लोहारू को आएं
सरौली के डाक के वो सब्ज़ आम
वो दिल्ली के अंगूर हर शाम आएं'
लेकिन फिर भी ग़ालिब अपना बल्लीमारान छोड़कर लोहारू नहीं गए.
बहरहाल,हर तरह के आम हमें अज़ीज़ हैं,क्या मलीहाबादी दशहरी क्या बनारसी लंगड़ा और क्या सफ़ेदे समेत तमाम किस्में,किसी को हम एक दूसरे से बेहतर नहीं कहते,ये आम की तौहीन है,हर किस्म के आम की अपनी सिफ़त ख़ुशबू और लज़्ज़त है,सबका आनंद लेना चाहिए।ये नहीं कि लंगड़े के ही पीछे पड़ गए या मलीहाबादी दशहरी को ही सबसे बीस बताने लगे।आजकल तो आम का मौसम है,लखनऊ में मलीहाबादी दशहरी की बहार है,मलीहाबाद जाकर भी बहुत से लोग ख़ूब आम ला रहे हैं,भेंट कर रहे हैं।आम हमें पसंद हैं,भरपेट नोश फ़रमाते हैं,हर किस्म के आम खोजवाकर मंगवाते हैं,ख़ुद भी तलाश करते हैं।वो किस्में जो अब दुर्लभ होती जा रही हैं,उनके ऊपर ख़ास नज़र रहती है।अभी इस बरस की दावत-ए-आम नहीं हुई है।ख़ैर,जब भी दावत-ए-आम ड्योढ़ी पर हो तो सहपहर में हो,बाल्टी में पानी डाल ठंडे किए गए आम हों,लाज़िम है कि साथ में बेसनी रोटियाँ हों और हो चटनी।तब आता है दावते आम का मज़ा।मलीहाबाद में इसी छब्बीस जून से दावत-ए-आम का आयोजन यूपी सरकार और कुछ संगठनों द्वारा मिलकर किया जाना है,जो तीन जुलाई तक चलेगा।वहाँ बाग़ों में जाकर सैकड़ों किस्मों के आमों का लुत्फ़ लिया जा सकता है,हम भी सोच रहे हैं कि मौक़ा मिला तो किसी दिन तशरीफ़ ले जाएंगे.
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