ये चोटहिया जलेबी है

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ये चोटहिया जलेबी है

डा शारिक़ अहमद ख़ान

ये चोटहिया जलेबी है.दशहरे का मेला और मेले से पहले के कुछ दिनों का माहौल चोटहिया और गुड़हिया जलेबी की ख़ुशबू से तर होता है.दुकानदार अड़ी सजाकर बैठ जाते हैं,गुड़हिया और चोटहिया जलेबी छनने लगती है.शौक़ीनों के जत्थे पहुँचने लगते हैं.हड्डे मतलब ततैया भी ख़ुशबू से बौरा जाते हैं,वहीं मंडराने लगते हैं जहाँ चोटहिया छन रही होती है,वो भी चोटहिया पर बैठकर रस लेते हैं और कभी कभार ग्राहक या दुकानदार को डस भी लेते है.अब तो गुड़ की गुड़हिया जलेबी को ही लोग आम भाषा में चोटहिया जलेबी कह देते हैं लेकिन असली चोटहिया जलेबी वो है जो गुड़ घोलकर ना बने,बल्कि गुड़ के 'चोटे' मतलब 'चोइटे' से बने.इसी गुड़ के चोटे से बनने के कारण इसका नाम चोटहिया जलेबी पड़ा.चोटा तब मिलता है जब गन्ने का रस कढ़ाव में पकता है.चोटा गन्ने के रस का एक्सट्रैक्ट है जो कढ़ाव में अंत में तब मिलता है जब रस पूरी तरह ऐसा पक जाता है कि कढ़ाव से गुड़ भी निकल चुका होता है,शक्कर भी बन चुकी होती है,राब भी निकाल ली जाती है और भेली भी बन जाती है.

अंत में गहरे रंग का जो सेमी सॉलिड वेस्ट बच जाता है,वही चोटा है.हमारे यहाँ की भोजपुरी में चोटे को निकुल भी कहा जाता है.पुराने दौर में बड़े किसान चोटा इस्तेमाल नहीं करते थे,वो इसे बेकार मानते.ऐसे में चोटे का एक हिस्सा मज़दूरों और बेगारों को मिलता.वो इस चोटे से पूस काटा करते.चोटा और मटर का निमोना ही जाड़े के ठाड़े में उनका आहार होता.जाड़े का ठाड़ा उस समय को कहते हैं जब अधिक सर्दी की वजह से मज़दूरों को काम नहीं मिलता है.उन्हें बैठकर खाना होता है.पुराने दौर में जाड़े के ठाड़े में चोटा ही मजूरे और बेगार का आहार होता था.भूमि के मालिक बड़े किसान भले चोटे को ख़राब चीज़ मानते और उसे खाना अपना अपमान समझते लेकिन चोटा गुणों से भरपूर होता है,मज़दूरों और बेगारों के लिए अच्छा आहार था.मज़दूर और बेगार अपने खाने के लिए सालभर का चोटा संग्रह करके रखते.ज़मींदार और बड़े किसान चोटे का इस्तेमाल अलाव में किया करते.गाँव में हमारे दुआरे ख़ुद आदमक़द से भी गहरा गड्ढा खोदकर जब ख़ास तरह का अलाव सर्दियों के लिए तैयार होता तो चोटा गन्ने की खोइया पर पड़ता,चोटे की वजह से अलाव अच्छा जलता और पूरे मौसम जलता.दशहरे के मेले और दूसरे मेलों-ठेलों में चोटहिया जलेबी की शुरूआत तो ग़रीब तबके ने ही की है.क्योंकि शक्कर उनके नसीब में थी नहीं कि जलेबी बनाएं या शक्कर की महंगी जलेबी ख़रीदकर खाएं.चीनी मिल वाली सफ़ेद चीनी तब मिलती नहीं थी.इसलिए मज़दूरों और बेगारों ने गन्ने के रस से मिलने वाले चोटे से जलेबी बनाकर जलेबी की कमी पूरी कर ली.चोटहिया जलेबी ग़रीबों की जलेबी थी,बाद में ऐसी मशहूर हुई कि दशहरे के मेले की जान ही बन गई.अब चोटहिया जलेबी की खपत बढ़ी और इतना चोटा जमा करके रखा नहीं जाता था तो दुकानदारों ने गुड़ को घोलकर जलेबी बनाना शुरू दी और उसे ही चोटहिया जलेबी कहने लगे,आम लोग मानने भी लगे.जबकि चोटहिया जलेबी अलग है और गुड़ की गुड़हिया जलेबी अलग है,दोनों का स्वाद अलग होता है,हमें दोनों की लज़्ज़त पसंद है.ख़ैर,जब गुड़ वाली जलेबी का नाम भी चोटहिया जलेबी के रूप में चल निकला है तो आम और देशज परिवेश से दूर लोग कहाँ दोनों में अंतर कर पाते हैं,हर गुड़ की जलेबी चोटहिया जलेबी हो गई है.चोटहिया जलेबी वाले दुकानदार ने तो हमसे कहा कि बाबू हम गुड़हिया जलेबी नहीं बनाते,गुड़हिया बनाकर चोटहिया के नाम पर नहीं ठगते,हम असली चोटहिया बनाते हैं,हम अपनी चोटहिया जलेबी फूल काढ़कर बनाते हैं.अब चोटहिया जलेबी सबके नसीब में कहाँ है,गुड़हिया मिल जाएगी,चोटहिया कम कलाकार बनाते हैं,मिल गई तो किस्मत अच्छी है.बहरहाल,हम तो चोटहिया जलेबी पसंद करते हैं,दशहरे के कई दिवसीय मेले में चोटहिया जलेबी और गुड़हिया जलेबी खाकर ही मेले के दिनों को सेलिब्रेट करते हैं.मेरा तो मानना है कि जब चोटहिया जलेबी खायी जाए तो मन से खायी जाए,ये टुकड़ा सूँघना हमें पसंद नहीं,एक बार में आध सेर चोटहिया जलेबी नहीं खायी तो फिर क्या जलेबी खाना हुआ.

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