कभी खाया है खाजा !

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कभी खाया है खाजा !

डा शारीक अहमद खान 

खाजा पारंपरिक मिठाई है. हमारे आज़मगढ़ में आज भी हमारी बिरादरी में बहुत जगहों पर लड़की के गौने में आता है. शादियों में आर्डर देकर हलवाई बैठा बनवाया जाता है. बाज़ार में भी मिलता है. खाजा गर्म दूध में डाल रात में खाने में और मज़ा आता है. भोजपुरी में खाजा को ग्रामीण लोग खाझा भी कहते हैं. स्पष्ट करते चलें कि पश्चिमी यूपी का खजला और ये खाजा अलग चीज़ है,खजला गोल होता है,नर्म होता है,अंदर दूध मेवे मलाई और खोए वग़ैरह की फ़िलिंग कर परोसा जाता है,रखने पर खजला कुछ ही दिनों में ख़राब हो जाता है. पूर्वी यूपी में मेलों-ठेलों में बिकने वेस्ट यूपी से आता है. अलीगढ़ की नुमाइश का खजला मशहूर है. जबकि खाजा सख़्त होता है,सूखी मिठाई है,हमारे आज़मगढ़ और आसपास लोकल स्तर पर बनता है. 

महीनों रखने पर भी खाजा ख़राब नहीं होता. खाजा सिर्फ़ दो चीजों के इस्तेमाल से बनता है,एक मैदा या गेहूँ का आटा और दूसरी चीज़ देसी शक्कर है,अब देसी शक्कर की जगह चीनी से बनता है,आकार लगभग बर्फ़ी कट जैसा होता है. खाजा पुरानी मिठाई है. भारत सम्राट तुग़लक़ के दौर में मशहूर घुमक्कड़ इब्नबतूता जब हिंदोस्तान आया तो उसने यहाँ खाजा देखा. वो कुछ यूँ लिखता है कि हिंदोस्तानी हिन्दू रूपपंजा नामक त्योहार मनाते हैं जो चाँद देखकर मनाया जाता है. रूपपंजा त्योहार की रात दूध में खाजा डालकर खाने का प्रचलन है. ख़ैर,पतंगी काग़ज़ लगी और बाँस की खपच्चियों से बनी झपिया में खाजा रखकर मेरे बचपन में बेटी के गौने आता,इसके साथ बूंदी मोतीचूर का लड्डू बताशा और सूखी इमरती भेजने का चलन था. अब पतंगी काग़ज़ वाली बाँस की खपच्चियाँ तो कम ही दिखती हैं,ये अलग बात कि हम जैसे शौक़ीन आर्डर देकर अलग से बाँसफोर से बनवा लेते हैं लेकिन मेरी बिरादरी अधिकतर लोगों के यहाँ खाजा आज भी गौने आता है,अब बाँस के टोकरों में आता है. 

फिर गौने में आए हाथ के कढ़े तकिए के गिलाफ़ हाथ के बने कपड़े के पंखे रूमाल कमरबंद साबुनदानी वग़ैरह जैसे सामानों के साथ रिश्तेदारियों में बतौर बैना बाँटा जाता है. क्योंकि खाजा महीनों ख़राब नहीं होता,सूखी मिठाई है,इसलिए बाँटने के लिए इसे दूर दूर तक भेजे जाने में आसानी रहती है. ख़ुशी के दूसरे मौक़ों पर भी नाई-नाऊन के हाथों खाजा बंटवाने का चलन है. 

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