रमाशंकर सिंह
आज कुछ कोहरा और धूप का न खिलना शिखरों पर पडी बर्फ़ को अच्छे से दिखा नहीं पा रहा. वैसे भी कश्मीर को छोडकर बाकी हिमालयी अंचल में इस साल बर्फ़ बहुत कम ही पडी है.
सर्दियों में बर्फ़ का न गिरना प्रकृति के भयानक संकेत हैं जिसके कारण ग्लेशियर पिघल कर टूट कर नदियों मे तबाही ले आये.
फिर पहाड़ी नदियों के किनारे आश्रमों,नये धर्मस्थलों,धर्मशालाओं , होटलों और विकास के अन्य प्रकृति विरोधी अनैतिक उपक्रमों से अब ऐसे झटके और देखने को मिलेंगें जिसे इंसान विनाश कहने से बाज नहीं आयेगा. इन इमारतों के सीवर ने पहले ही गंगोत्री यमुनोत्री से लेकर सभी पवित्र जल स्त्रोतों को प्रदूषित कर रखा है . दरअसल वह प्रकृति के संतुलन की एक कोशिश होगी.
दुनिया में कई जगह पुराने बडे बांध अब निष्क्रिय किये जा रहे है पर भारत में ठेकेदार नेता और अफसरों का गठजोड़ इसे विकास कह कर जनता को भरमा रहा है. नही समझ आया तो मात्र एक टिहरी बांध के धराशायी होने से ही दिल्ली में बैठे चंगेज़ खान तक अपनी पहली मंज़िल तक डूब जायेंगें. कभी कभी ऐसा आभास होता है कि यह दुर्घटना कहीं जल्दी ही न हो जाये.
पूरा पहाड खास तौर उत्तराखंड के वन में आठ महीने जगह जगह आग लगी रहती है और वर्षा ऋतु में ही बुझ पाती है. किसी को न दिखती है और न ही उनके कानों पर जूं रेंगती हैं.उत्तर भारत के खेत गाँव आबादी हिमालय की बर्फ पर ही जीवन चलाते हैं. सारी ये नदियॉं हिमालय का ड्रेनेज सिस्टम ही तो हैं.
विकास = महाविनाश
जो विकास कहे और करे समझो वो धनपशुओं के अनैतिक चंगुल में हैं या जबर मूर्ख है और वास्तविक विकास नहीं समझता है.
दुख की बात है कि जो कथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादी विचारक व पर्यावरण सक्रियकर्मी पहले इन विषयों पर लेक्चर पेलते थे अब धन के कुप्रभाव से चुप्प हो गये हैं.फेसबुक से साभार
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