बिनसर की एक सुबह !

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बिनसर की एक सुबह !

अशोक पांडे

नैनीताल में मेरे स्कूल के एक सुदूर कोने से हिमालय दिखाई देता था . नजदीक स्थित स्नो व्यू की तर्ज पर हम इसे छोटा स्नो व्यू कहते थे. मशहूर चित्रकार  के एल वर्मा हमें पेंटिंग सिखाते थे. उनकी क्लासेज सबसे अच्छी इस मायने में लगती थीं कि हफ्ते में एक बार वे हमें छोटा स्नो व्यू ले जाते और हमसे कहते  – “हिमालय को देखो.” हिमालय अक्सर नहीं दिखता था . कभी वह बादलों के पीछे होता कभी कोहरे के. हम कहते , 'हिमालय नहीं दिख रहा सर'. वे मीठी झिड़की देते हुए कहते, 'ऐसे बनोगे तुम लोग पेन्टर! तुम जानते हो वह वहां है. आँखें बंद करो और बादलों को हटा कर देखो. वहीं है हिमालय.' इस तरह बारह-तेरह की उम्र में तब भी हिमालय को देखना सीखा जब वह दिखाई न दे रहा हो.

अगस्त 1994 के एक दिन भारत-तिब्बत सीमा पर स्थित दारमा घाटी से व्यांस घाटी को जोड़ने वाले बीस हजार फुट ऊंचे सिन-ला दर्रे को पार करते हुए असल हिमालय से सबसे नजदीकी साक्षात्कार हुआ. पंचचूली की चोटियाँ इतने नजदीक थीं कि उनमें अपने चेहरे का अक्स देखा जा सकता था. पिछले छः घंटों से बर्फ में धंसे हुए और बेजान हो चुके हमारे थके हुए पैर किसी तरह आगे बढ़ पा रहे थे. अगर स्वर्ग होता है तो सामने ऐसा नजारा था जिसकी तुलना स्वर्ग से की जा सकती थी! ऐसे में पंचचूली से एक ग्लेशियर टूट कर गिरा. बहरा कर देने वाली ऐसी आवाज मैंने कभी नहीं सुनी. हमारे आसपास कहीं ऊपर से हजारों टन ताजी बर्फ सरसराती हुई नीचे आ रही थी. हम उसकी चपेट में आ भी सकते थे. नहीं भी आ सकते थे. अप्रतिम सुन्दर हिमालय सामने खड़ी मौत भी हो सकता है, पहली दफा जाना. एकाध घंटे बाद किसी तरह दर्रा पार हुआ और आदि कैलाश की गरिमामय चोटी सामने आई तो जाना क्यों हमारे पुराने ग्रन्थ इसे देवतात्मा नगाधिराज कहते हैं. शान्ति का अर्थ भी जाना.

हिमालय किन-किन चीजों से बनता है – इस सवाल का उत्तर खोजने का शऊर पाने में आधी जिन्दगी लग जाती है. सिर्फ बर्फ से ढंकी चोटियां हिमालय नहीं होतीं. उसके पहले जिन हरे-नीले-सलेटी पहाड़ों की श्रृंखलाएं पसरी दिखाई देती हैं, वे सब भी हिमालय हैं. रात के वक्त इन पहाड़ियों पर दिखाई देने वाली एक-एक रोशनी एक घर होती है जिसके भीतर एक पूरा परिवार अपने मवेशियों, लोकदेवताओं, बच्चों की कहानियों और पुरखों की स्मृतियों के साथ खाना पका कर सोने की तैयारी कर रहा होता है. वे सारी रोशनियाँ हिमालय हैं. उन रोशनियों के स्वप्नों में आने वाले जंगल की हरियाली और बनैले पशु भी उतने ही हिमालय हैं जितना उनके ग्रामगीतों में सतत तूऊउ-तूऊउ करती रहने वाली चिड़ियाँ. 


अगली दफा किसी ऐसे हिल स्टेशन पर जाएं जिसके बारे में आपने सुन रखा हो कि वहां से हिमालय दिखता है और मौसम या धुंध के कारण आप कई-कई दिन तक उसे न देख पाएं तो किसी चिड़िया की आवाज में उसे देखने की कोशिश करें. घास के विशाल गठ्ठर अपने सर पर लादे मद्धम चाल में जंगल से लौट रही किसी कर्मठ पहाड़ी औरत से उसका पता मिलने की पूरी संभावना है. पूछ कर देख सकते हैं.सुनने में आया आज हिमालय दिवस मनाया जा रहा है.अशोक पांडे की फ़ेसबुक वाल से साभार 

(फोटो: हिमालय पर सूर्योदय. बिनसर)



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