अंबरीश कुमार
दक्षिण की यात्रा हो और स्वाद न बदला तो इस यात्रा का क्या अर्थ . खासकर फ़िल्टर काफी ,इडली ,वडा ,उपमा ,अप्पम से लेकर उतपम तक . हमने पहले भी लिखा था हर किसी को हर अञ्चल का स्वाद रास नहीं आता . वे उत्तर में इडली दोसा खाएंगे तो दक्षिण में रोटी सब्जी तलाश करेंगे . होटल वाले भी आटा रखते हैं पर छह महीने पुराना है या दस महीने यह खाने पर ही पता चलता है इसलिए जिस अञ्चल में जाएं भोजन वही का करें तो बेहतर होगा .
दरअसल यह स्वाद तंतुओं का खेल है .आपको मीठा ,तीखा ,चरपरा ,खट्टा सभी स्वाद चाहिए जिसकी आदत पड़ गई हो .अपने पूरब में तो लहसुन या जीरा का छौंक लगी अरहर की दाल ,भात वह भी काला नमक ,आलू परवल की भुजिया ,अचार ,सिरका वाला प्याज ,धनिया पुदीना और आम की चटनी के साथ हरी मिर्च हो तो काम चल जाता है .पर हर थाली में ऐसा नहीं होता . दक्षिण भारतीय व्यंजनों को लेकर .मुझे ध्यान आया वर्ष 1986-87 के दौर का .बंगलूर के अखबार की नौकरी थी .दिन में दस ग्यारह बजे से शुरू होती .बीच में विश्राम फिर शाम से लेकर सुबह चार बजे तक जुटना पड़ता .बंगलूर में शुरू शुरू में खाने की समस्या आई .कामथ से लेकर उडुपी तक ,गुजराती से लेकर राजस्थानी थाली तक का स्वाद लिया पर जमा नहीं .टाउन हाल के पास कई रेस्तरां थे .कामत की सृंखला भी .एक जगह खाने में सांभर ,चावल ,रसम ,बटर मिल्क यानी पुदीना पड़ा मठ्ठा ,सहजन आलू की सब्जी ,सूखी चटनी और दो सुखी सब्जी के साथ अचार पापड़ भी .पर कुछ समय बाद इससे भी मन भर गया .गुजराती रेस्तरां की थाली तो बहुत भव्य थी पर दाल और सब्जी की मिठास हम जैसे दाल भात वाले पुरबियों को कहां रास आती .कई दोपहर तो ऐसा हुआ पास के फल बाजार से काले अंगूर लिए जो बहुत ही सस्ते थे .पर फल से मन क्या भरता .
अंत में टाउन हाल के सामने की तरफ पई विहार नाम का रेस्तरां रास आया .इसमें सीट आरक्षित करनी पड़ती थी जो कुछ दिन बाद आराम से होने लगी .दरअसल यहां तब तंदूरी रोटी ,चावल ,तूर यानी अरहर की दाल और आलू शिमला मिर्च की सब्जी ठीक लगी .रात को खाना खाकर बंगलूर के मुस्लिम बहुल इलाके के सालार प्रेस जाते .अखबार वहीँ बनता .यह प्रेस उर्दू के एक बड़े अखबार सालार का था जिसके कातिब हाथ से लिखकर पूरा अख़बार बनाते .अपना अखबार छपते छपते चार बज जाता फिर लौटते .जिस होटल में ठिकाना था वह लाल बाग़ के पास था .सुबह लाल बाग़ घूमते ,काफी पीते और फिर जाकर सो जाते .दफ्तर जाने से पहले दो रेस्तरां में नाश्ता होता .एक जेसी रोड पर ही था तो दूसरा एमटीआर जो लालबाग़ के सामने .यहां देसी घी का डोसा ,इडली ,उपमा ,केसरी भात से लेकर कई विकल्प होते थे .सबसे साफ़ सुथरा रेस्तरां .और स्वाद आज तक नहीं भूलता .दक्षिण में काफी रहना हुआ पर एमटीआर जैसा स्वाद कहीं नहीं मिला . अब उडुपी में भी दोपहर का भोजन एमटीआर में ही हुआ . इसकी थाली देखें और इसकी यात्रा को दर्शाता बाहर लगा बोर्ड भी .
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