डा शारिक़ अहमद ख़ान
परियों का परीख़ाना.आज सुबह की सैर करते हुए लखनऊ के क़ैसरबाग़ के 'परीख़ाना' की तरफ़ भी गए थे,क्योंकि अवध के नवाब वाजिद अली शाह को गीत-संगीत का बहुत शौक़ था,शायरी का शौक़ था,शायरी करते भी और तरन्नुम से सुनाते भी,इसी के मद्देनज़र परीख़ाने का निर्माण हुआ,वाजिद अली शाह के ज़माने में यहाँ गीत-संगीत की महफ़िलें सजा करतीं,हर फ़न के माहिर उस्ताद परीख़ाने की रंगत में इज़ाफ़ा करते,कोई तबलानवाज़ था तो कोई सारंगीनवाज़,कोई बांसुरी बजईया तो कोई ढपलीवाला,कव्वाल भी यहाँ रहा करते.
कथक और शास्त्रीय संगीत के नामी उस्तादों ने भी परीख़ाने में अपनी सेवा दी है.रहस्य भी यहाँ खेला जाता और रासलीला भी होती,नवाब वाजिद अली शाह अक्सर परीख़ाने में बलीग़ सैर और शेरी नशिस्तों के लिए तशरीफ़ लाते,शेरी नशिस्तों मतलब काव्य गोष्ठियों में शमाँ रोशन होती,शोअरा मतलब कवि आते और झूमकर सुनाते,बदले में ईनाम पाया करते,नवाब वाजिद अली शाह भी ख़ुद शेर और ग़ज़लें सुनाते,कहते हैं कि नवाब साहब का तरन्नुम अच्छा था.लिखते तो अच्छा थे ही जिससे सब लोग परिचित हैं,'बाबुल मोरा नईहर ' उन्हीं का लिखा हुआ है.परीख़ाने को नवाब ने बाग़-बगीचों से ख़ूब सजा रखा था और ये लखनऊ में एक किस्म की जन्नत थी.
परीख़ाने के कई हिस्से थे,एक हिस्से में यहाँ बहुत सी तवायफ़ें भी रहा करतीं जिनका काम नवाब का मनोरंजन करना था,कई तवायफ़ें इतनी ख़ूबसूरत हुआ करतीं कि इनका मिलान परियों से किया जाता,क्योंकि वो यहाँ रहा करतीं लिहाज़ा नवाब ने इस स्थान का नाम ही उन्हीं के नाम से 'परीख़ाना ' कर दिया.यहाँ रहने वाली तवायफ़ों में स्थानीय आम तवायफ़ों के अलावा तीन तरह की ख़ास तवायफ़ें भी थीं,एक थीं 'कंचन तवायफ़ें ' जो पंजाब की रहने वाली हुआ करतीं और शरीर से बहुत हष्ट-पुष्ट हुआ करतीं,कहते हैं कि ये अमीर-उमरावों के साथ शारीरिक संबंध भी बनातीं.दूसरी थीं 'चूनावाली तवायफ़ें 'जो आमतौर पर उम्रदराज़ हुआ करतीं और गायकी के जलवे परीख़ाने की महफ़िलों में बिखेरा करतीं.
जब कोठों पर रहने वाली चली हुई तवायफ़ों की उम्र ढलान पर आ जाती तो उनमें से कई पान बेचने का धंधा अपने कोठों के नीचे करने लगतीं और नृत्य की जगह गायकी में अपना वक़्त लगातीं,जब कोई गायकी में सरनाम हो जाती तो परीख़ाने में आ जाती,इन्हीं को चूनावाली तवायफ़ कहा जाता,परीख़ाने में रहने वाली 'चूनावाली हैदर ' नाम की तवायफ़ गायकी में बड़ी सरनाम थी.तीसरी तरह की तवायफ़ें थीं 'नगरंत तवायफ़ें' जो गुजरात की रहने वाली हुआ करतीं और ये अपने नृत्य के लिए जानी जातीं.दिलदार परी,महक परी,हूर परी,मनोहरी बाई,प्रेम बाई इस परीख़ाने की बहुत मशहूर तवायफ़ें गुज़री हैं,ये मुजरा किया करतीं.जब नवाब वाजिद अली शाह को अंग्रेज़ों द्वारा गद्दी से हटाया गया तो परीख़ाने के कलाकारों समेत तवायफ़ें भी दर-बदर हो गईं,सन् अट्ठारह सौ सत्तावन की जंग में परीख़ाने पर भी हमला हुआ और परीख़ाने का काफ़ी हिस्सा ढह गया.
दस बरस बाद जॉन लारेन्स ने परीख़ाने के स्थान पर कैनिंग कॉलेज/मैरिस म्यूज़िक कॉलेज खोल दिया.बाद में यहाँ भातखण्डे संगीत महाविद्यालय स्थापित हुआ जो आज भी मौजूद है और संगीत समेत कई विधा की शिक्षा दी जाती है,परीख़ाने का परिसर काफ़ी बड़ा है और इसी परिसर के एक हिस्से में अब उमानाथ बली प्रेक्षागृह भी है.परीख़ाने की वास्तुकला अवध के नवाबी दौर की वास्तुकला है,बड़ा हॉल में मेहराबदार छत है और इसके पिलर्स फ़्लूटेड हैं.परीख़ाने के सामने परीख़ाने की परियों के नहाने के लिए एक हौज़ भी था जो आज भी मौजूद है,हौज़ के ऊपर संगमरमर का एक पुल बना है जिसे 'मरमरी पुल' के नाम से जाना जाता है.तस्वीर में परीख़ाने के हिस्से और मरमरी पुल.
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