एक होता था कुआं

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एक होता था कुआं

संजय श्रीवास्तव 

मेरे यादों के बक्से में आमतौर पर आउटडेटेज चीजें हैं. जमाने में पीछे छूटती हुईं या पीछे छूट चुकीं. इसी में कुंआ भी है, जो जिंदगी में कुछ सालों तक ऐसा साथ चला कि दिमाग जब मेमोरीज के फ्रेम बनाता है तो उसमें वो जरूर नमूदार हो जाता है. कई कुएं. बस शहर और कस्बे बदले. 

एक अहाता था. बाड़ा. मोहन सेठ का बाड़ा. करीब 30-35 फीट का लकड़ी का बड़ा गेट. उसके बगल से 04 अदद किराए के क्वार्टर. सामने से गुजरती हुई एक जर्जर सड़क. गेट के अंदर लाल बजरी की सतह. बीच गोल चबूतरे और उसमें पीपल का पेड़. अंदर भी 04 क्वार्टर. और सबसे किनारे इस अहाते में एक कुंआं. जिसकी घिरनी दिन में रुकती ही नहीं थी. रस्सी के साथ बाल्टी अंदर गोता मारती थी. फिर ऊपर उठती बाल्टी के साथ घिरनी चीं-चीं करने लगती थी. इस कुएं पर बैठकर ना जाने कितनी बार नहाए होंगे. 

ऐसा लगता है कि हर कुंआ बहुत से राग-वीतराग समाए रहता है. जिस मूड में उसके पास पहुंचिए, वो उसी तरह आपको समेटता था. कुओं की दुनिया जब आबाद थी, तब इसके आसपास बहुत सी कहानियां बनती थीं. जीवन की कहानियां. 

मेरे पेरेंट्स का बनवाया घर मेरठ में जहां हैं वहां से कई किलोमीटर के इलाके में शायद कोई कुंआ हो. बनारस - जहां पैतृक मकान है, वहां की गलियों और आसपास कहीं कुआं नजर नहीं आया. कुंड जरूर दिखे. जौनपुर ननिहाल, वहां भी रिहायशी इलाके में कुआं नहीं होता था. मेरी बीवी बरेली की है, वह कहती है कि उसके घर के पीछे एक कुंआ था लेकिन जब बसावट शुरू हुई तो ये पट गया. जरूरत भी नहीं थी. 

20 सालों से नोएडा में हूं, यहां तो कुआं होने की कोई वजह ही नहीं लगती. हां कुछ गांवों में जरूर बचे होंगे. उपयोग में भी होंगे. वैसे बहुत सी चीजों की तरह कुएं भी हमारी जिंदगी से निकल चुके हैं या निकल जाएंगे.

बचपन में जब 08-09 साल का रहा होऊंगा तो रात में ट्रेन जिस स्टेशन पर रुकी, वो अनजानी सी जगह बुढ़ार थी. मध्य प्रदेश के शहडोल जिले का एक छोटा सा कस्बा. सुबह जिस घर में नींद खुली, वहां सामने बेशरम की अनायास आ जाने वाले पौधों और कुछ पेड़ों के बीच कुछ खप्पर के मकान थे. वहीं एक कुंआ. पहला साक्षात्कार. ये वो कस्बा था जहां जिंदगी के 02-03 साल बीतने थे. 

आपातकाल आया नहीं था. सड़कों में सड़कें कम गड्ढ़े और पत्थर ज्यादा होते थे. विकास तब ना कोई जुमला था और ना हकीकत. जीवन का राग भी अलग होता था. पिता ने जहां किराए का मकान लिया, वो शहर के एक छोर पर था.रेलवे स्टेशन से करीब 02 किलोमीटर दूर. घर क्या पूरे कस्बे में ही नल का अतापता नहीं था. पानी का दाता कुआं ही था. वो पानी तो देता था लेकिन थोड़ी मेहनत भी कराता था.


कुएं से पानी मेड लाती थी या पापा के आफिस का कोई सर्वेंट. तब इस कस्बे के हर घर में या घर के आसपास एक कुंआं जरूर होता था. उसी से घरों में बर्तन, नहाना-धोना, कपड़ा, पोंछा, सफाई और खाना- पीना सब होता था. तब जो गांव और कस्बे बसते थे, वहां अगर पास में कोई नदी नहीं होती थी तो पहले कुआं खोदा जाता था, देखते थे कि पानी मीठा है कि नहीं. फिर बस्ती बसने लगती थी. ये क्रम सैकड़ों-हजारों सालों से नदी से दूर बसे गांवो और बस्तियों में होता चला आ रहा था. वैसे कुओं ने भी छूआछूत, ऊंचनीच की लंबी कहानी देखी थी.


कुछ समय बाद हम लोग बुढार में बस स्टैंड के करीब एक अच्छे घर में गए. दोमंजिला घर. चार फ्लैटों की तरह बंटा हुआ. दो नीचे और दो ऊपर. अंदर आंगन में पीछे कॉमन कुआं. घर की जरूरत के लिए दिनभर में कम से कम 15-20 बाल्टियों का पानी लगता ही था. तब रसोईं में घड़े और सुराहियां होते थे. 


