डा शारिक अहमद खान
बारिश से मौसम कल सोंधा था लेकिन सोंधे कबाब आज बन रहे हैं.कबाब ऐसी चीज़ नहीं कि उधर पानी बरसा और इधर दनादन बना दिए जाएं.तैयारी करनी होती है.हिंदुओं में सिर्फ़ कायस्थों के यहां ही कबाब बनते हैं.हाँ ऐसे कायस्थ अब कम बचे हैं जो नॉनवेज हों.अधिकतर तो आर्य समाज और आरएसएस के प्रभाव में आकर शाकाहारी हो गए हैं.लेकिन जिन कायस्थों के यहाँ कबाब बनाने की तमीज़ बाकी है,उनके यहाँ बनने वाले कबाब अशराफ़ मुससमानों के घरानों में बनने वाले कबाबों से किसी मायने में उन्नीस नहीं होते.
\कायस्थों के यहां बनने वाले कबाबों की ख़ासियत ये होती है कि क़ीमा ज़रा दरदरा होता है.दरअसल फ़ारसी पर अपनी पकड़ की वजह से मुग़लिया दौर में कायस्थों को ख़ूब शाही नौकरियाँ मिली.क्योंकि हाकिम मुसलमान थे और उनके साथ उठना बैठना था तो कायस्थों ने मुस्लिम कल्चर की बहुत सी रवायतें अपनायीं.इसी में एक खानपान भी था.यही वजह रही कि कायस्थों के यहाँ गोश्त की नियामतें बढ़िया बनती थीं.पुराने कायस्थ ख़ुद को आधा मुसलमान कहते थे.वो रिंद भी थे और जन्नत के हक़दार भी थे.हिंदुओं की राजपूत बिरादरी का भी शासन तंत्र में साथ होने की वजह से सदियों तक उच्च कुल के मुसलमानों से संपर्क रहा,इसलिए गोश्त वग़ैरह उनके यहाँ भी ख़ूब बनता था और मुस्लिम दस्तरख़्वान के ज़ायक़े का बनता था,क्योंकि जगह जगह राजपूत ही मुग़ल सल्तनत की बागडोर संभाले हुए थे,इसलिए जब मुसलमान हाकिम दौरे करते तो इनके ही डेरे पर आते थे.जब डेरे पर तशरीफ़ लाते तो ज़ाहिर है हाकिमों को उनकी पसंद का भोजन मिलता.
राजपूत क़लिया और सालनदार व्यंजन ही पकाते थे,वो भी अधिकतर घर के बाहर.राजपूतों में गोश्त रसोई के बाहर बनने की वजह से महिलाएं नहीं बनाती थीं और कबाब बनाना मुश्किल काम है,इसलिए राजपूतों के यहाँ कबाब नहीं बनते थे,मर्द सिर्फ़ सालन ही पका पाते.कबाब जब कायस्थों के घर में बनते थे तो उनकी रसोई में बनते थे.महिलाएँ बनाती थीं और बनाती हैं,इसीलिए कायस्थों के घर सदियों से कबाब रहे और आज भी हैं,जबकि गोश्त पसंद होने के बावजूद भी राजपूतों मतलब क्षत्रियों मतलब ठाकुरों के यहाँ कबाब नहीं रहे.बाकी हिंदू बाज़ार में बिकने वाले कबाबों के आने के पहले कबाब खाना नहीं जानते थे.उनके घर बनते ही नहीं थे.सब पूजापाठी थे.जो कथित छोटी और पिछड़ी जातियाँ थीं वो बहुत ग़रीब थीं,गोश्त नहीं खाती थीं.दलित गोश्त तब पाते जब जानवर मर जाए,वरना गोश्त कहाँ पाते.मरे जानवर का गोश्त उबालकर खा लेते,तेल मसाले का कहाँ पैसा था कि सालन बनाएं,कबाब बनाएं.अब दौर बदला,सबके पास पैसा आया,बाज़ार में कबाब मिलने लगे तो भले बाज़ार के शामी कबाब अच्छे ना हों लेकिन तमाम जातियों के हिंदू बाहर के कबाब खाते हैं,कुछ खुलकर,कुछ छिपकर,लेकिन ना घर में बनाते हैं ना उनकी महिलाओं को बनाना आता है,ना वो बनाने देती हैं.कायस्थ सिर्फ़ अकेली ऐसी हिंदू जाति है जिसके घर सदियों पहले भी लज़ीज़ कबाब रसोई में बनते थे,आज भी बनते हैं.
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