दरकते पहाड़ और तूफान के वे दो दिन

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दरकते पहाड़ और तूफान के वे दो दिन

अंबरीश कुमार 
नैनीताल के रामगढ़ में बरसात तो दो ही दिन से हो रही थी इसलिए ज्यादा चिंता भी नहीं थी । बीते जून में ही छह दिन की बरसात हो चुकी थी जिसका कोई ज्यादा असर भी नहीं पड़ा था । सत्रह अक्तूबर से बरसात शुरू हुई । यह बरसात अठारह अक्तूबर को और तेज हो गई तो चिंता हुई । हमे 19 अक्तूबर की सुबह लखनऊ निकालना था । दोपहर में टैक्सी ड्राइवर अतीक को फोन किया तो वह काठगोदाम से आगे रास्ते में था ,हमने कहां ,बरसात बहुत ज्यादा हो रही है इसलिए आज शाम को ही रामगढ़ या जाओ काठगोदाम चले जाएंगे । पर अतीक का जवाब था ,सर चिंता न करें सुबह आठ बजे आपके दरवाजे पर रहूंगा । हमने कहा ,ठीक है । पर मन आशंकित था क्योंकि केदारनाथ हादसे के समय भी हम यहीं थे और भारी तूफान आया था । दोपहर की ट्रेन थी और कोई गाड़ी काठगोदाम जाने के लिए तैयार नहीं थी । लखनऊ विश्वविद्यालय  के साथी सनत सिंह तब आरटीओ हल्द्वानी थे उन्हे बताया तो बोले चिंता न करे आपको लेने के लिए गाड़ी भेज रहा हूं । गाड़ी आई और बहुत मुश्किल से हम काठगोदाम पहुंच पाए । रास्ते में जगह जगह पेड़ पत्थर गिरे थे । काठगोदाम पहुंचने के कुछ देर बाद ही पता चला कि महेशखान जंगल के पास देवदार का बड़ा दरख्त गिरने से रास्ता बंद हो गया है जिसे खुलने में कई घंटे लगेंगे । वही दृश्य सामने था । बहरहाल बरसात लगातार तेज हो रही थी और छत का पानी एक जगह किसी बड़े नाले की तरह नीचे के बरामदे की एक क्यारी में गिर रहा था । लाइट भी या रही थी पर मिट्टी वाला पानी आने की वजह से टंकी का कनेक्शन बंद करा दिया ताकि उसका साफ पानी दर तक इस्तेमाल हो सके ।  
उन्नीस अक्तूबर की सुबह नींद खुली तो नजर खिड़की के सामने गई । खिड़की पर धुंध से साफ नजर नहीं आ  रहा था । बरामदे में सामने की खिड़की का सीसा साफ किया तो जो देवदार और कई और दरख्त दिखते थे वह नहीं दिखे । बगल के मान काटेज का बड़ा हिस्सा साफ था । मिट्टी और पेड़ पौधे सब नीचे बह गए थे । तभी बगल के रिसार्ट के मैनेजर को देखा जो हाथ का इशारा कर बुला रहा था । फिर नीचे की तरफ नजर गई तो अपना चिनार और नाशपाती का पेड़ भी नहीं दिखा । वह तो क्यारी ही गया थी जिसमे यह पेड़ लगे थे । दरअसल टिन की छत का पानी इन्ही पेड़ के बास गिरता भी था । वह क्यारी और रिटेनिंग वाल का एक हिस्सा भी बह कर कुछ दूर जा चुका था । यह सब डराने वाला था । अपना सामान बंधा हुआ था काठगोदाम निकलने के लिए । फिर अतीक को फोन किया यह पूछने के लिए कि वह कहां तक पहुंचा है । पर अतीक का जवाब सुनकर तनाव और बढ़ गया । अतीक ने कहा ,काठगोदाम से सारी ट्रेन रद्द हो चुकी है क्योंकि काठगोदाम और हल्द्वानी के बीच एक जगह पटरी के नीचे से जमीन ही बह चुकी है । दूसरे काठगोदाम से आगे पहाड़ पर किसी वाहन को नहीं जाने दिया जा रहा है । जगह जगह पहाड़ गिर गए हैं और कोई भी नहीं निकल पा रहा है । फिर पंकज आर्य को फोन मिलाया जो डाक बंगला के पास रहता है ताकि आसपास का हाल मिले । पंकज ने कहा ,सर बहुत तबाही हो गई है तल्ला रामगढ़ में कई घर बह गए हैं । करीब दर्जन भर मजदूर दब गए है ,आप घर से बाहर अब न निकले । इस बीच बगल के रिसार्ट का मैनेजर भी या गया और बोल आपके घर के नीचे पानी का बहाव काफी तेज है और जमीन कट रही है आप हमारे काटेज में या जाएं । अब तो  बिजली थीं पानी न ही कहीं जाने का कोई रास्ता । ऊपर बस स्टेशन जाने के रास्ते में दीपा कौल के घर से आगे पहाड़ का बड़ा हिस्सा गिर कर रास्ते पर या चुका था तो नीचे डाक बंगला रोड एक मोड के नीचे ही बंद हो चुकी थे क्योंकि देवदार के कई पेड़ उसपर गिर चुके थे । बाहर निकलने की अब कोई संभावना नहीं थी । इस बीच रिसार्ट से जीतने भी सैलानी चेक आउट कर निकले थे वे सब वापस या गए क्योंकि सभी रास्ते बंद थे । सैलानियों की हालत देख हमने भी कमरा छोड़ दिया ताकि उन्हे  कोई दिक्कत न हो । दरअसल अपने पास दो विकल्प और थे बगल के मान घर आकर कह गए कि या हमारे यहां या जाएं कोई खतरा नहीं है । दूसरे हमारे यहां काम करने वाली लता ने ही हमारे लिए एक कमरा अपने घर में तैयार कर दिया था जो कुछ समय पहले ही बना  था । दिन में हम वही थे और रात में मान काटेज में । इस बीच फोन संपर्क पूरी तरह टूट चुका था ।  
