ओम प्रकाश सिंह
हिंदुस्तान की पूरी सभ्यता नदियों के किनारे बसी और विकसित हुई.भौतिकता की आंधी, बिगड़ते पर्यावरण में पौराणिक नदियां नालों में तब्दील हो रही हैं. हरदोई से निकलकर जौनपुर तक बहने वाली सई नदी का पानी जहरीला हो गया है और नदी नाले में तब्दील हो गई है.
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में राम वन गमन मार्ग में पड़ने वाले धार्मिक स्थलों के साथ प्रदेश के अन्य हिंदू धार्मिक स्थलों को भी विकसित किया जा रहा है. प्रतापगढ़ जनपद में सई नदी के किनारे स्थित बेल्हा माई मंदिर को शक्तिपीठ का दर्जा हासिल है. योगी सरकार में मंदिर का पुनरुद्धार किया गया है. मंदिर की सीढ़ियां नदी की तलहटी तक हैं लेकिन अब यह नदी, नाले में बदल गई है और पानी जहरीला हो गया है.
देशभर में देवी मां के अनेकों मंदिर अपनी अलग विशेषता व चमत्कारों के लिए विख्यात हैं. ऐसा ही एक मंदिर उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में बेल्हा देवी का मंदिर लोगों की आस्था का केंद्र हैं. यहां लोग देवी मां से अपनी मनोकामनाओं को लेकर आते हैं, मां बेल्हादेवी धाम में सच्चे मन से मांगी गई मुरादें पूरी होती हैं. नवरात्र में मां के अलग-अलग स्वरूपों का श्रृंगार किया जाता है. मां के दरबार में रात में व सुबह आरती की जाती है. बेल्हा देवी मंदिर में लोग अपने बच्चों का मुंडन, कर्ण छेदन आदि संस्कार करवाते हैं और मंदिर में मांगलिक कार्य भी होते हैं.
इतिहास के आइने में देखें तो यहां चाहमान वंश के राजा पृथ्वी राज चौहान की बेटी बेला थी जिसका विवाह इसी क्षेत्र के ब्रह्मा नामक एक युवक से हुआ था. बेला के विदाई के ही दिन ब्रह्मा की मृत्य हो गयी थी, इस गम को बेला झेल नहीं पाई जिसके कारण बेला ने इसी नदी में खुद को सती कर लिया इसलिए इसे जगह को सती स्थल के नाम से भी जाना जाता है.
इस धाम को शक्ति पीठ का दर्जा हासिल है. कहते हैं कि यहां माता सती का कमर वाला हिस्सा (बेला) गिरा था. यहां सोमवार व शुक्रवार को मेला लगता है, जिसमें बेल्हा के साथ आसपास के जिलों के लोग भी आते हैं. नवरात्र में यहां लोगों का सैलाब मां के दर्शन को पहुंचता है. बेल्हा मंदिर को लेकर लोगों का मानना है की यहां राम वनगमन मार्ग के किनारे सई नदी को श्रेता युग में भगवान राम ने पिता की आज्ञा से वन जाते समय पार किया था और यही उन्होंने पूजन कर अपने संकल्प को पूरा करने के लिए ऊर्जा ली थी. वहीं मंदिर को लेकर दूसरी किवदंती यह भी है एकी चित्रकूट से अयोध्या लौटते समय भरत ने यहां पूजन किया था. जिसके बाद ही यह मंदिर लोगों के अस्तित्व मेें आया और यहां लोगों की आस्था बढ़ने लगी.
हरदोई से निकलने वाली सई की प्रमुख सहायक नदी बकुलाही नदी है, जो कि रायबरेली , प्रतापगढ़ व इलाहाबाद में बहती है. लोनी और सकरनी जैसी छोटी नदियाँ सई की सहायक नदियां है.जौनपुर में सई नदी गोमती में जहां मिलती है वह स्थान त्रिमुहानी के नाम से जाना जाता है. यहाँ पर कार्तिक पूर्णिमा के दिन पौराणिक स्नान की मान्यता है तथा वृहद् मेले का आयोजन किया जाता है. यहां का उल्लेख रामचरित मानस के इस चौपाई में मिलता है - सई उतर गोमती नहाए, चौथे दिवस अवधपुर आए.
जीवन दायिनी मानी जाने वाली सई की धारा ठहर सी गई है. प्रदूषण के चलते पानी छूने पर खुजली होने लगती है. नदी के गड्ढों में जहां-जहां पानी जमा है, वह काला पड़ गया है. तटीय इलाकों के ग्रामीणों का कहना है कि काला पानी शरीर पर लगने पर खुजली होने लगती है. दरअसल नदी में इलाके के कल-कारखानों का दूषित पानी छोड़ा जाता है, जिससे पूरी नदी ही दूषित हो जाती है. नदी के सूखने के बाद पानी जहरीला हो जाता है. ऐेसे पानी को मवेशी भी नहीं पीते हैं. नदी के किनारे जंगली और पालतू जानवरों के सामने पानी का संकट खड़ा हो गया है.
भौतिकता की आंधी में पौराणिकता नष्ट हो रही है. पर्यावरण असंतुलन से मानसून प्रभावित हुआ है. जलस्तर नीचे जा रहा है. ऐतिहासिक, पौराणिक नदियां सूख रही हैं. इन्हें बचाने की चुनौती सरकार को स्वीकार करनी चाहिए. जनसहयोग सें नदियों के किनारे सघन विविधता वाले वृक्षारोपण हों. नदियों की तलहटी में जमी गाद निकालने की सरकारी व्यवस्था हो और इन कार्यों के लिए एक निगरानी तंत्र बने जिसमें न्यायिक, सामाजिक क्षेत्र के सदस्य भी हों.
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