सतीश जायसवाल
वहाँ, मैंने अपने लिए बांयी तरफ वाली खिड़की से साथ लगी हुयी टेबल हथिया रखी थी. उस खिड़की से, बड़े चौराहे पर गुलाबी पत्थरों वाला वह सुन्दर चर्च सामने दिखाई देता रहता था. सर्दियों की किन्हीं सुबहों में अपनी इस खिड़की से उस चर्च को देखना एक दिव्य अनुभव होता था. सर्दी के उन दिनों का आसमान नीले कांच की तरह चर्च के ऊपर तना होता था. कांच के आसमान पर कपास के सफ़ेद फाहे यहां-वहाँ तैरते हुए होते थे. और सुबह की कोमल धूप में चर्च के गुलाबी पत्थर खिल रहे होते थे.
वह कॉफी हॉउस के खुलने का समय होता था. दक्षिण भारतीय चन्दन की अगरबत्तियों का धुंआ वहाँ लहरा रहा होता. और चन्दन की सुवास बाहरदूर तक जा रही होती थी. भीतर,लकड़ी के पार्टीशन के पीछे से कप-प्लेटों और चम्मचों की मिली-जुली आवाज़ें बाहर आकर किन्हीं घण्टियों की सी तरंग में मिलती थीं.या, कुछ ऐसे कि किसी की कोई प्रेमिका पर्दा हटाकर बाहर आये तो परदे के किनारों पर टंकी घंटियाँ हवा में तैरने लगें. और वहाँ उजाला हो जाये.
इलाहाबाद का इन्डियन कॉफी हॉउस अंग्रेज़ी दिनों की शानदार ''दरबारी बिल्डिंग'' के एक हिस्से में है. इसकी छतें खूब ऊंची थीं और दरवाज़े मेहराबों वाले थे. यह सब किसी दृश्य से अधिक अपनी अनुभूति में होता था. और वह किसी पूजा- स्थल का सा बोध करता रहता था .
सुबह के समय, अभी जब कॉफी के शौकीनों की भीड़ वहाँ नहीं होती थी, एक थिरी हुयी शान्ति वहाँ होती थी. वह थिरी हुयी शान्ति एक भ्रान्ति की रचना करती थी. खूब ऊंची छत और मेहराबों में खुलते हुए दरवाज़े उस बड़े से हॉल को किसी ग्रीक थिएटर के मंच में बदलने लगते थे.
लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं होता. अंग्रेजी दिनों की वो खूब ऊंची छत अब नीची हो गयी है. निचली फाल्स सीलिंग ने पुरानी छत की ऊंचाई को ढाँक लिया है. अपनी पुरानी ऊंचाइयों को नीचा दिखाने कई तरीके हमारे हाथ लग चुके हैं. और ये तरीके हमारी आज की ज़रूरतों का हिस्सा हो चुके हैं.
वह खिड़की भी मुंद गयी है, जहां से खुले हुए बड़े चौराहे तक साफ़ दिखता था . अब वहाँ से गुलाबी पत्थरों वाला वह चर्च नहीं दिखता. अब कॉफी हॉउस में अँधेरा-अँधेरा सा रहता है. इधर के २-३ बरसों में मेरा इलाहाबाद आना-जाना बराबर हुआ है. और कॉफी हॉउस हर बार पहले से बदतर मिला है. इलाहाबाद का कॉफी हॉउस धीरे-धीरे किसी अवसाद में डूब रहा है. और यह बात मन को उदास करती है.
अब कॉफी हॉउस के बगल में विश्वभारती प्रकाशन और उपेन्द्रनाथ ''अश्क'' का नीलाभ प्रकाशन भी नहीं हैं. अश्क जी के नहीं रहने के बाद भी ''नीलाभ प्रकाशन'' एक जगह थी जहाँ उनकी उपस्थिति मिलती थी. उनकी इस उपस्थिति में उनका वह समय भी उपस्थित होता था जिसके साथ हमारा परिचय था. अब वहां अपरिचय है. हमारा परिचय उस समय से था जो अब असमय होता जा रहा है. अब नीलाभ भी नहीं रहे.
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