कुर्ग का मुर्ग और लज्जतदार खाना

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कुर्ग का मुर्ग और लज्जतदार खाना

संजय श्रीवास्तव

यात्राओं में आप हमेशा नई जगहों से रू-ब-रू होते हैं. नए स्वाद और व्यंजन जीभ को नया जिम्नास्ट कराते हैं. मैंने बेंगलुरु, मैसूर और कुर्ग की यात्रा में ऐसे खूब स्वाद लिये. कुछ जायके अब भी जीभ को अपनी याद दिला रहे हैं. मतलब जिह्वा उन स्वादों को मिस कर रही है. अंधेरी होती शाम के समय जब वोल्वो बस ने मेडिकेरी पहुंचाया तो गणेश चतुर्थी के ढोल नगाड़े बज रहे थे. केसरिया पगड़ी बांधे लोगों का झुंड गणेश जी को स्थापना के लिए ले जा रहा था. कुर्ग का मतलब ये मत समझिए ये कोई एक जिला या कस्बा है बल्कि पुराना राज्य था. जिसमें कई खूबसूरत तालुका आते हैं. ऐसा हरा - भरा इलाका. जहां की सुबह- शाम आमतौर पर कोहरे के साथ होती है. जब हम पहुंचे तो धुंध हल्की चादर फैलाने लगी थी. दुकानें जगमगाने लगीं थीं. अगर गोवा में हर चौथी दुकान मदिरा की होती है तो कुर्ग में हर चौथी दुकान स्पाइसेस और वाइन की मिलेगी.

 

वैसे आपको बता दें कुर्ग को अब कोडागु जिले के तौर पर जानते हैं. इसका प्रशासनिक मुख्यालय मेडिकरी है. कोडागु 05 तालुकों में बंटा है- मेडीकेरी, विराजपेट, सोमवारपेट, पोनामपेट और कुशालनगर. पर्यटक आमतौर पर सबसे हैपनिंग जगह मेडिकेरी में ही रुकना पसंद करते हैं, जहां कुर्ग के ज्यादातर जगहों को घूमने के लिए कवर किया जा सकता है. दक्षिण कर्नाटक का ये इलाका केरल को छूने वाला वेस्टर्न घाट एरिया है, वैसे इसे भारत का स्कॉटलैंड भी कहा जाता है. खासियत है हरियाली, बेहतरीन मौसम, बारिश और मझोले पहाड़.  


पहली रात का डिनर मेडिकेरी के बेलीज रेस्टोरेंट में हुआ. पुराना,अनौपचारिक और परंपरागत लजीज स्वाद वाली जगह. ज्यादा तड़क भड़क नहीं लेकिन एक फील जरूर. मिक्स वेज सब्जी मंगाई. कहना चाहिए इसके स्पाइस और स्वाद का जायका नायाब था. बहुत कम डिश ऐसी होती हैं जहां स्पाइस का कांबिनेशन इतना परफेक्ट हो कि खाने वाला स्वाद भूल नहीं पाए. साथ में पतली चपाती रोटियां. फिर रायस बॉल. चावल के आटे से बने हुए 05 छोटे गोले जब एक बाउल में पेश हुए तो लगा कि ये तो चावल को गोल बनाकर ही दिया जा रहा होगा. ये बॉल्स नफासत भरी मुलायम और स्वाद में स्मूद थीं. इसे खास तरीके से बनाया जाता है. वही तरीका इसे मुलायमियम भी बख्शता है.

 

