मुकेश नेमा
पैंतालीस साल बीत गये अब तो. पर आज भी जब किसी जामुन के पेड़ को देखता हूँ तो मन में मीठे जामुनों से लदे वो पेड़ खिलखिलाने लगते है जो मेरे मन के आँगन में अब भी लगे हुए है. खंडवा के एक आम से मोहल्ले लालाजी की चाल में रहते थे हम लोग. लगभग एक जैसे एकमंजिला घरों में से एक घर हमारा था. तीन कमरे. आगे पीछे आँगन. आसपास बसे सीधे सादे लोग जो जितना है उसमें राज़ी थे. पर एक चीज़ थी जो इस पूरे परिदृश्य से बहुत अलग थी. हम लोगो के घरों के सामने एकड़ भर ज़मीन पर बना बड़ा सा ,भव्य मूसा मेंशन . लालाजी की चाल और उस बडे महल को कँटीले तारो की एक बाड़ अलग करती थी.
उस बडे से मकान के हरे भरे परिसर में लगे जामुन के पेड़ और दूर दूर तक फैली बड़ी बड़ी तिरपालों पर सूखती कच्ची मूँगफलियाँ अब भी याद है मुझे. ये बैंगनी जामुन और लाल सुर्ख़ मूँगफलियाँ बच्चों के दिमाग़ पर क़ब्ज़ा कर लेने के लिये काफ़ी थे. हम सभी बच्चे इंतज़ार करते थे कि कब मूसा मेंशन के रहवासी उनींदे हो और हम सभी तार की बाड़ फाँद कर अंदर जा घुसे. ऐसे मौक़े मिलते रहते थे और खदेड़े जाने के पहले हम लोगों की जेबें मूँगफलियों और जामुनों से भरी होती थी.
अमीर मूसा मेंशन और मध्यमवर्गीय लालाजी की चाल को अलग करती तारों की बाड आए दिन कटती रहती थी. झुका दी जाती थी वो ताकि उसे फ़र्लांग कर पार किया जा सके. ऐसा करने की मूँगफलियों और जामुन के अलावा एक और बडी वजह थी. दरअसल शार्ट कट था वो स्कूल और बाज़ार का. ऐसे मे ,लगातार होते इस काम से मूसा मेंशन वाले पहले अनमने हुए. नाराजगी भी जताई उन्होंने. पर बाड का झुकना जारी रहा. ऐसे मे वो हारे. तटस्थता ओढ़ ली उन्होंने. हम लोग अनदेखे किए गये और स्कूल हमारे पास बना रहा.
मूसा मेंशन के बाडे मे लकड़ी का एक कारखाना भी मौजूद था. और इस कारखाने के एक कोने मे एक जादूगर की टपरी थी. जादूगर जो पलके झपकते ,गिल्ली डंडे और भौंरे तैयार कर देता था. मुझे भला लगता था उसे काम करते देखना. अपनी तेज चलती मशीन पर झुका वो बूढा आदमी जिस तन्मयता से बच्चों के इन खिलौनो में रंग भरता था वो देखने की चीज थी भी. जाहिर है वो मेरे बचपन की इंद्रधनुषी यादों का सबसे चटखदार हिस्सा है.
मूसा मेंशन हम बच्चो के दिमाग़ में समाने लायक़ घर से बहुत बड़ा था. तब एक गोरे चिट्ठे बोहरा दम्पति अपनी तीन गुलाबी बच्चों जिसमे उनकी बड़ी बड़ी आँखों वाली मुनीरा नाम की बेटी शामिल थी रहते थे वहाँ. उस लड़की के लिये हम चोर बच्चे बड़े कौतुक की चीज़ हुआ करते थे. फिर थोडे और बडे हुए हम. मुनीरा मेरी बडी बहन की सहेली हुई सो उसके घर मे कभी कभार आना जाना हुआ भी. मुनीरा भली लड़की थी और उससे मिलना एक नई सभ्यता से परिचित होने जैसा था.
खंडवा बरसों पहले छूट गया. इस बीच खंडवा जाना तो हुआ पर उस मोहल्ले में जाना हो नहीं सका मेरा. पर लालाजी की चाल और उसके सामने बसा वो सौम्य बोहरा परिवार ,जिसके बाशिंदो को अच्छे से नाराज़ होना भी नहीं आता था अब भी याद है मुझे. यह नहीं जानता मैं कि सर पर कसीदाकारी वाली गोल सफ़ेद टोपी लगाने वाले वो भले लोग अब वहाँ है भी या नहीं. पर मैं उम्मीद करता हूँ वो अब भी वही बसे हैं और उनके कैम्पस में सूखती मूँगफलियों और मीठे जामुनो की बदौलत बच्चों का ख़ुशियाँ चुरा लेने का मीठा सिलसिला अब भी जारी है. साभार फ़ेसबुक वाल से
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