छोटी हाज़िरी में चाय!

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छोटी हाज़िरी में चाय!

डॉ शारिक़ अहमद ख़ान

ब्रिटिश दौर के अंग्रेज़ अफ़सरों की खानपान से जुड़ी दिनचर्या का आज ज़िक्र करते हैं.ब्रिटिश राज के दौर में अंग्रेज़ अफ़सर के बंगले में मिलने वाली सुबह की चाय को छोटी हाज़िरी कहते,चाय के साथ टोस्ट या बिस्किट मिलता.छोटी हाज़िरी को बेड टी समझिए.छोटी हाज़िरी सुबह पांच बजे के क़रीब होती,ख़ानसामा छोटी हाज़िरी में चाय लेकर हाज़िर होता.

छोटी हाज़िरी के बाद अंग्रेज़ मॉर्निंग वॉक पर निकल जाते और सुबह आठ बजे के क़रीब बड़ी हाज़िरी के लिए डाइनिंग हॉल में तशरीफ़ लाते.बड़ी हाज़िरी में करी ज़रूर होती,बीफ़,गोटमीट,अंडे,हैम,फ़्रेश फ़्रूट और चावल वग़ैरह होता,मतलब बड़ी हाज़िरी में भरपूर भोजन होता.बड़ी हाज़िरी के कुछ आदाब होते,ये नहीं कि बड़ी हाज़िरी के वक़्त रम पीने लगी जाए,बड़ी हाज़िरी में या तो ख़ून जैसी लाल वाइन क्लेरेट पीजिए या फिर बीयर पीजिए,लेकिन बड़ी हाज़री के वक़्त ख़ानसामा या बैरा ग्लास में बीयर नहीं डालता,बीयर पीना है तो सीधे बॉटल से पीजिए.जैसे फिशिंग के वक़्त पीते हैं वैसे पीना होता.बड़ी हाज़िरी के वक़्त मग में बीयर पीना बदतमीज़ी मानी जाती और ये ब्रिटिश इंडिया के अफ़सरों के आदाब के ख़िलाफ़ था।

बड़ी हाज़िरी के बाद क़रीब एक बजे लंच होता,अंग्रेज़ अफ़सर ऑफ़िस में रहते तो टिफ़िन में लंच आता और बंगले पर रहते तो वहीं लंच करते.लेकिन लंच में बस ज़रा सा  चावल और करी,बाकी कुछ नहीं.बड़ी हाज़िरी और लंच के बीच साहब की बेगम मतलब मेमसाहब की ड्यूटी होती कि वो सभी सेवकों को बुलाकर कल तक की बड़ी हाज़िरी में बनने वाली चीज़ों के बारे में निर्देश दें ताकि नौकर बाज़ार से सामान ख़रीदने निकल जाएं.

रात में डिनर सात बजे के क़रीब होता और डिनर की शुरूआत सूप या मछली से होती,फिर रोस्टेड बीफ़ या मटन के साथ आप शेरी पी सकते थे या फिर चाहें तो बिटर्स भी ले सकते थे.उबले अंडे बीच में खाते रहते,वरना ड्रिंक किडनी ख़राब कर सकता था.फिर तरह-तरह की करी जो उस दिन बनी हो,चावल,पुडिंग्स और फल वग़ैरह लिए जाते.

किसी ज़िले में घूमने जाना होता तो कोशिश की जाती कि सिविल सर्वेंट की मेहमान नवाज़ी में ना रहें,वजह कि उनके यहाँ कसरत से फ़ाऊल और मुर्ग़ नहीं मिलता,सिविल सर्वेंट ख़ुद ही खाकर ख़त्म किए रहते.जहाँ होते आसपास के मुर्ग़ खा जाते,लिहाज़ा वो मटन ही खिलाते,पोर्क भी नहीं मिलता अगर कुक इंडियन होता,कई बार तो बीफ़ भी नहीं मिलता.किसी ज़िले में घूमने के दौरान बेहतर रहता कि नील के अंग्रेज़ ज़मींदार या चाय के अंग्रेज़ प्लांटर या किसी अंग्रेज़ ज़मींदार के यहाँ रूका जाए,वहाँ मुर्ग़ ख़ूब मिलते,मुर्ग़ उस दौर में बड़ी चीज़ थे,मटन तो बहुत सस्ता मिलता.सिविल सर्वेंट दौरे के दौरान कोशिश करता कि किसी हिंदू के यहाँ रूकने की मजबूरी ना आन पड़े,वजह कि उसके यहाँ मीट मिलने में परेशानी होती,मुसलमान के यहाँ भी मेहमान ना होना पड़े,वजह कि उसके यहाँ पीने में दिक्कत होती,इस सब से बचा जाए,इनसे बस सलामी लो,कहीं रूकने की जगह नहीं तो डॉकबंगले तो थे ही,वहाँ रूका जाए,या फिर झक मारकर अंग्रेज़ सिविल सर्वेंट का मेहमान बन जाया जाए.

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