चावल के आटे को उबलते पानी में मिलाकर इसे हल्के हल्के मिलाते हैं और धीमी आंच में करीब 10 मिनट पकाते हैं. उतारकर हाथों में हल्का तेल डालकर गूंथते हैं. फिर छोटे - छोटे गोले बनाकर भाप पर फिर 10 मिनट रखते हैं ताकि मुलायमियत और जीभ पर नफासत मुकम्मल हो जाए. कुर्ग में राइस बॉल को पोर्क करी, मटन करी, चिकन करी के साथ खाते हैं. वेज करी भी चलेगी, इसके साथ भी ये लाजवाब लगेगी. वैसे मैं इसे जल्दी बनाना ट्राई करने वाला हूं. यहां की भाषा में इसे कदमकट्टू कहते हैं. इसी तरह राइस फ्लोर से बनी रोटी पसंद की जाती है, जिसको अक्की रोटी कहते हैं. इसे गूंथने का तरीका आटा गूंथने से कुछ अलग है. किसी बर्तन में पानी गरम करिये. गरम पानी में राइस फ्लोर को हिलाते हुए मिलाए. पानी और चावल के आटे का अनुपात जरूरत देखें, क्योंकि इसे आपसे में मिलने के बाद बिल्कुल पतला नहीं होना चाहिए. अगर आपने हलवा बनाया हो तो आप ज्यादा बेहतर समझ सकते हैं कि इसे कैसे करना है. कुछ देर धीमी आंच पर रखने के बाद उतारिए. गूंथिए. कुछ इस तरह की लचक बनी रहे. अब पटे पर चावल का हल्का सा आटा डालिए. गूंथे आटे से गोल लोई बनाकर बेलना शुरू करें. बाकि तरीका वही है जैसे तवे पर गेहूं की रोटी बनाते हैं. चावल की रोटी भी ना केवल खूब फूलती है बल्कि खाने में खूब साफ्ट भी होती है. ग्रेवी और चटनी के साथ इसको खाना स्वाद का एक नया दरवाजा खोलेगी. 


कुर्ग में आप जितने ऊंचे स्थान पर रह रहे होंगे. वहां से प्रकृति के तमाम बदलते रूप ज्यादा बेहतर देख सकते हैं. यहां वाकई नेचर रोज रहस्य के दरवाजे खोलते हुए विस्मित करती है. हमारा होटल भी कुछ ऐसी ही जगह था. दरअसल कर्नाटक स्टेट टूरिज्म डेवलपमेंट कारपोरेशन के ज्यादातर होटल ऐसी जगह बने हैं, जिन्हें खुला, हराभरा और सर्वोत्कृष्ट कहना चाहिए. साफसुथरे. सुविधापूर्ण और खानपान में लाजवाब. मैं जब 03-04 साल पहले हम्पी गया, तब भी अनुभव यही था. अबकी बार मैसूर और कुर्ग में ये अनुभव और मजबूत हो गया. ये ऐसे होटल हैं, जो आपके पैसे के बदले उतना नहीं बल्कि ज्यादा देते हैं. 


कुर्ग में मेरे होटल की खिड़की जिस ओर खुलती थी, उधर चारों ओर से घिरी पहाड़ी श्रृंखलाओं के बीच विशाल वैली किसी कटोरे सी नजर आती थी.जिसमें कुछ घर दिखते थे. घान के खेतों के बीच पेड़ों का झूमता-झामता समूह. हरियाली ही हरियाली. सुबह खिड़की खोलते ही पहले कोहरे की घनी चादर गुड मार्निंग करती. धूप की किरणों की दस्तक के साथ जब धुंध का पर्दा उठने लगता तो बादलों का पूरा लोक खिड़की से नीचे वितान बना दिखता. सुबह के करीब 7.00 बजे हैं. बादलों की घनी रुइयां खिड़की से नीचे की ओर वैली को ढंके हुए और ऊपर ऊपर नीला आसमान. बीच में बादलों के ऊपर सिर निकाले हुए पर्वत की चोटियां बताती कि हम भी यहां हैं.


अगले एक घंटा बहुत जादुई और तिलिस्मी होता है. रातभर बादलों ने नीचे आकर आराम कर लिया. अब तो उन्हें भी काम पर जाना है. अलसाए हुए वो उठने लगे और ओझल होने लगे. नीचे छिपी वैली सूरज की सुनहरी आभा के साथ हरित चमक बिखेरने लगी. पर्वत की ऋखंलाएं साफ हो चुकी हैं. दूर से नमस्कार भेज रही हैं. कुछ छोटे छोटे बादल जरूर आसमान में टंगे हुए नीचे फैलती धूप को रोकने की कोशिश करते दिखेंगे. ये सब बमुश्किल एक घंटे में हो जाएगा. सुबह 06 बजे से सुबह 08 बजे तक नेचर जादुई बदलाव करती हुई व्यस्त रहती है. दिन में कभी भी बारिश हो सकती है. शाम को बादल फिर वापस लौटना शुरू करेंगे तो आसमान एक - दो नहीं बल्कि कई रंगों से नहाने लगता है- लाल, नीला, पीला, भूरा, काला, सफेद. मानो कोई चित्रकार आसमान पर बादलों को अलग अलग रंगों में रंग रहा हो. यहां एक राजाजी सीट है, ऐसा प्वाइंट है, जहां पूरे शहर में आए टूरिस्ट पहाड़ों की एक के पीछे बनी रेंज्स के आसपास प्रकृति के नृत्य की लीलाओं की आनंद लेते हैं. कहना चाहिए हम खुशकिस्मत थे कि हमारा होटल इसी प्वांइट से और आगे ऊपर था, मतलब जो राजाजी सीट का वो प्वाइंट नहीं दिखा पाता, वो होटल का ओपन रेस्टोरेंट दिखाता है. कुहासा, पहाड़, बादल, हरियाली, धान के खेत और इन सबके बीच शहरों में अब नहीं सुनाई पड़ने वाली सुबह मुर्गे की बांग. 