फिर पापा का तबादला शहडोल जिले के दूसरे कस्बे उमरिया में हुआ. खूबसूरत और खुली हुई जगह. गर्मी के सीजन में दो चीजों से आबाद रहता. पेड़ों से टपकते और मादक महकते महुआ से और सुर्ख लाल भभकते और सड़कों पर बिखरकर लाल करते टेसू के फुलों से. सिविल लाइंस में किराए का मकान. जहां कुएं कम चांपाकल ज्यादा. नल यहां भी नहीं था. हां बाकी इलाकों में हर घर में कुंआं वाली परंपरा बरकरार थी. कुओं के बगैर जीवन के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता था. 


जब बारिश होती थी तो कुएं पानी का संरक्षण भी करते और पर्याप्त संचय भी. कुंओं का पानी अगर पानी की बर्बादी रोकता है तो शारीरिक श्रम और एक्सरसाइज को भी न्योता देता था.वो भी जमाना था जब बाल्टी खींचकर हम जैसे लोग भी कुएं की मुंडेर पर नहा लिया करते थे. जितनी बाल्टी से नहाना है, उतनी से नहाइए. ताजा पानी. फ्रेश कर देने वाला. 

 

फिर एक और खूबसूरत कस्बे कोतमा में ट्रांसफर. ये वहीं कस्बा था जहां मोहन सेठ का बाड़ा होता था. यहां तो घर का सारा काम ही कुएं के पानी पर निर्भर था. घर लाइन पार था यानि स्टेशन से दूसरी ओर. तो धीरे धीरे लंबाई में बस रहा था. यहां भी हर घर में कुंआं था. यहां कोई ऐसा नहीं रहा होगा, जिसने कुएं से पानी नहीं खींचा हो.  

कुंओं में कभी बाल्टी गिर भी जाती थी. कभी कुंआ साफ होता था तो कभी पानी कम होने पर इसकी और खुदाई होती थी. कभी कुछ शैतान बच्चे इनमें गिर भी जाते थे. फिर निकाले जाते थे. जब वहां का कोई मकान वीरान होकर खंडहर में बदलने लगता था तो उसकी किस्मत से बंधा कुआं भी उसी हाल को प्राप्त होने लगता था. कभी कभी खुले कुएं खतरनाक भी हो जाते थे.

 जब शहडोल कॉलेज में बीएससी करने गया तो हास्टल का भी एक कुंआ था. गनीमत थी कि यहां नल से भी पानी आता था. हास्टल से लगी पहाड़ी नदी हर-हर बहती थी. लड़कों को असली मस्ती कुएं पर नहाने या नदी में छप-छप करने में आती थी. हास्टल का चौकीदार परमेश्वर मुछों पर ताव देते हुए बताता था कि वो अब भी रोज खुद 30 बाल्टी से ज्यादा पानी खींचता है. 

वैसे अब कुएं के दिन लदने लगे हैं. ज्यादातर जगहों पर खस्ताहाल हैं, जर्जर हैं या मिट्टी से पट रहे हैं. इस्तेमाल कम है. कुएं हड़प्पाकाल से बहुत ज्यादा पुराने हैं. 10,000 साल पहले उनका इस्तेमाल होता रहा है. हालांकि सिंधू हड़प्पा काल की जब खुदाई हुई तो उसमें कुंएं नहीं मिले थे. शायद वजह ये भी रही होगी कि तब हमारे ज्यादातर शहर, गांव और बस्तियां नदी के किनारे ही बसे. 

राजस्थान, गुजरात में बावड़ियां और कुएं बहुत हैं. मध्य प्रदेश में भी बहुत. साउथ में भी मैं जो घूमा, उसमें वहां भी कुएं कम नजर आए. कुएं आमतौर पर 30 से 100 फुट तक गहरे होते हैं, पर अधिक पानी के लिये और गहरे भी. ऑस्ट्रेलिया में चार सौ फुट से अधिक गहरे कुएं खोदे गए. जब भूजल का स्तर काफी गिरा और नई बोरिंग तकनीक आ गई तो कुएं की उपयोगिता खत्म हो गयी. दुनिया के सबसे पुराने कुएं भारत, चीन, इजरायल में बनाये गये. दुनिया का सबसे पुराना ज्ञात कुआँ इज़राइल के ‘‘एटलिट याम’’ में खोजा गया.

कुएं का पानी शुद्ध और आरोग्य देने वाला होता है. इसमें आर्सेनिक की मात्रा नलकूल के जल की तुलना में कम होती है. हमारी संस्कृति में कुओं को घर के तमाम संस्कारों, विवाह और समारोहों से भी जोड़ा गया. शुभ काम कुएं को पूजने के साथ शुरू होते थे. 

कुआं हमारी प्राचीन सभ्यता व संस्कृति का हिस्सा थे लेकिन अब विकास की तेज रफ्तार वो पीछे छूट चुके हैं. ना अब उनकी देखभाल है और ना उनकी फिक्र. वैसे इंसानों की ये फितरत यूज एंड थ्रो की हमेशा से रही है. उसमें कुएं ही क्यों इंसानों के हाथों इंसानों की भी यही स्थिति हो जाती है. कुछ सरकारी योजनाएं तो कुएं के लिए बनीं थीं लेकिन....साभार संजय श्रीवास्तव की वाल से 


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