सतीश जायसवाल
रायपुर एक शहर है.अब दो हो गया. इसके भीतर एक और शहर आ गया -- नवा रायपुर. पहले वाला पुराना हो गया.
"भागीरथी की जलेबी" पुराने शहर की एक पुरानी पहिचान है.इसके साथ मुझ जैसे पुराने किस्म के शौक़ी लोगों की जान-पहिचान है. ये जान-पहिचान अब कोई 40-50 बरस पुरानी तो होने ही आयी.तब यह पुरानी दुकान देखने में भी पुरानी दिखती थी.और इसकी गद्दी पर बैठा हुआ भागीरथी भी अपनी पुरानी दुकान की तरह पुराना दिखता था.
उन दिनों हम जैसे चटोर किस्म के लोग रायपुर के अपने कार्क्रम में "भागीरथी" की जलेबी और दही को जोड़कर यहां आते थे.लेकिन इस बार कोई 40-50 बरस बाद इस दुकान पर आने का मौका मिला.
पुरानी दुकान बिल्कुल नई हो चुकी है.और आज के दिनों के साथ चल रही है.अब तो इसकी जलेबी की ऑनलाइन बुकिंग होने लगी है.और होम डिलीवरी सेवा भी शुरू हो गयी है.यह सब उसके साइनबोर्ड पर लिखा हुआ है.पुरानी दुकान को साइन बोर्ड की जरूरत नहीं थी.लेकिन अब, साइनबोर्ड नहीं होता तो मुझ जैसा पुराना आदमी दुकान को पहिचान भी नहीं पाता.
दुकान जरूर नई हो गयी है.लेकिन जलेबी उन्हीं पुराने दिनों की है.पुराने दिनों वाले अपने उसी स्वाद को सहेजे हुए.
अब भगीरथी की तीसरी पीढ़ी ने इस पुरानी दुकान को सम्हाल लिया है.सुबोध और सुबोध के बेटे ने.दुकान के साथ दुकान के पुराने दिनों को भी. सुबोध ने उन पुराने दिनों के साथ पुरानी जान-पहिचान वाले अपने एक पुराने ग्राहक को भी पहिचान लिया.
उसने मुझे पहले कभी नहीं देखा होगा.लेकिन पुरानी दुकान का पता ढूंढते हुए पहुंचने वाले एक ग्राहक को पहिचान लेने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुयी.
उस समय गरम गरम और रसभरी जलेबियाँ निकल रही थीं.अपने, उन्हीं दिनों के स्वाद के साथ. मुझे भी भरोसा हो गया कि यह, वही पुरानी दुकान है.
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