मुझको बताया गया कि यहां तकरीबन साल भर ही ऐसा मौसम रहता है. रोज बारिश की रिम-झिम. कभी झमाझम. मिट्टी और मौसम कॉफी और मसालों की पैदावार के लिए अनुकूल. केरल के अलावा देश के सबसे ज्यादा मसाले अगर यहीं पैदा होते हैं तो ये जगह कॉफी हार्टलैंड कही जाती है. जिधर देखो उधर मसालों और कॉफी के पेड़-पौधे. अभी कॉफी की हरी हरी चेरियां निकल रही हैं. सफेद फूल खिलने का मौसम निकल चुका है. आप किस्मत वाले होंगे जो कॉफी सफेद गुच्छेदार फूल भी मुस्कुरा हुआ दीख जाए. हरी चेरियां फरवरी तक जाकर लाल होती हैं. तब उन्हें प्रोसेस करने का समय होता है. जो यहां घर - घर का उद्योग है. कुछ जगह कॉफी के दानों को मशीनों में प्रोसेस करते हैं तो कुछ जगह घरों में भूनकर पिसा जाता है. वैसे कॉफी को यहां अंग्रेज हुक्मरान करीब 150 साल पहले लेकर यहां आए थे. जितने मसालों के नाम लीजिए, वो सब यहां उगते, फलते-फूलते नजर आएंगे- काली मिर्च, लौंग, इलायची, बड़ी इलायची, तेज पत्ता, दालचीनी. केरल की तरह ये जगह भी फल-फूल, मसालों और कॉफी पैदावार के लिए जन्नत है जन्नत. 


जिस जगह इतने मसाले उगते हों वहां का खाना कैसे स्वाददार नहीं होगा. वैसे कुर्ग का इलाका परंपरागत तौर पर कोडवा ट्राइब्स का इलाका है. जिनके बारे में अलग से लिखूंगा. यहां के कोडवा समृद्ध, संपन्न और अब पढ़े लिखे हैं, मस्त अंदाज में खाते-पीते आनंद लेते जिंदगी जीते हैं. हथियारों की पूजा करते हैं. देश में ये अकेली ट्राइब्स है, जिसको हथियारों के लिए लाइसेंस लेने की जरूरत नहीं पड़ती. सरकार से अनुमति मिली हुई है. मशहूर खाद्य शास्त्री केटी अचाया ने अपनी किताब ए हिस्ट्रोरिकल कांपेनियन इंडियन फूड में कोडवा यानि कुर्ग के खानपान पर पूरा चैप्टर ही लिखा है. मैने यहां कुर्ग की खास डिश कुर्ग चिकन का लुत्फ तो उठाया लेकिन इतनी स्पाइसी, तीखी, तेज मसालेदार थी कि नाक, आंख और मुंह से पानी निकलने लगा. 


