डा शारिक अहमद खान
ये आज़मगढ़ की मशहूर 'हरी की घाठी' है,चंबल घाटी वाली घाटी नहीं,ये 'घाठी' है,घाठी कचौड़ी से अलग चीज़ है,तेल में तली मिर्च संग परोसी जाती है,आज़मगढ़ के आसपास और बिहार के कुछ इलाक़ों को छोड़ घाठी कहीं नहीं मिलती,लखनऊ में भी नहीं मिलती,हम परसों आज़मगढ़ से चलने लगे तो घाठी की याद आयी,लिहाज़ा पैक करायी,घाठी को हाकिम हुक्काम और जनता का ख़ून चूसने वाले परजीवी दल्ले खाते हैं,दुबले पतले और मुटल्ले खाते हैं,बनिए बक्काल और कंगाल खाते हैं,सेठ साहूकार और सुनार खाते हैं,नेता अभिनेता और मक्कार खाते हैं,सँपेरे जादूगर और फ़नकार खाते हैं,ज़मींदार हवलदार और चौकीदार खाते हैं,किसान मज़दूर और बेगार खाते हैं,छात्र क्षत्रिय और ठेकेदार खाते हैं,शराबी कबाबी और अय्यार खाते हैं,इसमें भरा होता है चने का सत्तू तो सतुआ पसंद करने वाले गँवार खाते हैं,बटमार लठमार और पाकेटमार खाते हैं,हिंदू ईसाई और सरदार खाते हैं,नज़रबाज़ कबूतरबाज़ और लौंडेबाज़ खाते हैं,घड़ीसाज़ नक्शेबाज़ और लौंडियाबाज़ खाते हैं,शेख़ पठान समेत हर मुसलमान खाते हैं,आपके प्रिय शारिक़ अहमद ख़ान खाते हैं,हर अखाड़े के पहलवान खाते हैं,मुफ़लिस मुख़लिस और धनवान खाते हैं.
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