बीस की सुबह हम घर लौटे और नहाने के बाद नाश्ता किया । समस्या फोन की थी । इस बीच यह पता चला कि रामगढ़ भवाली रास्ता खुल गया है । हमे लगा कि अब निकलने का प्रयास फिर करना चाहिए पर कैसे ? 
इस बीच लता के घर पर अचानक मेरे फोन की घंटी बजी तो देखा कोलकता से जनसत्ता के पुराने साथी प्रभाकर मनी तिवारी का फोन था मैंने उनसे कहा कि आप आशुतोष जो को फोन कर घोड़ाखाल में रहने वाले पूर्व आईजी शैलेंद्र प्रताप सिंह को संदेश दे कि वे मुझे यहां से अपनी गाड़ी भेज कर निकाल  लें । प्रभाकर का फिर फोन आया कि उनका नंबर उनके पास नहीं है तब मैंने कहा कि शीतल सिंह या विभूति नारायण राय साहब से बात कर लें क्योंकि यहां से कोई नंबर नहीं लग रहा है । बहरहारहल  किस्मत ठीक थी राय साहब का फोन आया कि आपको लेने गाड़ी या रही है । इस बीच शीतल सिंह का भी मैसेज या गया । इस बीच हम जो रास्ता डाक बंगला की तरफ जाता है उसपर निकले ताकि आसपास का हाल लिया जा सके । पर जहां देवदार के पेड़ गिरे थे उन्हे काट तो दिया गया था पर गीली मिट्टी का ढेर पार करना भी बहुत मुश्किल था । बरसात हो रह थी और पहाड़ से काफी तेजी से पानी सड़क पर या रहा था । राय साहब की घर की तरफ बढ़े तो करीब डेढ़ फ़र्लांग तक की सड़क धंसी हुई नजर आई । दरअसल यह पहाड़ी ही कुछ धंस रही है । इसी तरफ रहने वाले बच्चू बाबू शाम को ही अपना घर छोड़ कर दूसरी जगह चले गए थे । पहाड़ी में दरार या गई थी । नीचे का हाल और खराब था पर ज्यादा नीचे जाने का कोई रास्ता भी नहीं था । अब हमे अपने निकलने की व्यवस्था भी करनी थी क्योंकि पानी पूरी तरह बंद हो चुका था उर इस हालत में रहना भी संभव नहीं था ।  
हम किस तरह बाजार तक पहुंचे  यह भी  समस्या और थी  घर के आगे कुछ दूर पर मलबा था और वहां से पैदल निकलना  भी संभव नहीं था । अपने पास एक अटैची ,दो बैग आदि थे जो भारी भी थे पर पहिये वाले थे जिन्हे लेकर हम करीब एक किलोमीटर सड़क का रास्ता चले फिर पहाड़ का कच्चा रास्ता भी । चढ़ाई पर सामान के साथ चलने पर सांस फूल चुकी थी की तरह रुक रुक कर ऊपर बस स्टेशन पहुंचे । डर यही था कि फोन संपर्क न होने पर गाड़ी वापस गई तो हमे फिर नीचे आना पड़ेगा । खैर बाजार में कृष्णा जोशी की दूकान पर सामान रखवा कर अखबार के बारे में पूछा तो पता चला कोई वाहन ही नहीं या रहा है अखबार क्या आएगा । इसी बीच वहीं पर शैलेंद्र जी दिख गए जो अपने मित्र के साथ आए हुए थे । उन्हे देख कर जान में जान आई कि अब यहां से निकल सकते है । हम निकले घोडाखाल के लिए तो जगह जगह पहाड़ का मलबा गिर हुआ था । पेड़ भी कई जग गिरे हुए थे इन्हे काट कर रास्ता साफ किया गया था ।  
उत्तराखंड में हाल की भारी बरसात ने सौ साल का रिकॉर्ड ही नहीं तोड़ा, बल्कि पहाड़ के इस अंचल को तबाह भी कर दिया है। पहले तो हमे भी यही लगा कि बादल फट गया, लेकिन तकनीकी रूप से इसे अतिवृष्टि ही बताया गया है। इस आपदा का सबसे ज्यादा असर नैनीताल जिले के भीमताल ,भवाली ,रामगढ़, नथुआखान, तल्ला रामगढ़ से लेकर भीमताल में ज्यादा हुआ है। रामगढ़ में तो हमारे सामने का ही पहाड़ दरक गया । करीब तीन दशक से अपना इस अंचल से नाता रहा है, लेकिन ऐसी आपदा और ऐसी तबाही पहले कभी नहीं देखी। दरअसल पानी के परंपरागत स्रोत बंद कर बेतरतीब निर्माण भी इस नुकसान की एक वजह रही है । दूसरे जिस तरह जेसीबी मशीन लगाकर कच्चे पहाड़ पर रास्ता बनाया गया आई वह भी बहुत खतरनाक है । जिसे आप कई जगह देख सकते हैं .  
 

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