कोडवा के खानपान पर बढ़ने से पहले कुर्ग चिकन का जिक्र तो हो ही जाना चाहिए. चिकन यहां कई तरह से बनाया जाता है. सभी खड़े मसालों को भूनने के बाद पीसकर सब्जी बनाने का रिवाज है. मसालों में धनिया, काली मिर्च, लौंग, जीरा, तेज पत्ता, लाल मिर्च सभी को साथ भूनने का रिवाज है. कोई सब्जी इनके बगैर नहीं बनेगी. फिर अदरक, प्याज, लहसून और हरी मिर्च का पेस्ट भी रहना ही है. होटल में जो कुर्ग चिकन मुझको परोसा गया वो हरियाली कुर्ग चिकन था. जिसमें चिकन के छोटे छोटे पीस को मेरिनेट करके डीप फ्राई किया जाता है. इसके बाद इसे धरी धनिया, पुदीना, अदरक, हरी मिर्च, लहसून के पीसे हुए पेस्ट में भुने हुए मसालों के पाउडर को अच्छी तरह मिक्स कर दिया जाता है. इसे डीपफ्राई चिकन में लपेट कर सर्व किया जाता है. ये लज्जतदार तो होता है साथ ही आंखों और नाक से पानी निकालने वाला भी. कुर्ग में शाही मिक्स वेज का भी रिवाज मैने होटल के मेनू में देखा, जिसमें सभी सब्जियों को तीखे मसालों के साथ काजू की ग्रेवी और कुछ मिठास के साथ परोसा जाता है. ये आंखों, नाक और मुंह को थोड़ा राहत देती हैं. सी-सी करते नहीं खाना पड़ता. 


कुर्ग का इलाका आमतौर पर चिकन, मटन और पोर्क पसंद करने वालों का इलाका है. उनके कई परंपरागत व्यंजन इनसे बने हैं. कोडवा ट्राइब्स के व्यंजनों में चावल, नानवेज, फल और नारियल के साथ उनके खास सिरके का इस्तेमाल किया जाता है. इन दिनों वहां जगह-जगह धान की पैड़ी बोई जा चुकी है. उपजाऊ खेत हरे कालीन की तरह बिछे दिखते हैं. चावल, घी और मीट के छोटे-छोटे टुकड़ों के साथ बना मसालेदार पुलाव यानि नाई कुलु ऐसा होता है मानो उसका दाना दाना खिला हुआ और मसाले की परत से लिपटा हो. यहां बांस खूब नजर आएंगे. बांस के अंदर के हिस्से के कोमल हिस्से की मसालेदार चटनी और अचार बनता है. नारियल के पानी को सब्जियों में करी के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. पोर्क यहां लंबे समय से खाया जाता रहा है. इसकी करी के व्यंजन राइस बॉल के साथ ज्यादा पसंद किये जाते हैं. चावल के कई मीठे व्यंजन बनाए जाते हैं. नारियल, चावल, घी और शहद के साथ बना पापेट्टू सुबह के नाश्ते की मीठी पसंद होती है. कुछ केले और मछली की डिशेज हैं. जब यहां कोई फल पकता है तो उसको भुने हुए चावल के आटे और थोड़ी सी मेथी के साथ खाने का प्रचलन है, जिसे थमबट्टू कहते हैं. जितने बड़े कटहल मैने यहां देखे, वैसे शायद कहीं देखे हों. कुल मिलाकर कोडवा और कुर्ग का ये इलाका शानदार और खाने पीने के रिवाजों वाला है. अगर कोई समारोह होता है तो उसमें इन व्यंजनों की बहार के साथ वाइन की मौजूदगी जरूर होती है, जो यहां खूब बनती है. हर नमकीन व्यंजन में कढ़ी पत्ते की मौजूदगी कमाल करती है. वैसे यहां राजमा और मशरूम की डिशेज भी डिफरेंट मिलती हैं, नाट इन पंजाबी स्टाइल बल्कि ठेठ कुर्गी स्टाइल.


आपके दिमाग में जितने फल हों समझ लीजिए-उन सभी की वाइन यहां बनाकर चखी जा चुकी होगी. तीखे मिर्च की स्वादिष्ट वाइन कहीं और नहीं मिलने वाली. अगर ये सोच रहे हों कि मिर्च की वाइन तो मुंह से लेकर आंत तक को आग से फूंक डालेगी तो ऐसा नहीं है, उसका स्वाद वाकई मीठा और लजीज होता है. वैसे वाइन के बारे में विस्तार से बताने के लिए अलग ही लिखना होगा. (कुर्ग की वाइन डिटेल्स के साथ जल्दी मिलेंगे)  संजय श्रीवास्तव की फ़ेसबुक वाल से साभार 

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