कटहल दो तरह के होते हैं

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कटहल दो तरह के होते हैं

डॉ शारिक़ अहमद ख़ान

कटहल के पेड़ पर लगने वाले फल दो तरह के होते हैं.एक को शकी कहते हैं और दूसरे को बरकी.जो जड़ के पास तने पर लगता है वो बरकी कटहल होता है.इसकी सब्ज़ी नहीं बनायी जाती,बनी तो ख़राब लज़्ज़त की होती है.बरकी कटहल को पकने दिया जाता है और इसका कोवा मतलब कोया खाया जाता है.बीज भी बरकी कटहल के खाए जाते हैं.कटहल के पेड़ पर ऊपर लगने वाले शकी कटहल होते हैं.शकी की सब्ज़ी बनती है और अचार भी बनता है.जब कटहल पेड़ से टूट जाए तो पता नहीं चल पाता कि कौन शकी फल है और कौन बरकी है,इसलिए पेड़ पर रहने के दौरान ही पहचान कर लेनी होती है.

ब्रिटिश दौर में कटहल के पेड़ पर अदालत से ज़मानत भी मिल जाती थी,जैसे आज के दौर में बाइक और कार पर मिल जाती है,उस दौर में कटहल के पेड़ को अच्छी संपत्ति माना जाता,लिहाज़ा उस वक़्त जितने भी चलते पुर्ज़े लोग होते वो कटहल का पेड़ ज़रूर लगाते.कटहल को शाकाहारियों का मटन भी माना गया है.बहुत से लोग गोश्त में पड़ने वाले खड गरम मसालों में कटहल की सब्ज़ी पकाते हैं.कटहल का दोप्याज़ा भी बनाते हैं और कटहल के कबाब भी बनने लगे हैं.कटहल की सब्ज़ी हमें पसंद नहीं,लेकिन पके कटहल का कोवा पसंद है.आजकल बारिश में पके कटहल के कोवे का मौसम चल रहा है.लेकिन कटहल का कोवा बादी होता है,ये कमज़ोर हाज़मे के लोगों के लिए मुफ़ीद नहीं होता.फ़्रिज में ज़्यादा देर तक कोवे रखना मुनासिब नहीं है.पके कटहल काटने के बाद दनादन बँटवा देना चाहिए,वजह कि फ़्रिज में कोवे रखने से फ़्रिज में रखी हर नियामत में कोवों की ख़ुशबू आने लगती है.इस मौसम में सेहत के लिए मीठे कोवे फ़ायदेमंद हैं,क्योंकि ये ख़ामा-ए-क़ुदरत से बने हैं.आजकल कटहल के बीज भी बिकने लगे हैं.कई लोग इसकी सब्ज़ी बनाते हैं.पुराने दौर में ये बिकते नहीं.पके कटहल का कोवा खाना तो सबके नसीब में होता नहीं,अगर शुभ कार्यों में कटहल की सब्ज़ी भी बनायी जाती तो प्रजा के कहां हाथ लगती.ये सब्ज़ी विशेष मानी जाती.प्रजा तो ज़मीन पर बैठकर दाल-भात खाती.हिंदुओं की शादियों में कटहल का बहुत महत्व था,लेकिन वो कथित निम्न जाति की कही जाने वाली प्रजा को कटहल नहीं खिलाते.उस दिन प्रजा को भरपेट्टा भात खिलाते.जैसे मुसलमानों की शादियों में कथित उच्च जाति के लोग बकरा खाते,कथित निम्न जाति की प्रजा भैंसा पाती,प्रजाजन वलीमे में ज़मीन पर बैठकर भैंसे का गोश्त खाते रहते और खिलखिला कर हँसते रहते.

कटहल का पेड़ तब गाँवों के कथित निम्न जातियों के लोग लगाने का साहस नहीं करते,ज़मींदार बुरा भी मानते कि कटहल खाकर मेरी बराबरी कर रहा है और जब कटहल तैयार होता तो तोड़वा लेते.ऐसे मेंं प्रजा को कुछ मिलता ही नहीं,इसलिए वो कटहल के पेड़ लगाती ही नहीं.ग़रीब तबके के लोग कटहल के बीज के लिए ताके रहते कि कब ज़मींदार पके कटहल का कोवा खाएंगे,बाबू कटहल का कोवा खाते जाते और बीज फेंकते जाते,प्रजा में इन बीजों को लूटने की होड़ होती.कई ज़मींदार पके कटहल की दावत भी दूसरे समकक्ष लोगों को दे देते,तब ख़ूब बीज प्रजा को मिलते.बाबू लोग कटहल के बीज की सब्ज़ी नहीं खाते,वजह कि ये बीज तब के मशरूम की सब्ज़ी जैसे थे,बीज की सब्ज़ी तो गुणकारी होती लेकिन कभी-कभार ज़हरीली हो जाती,इसलिए तत्कालीन समाज का ऊँचा तबका कटहल के बीजों की सब्ज़ी नहीं खाता.जिनको कटहल के बीज का स्वाद मिला है वो लोग आज भी खाते हैं,ये मूल रूप से ग़रीबों की सब्ज़ी थी.ग़रीब का कटहल और उसका जिमीकंद यही बीज थे.पुराने दौर में कटहल एक सामंती फल था.मेरे कैमरे की इन तस्वीरों में से पहली तस्वीर में कटहल के शकी बरकी फल.

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