डॉ शारिक़ अहमद ख़ान लखनऊ में जेठ के महीने में आने वाले हर मंगल को बड़ा मंगल मतलब बुढ़वा मंगल कहा जाता है.हनुमान जी का विशेष दिन होता है.इस दिन ख़ूब भंडारों का आयोजन होता है और पूड़ियाँ छनती हैं.लखनऊ में बुढ़वा मंगल मनाने की ख़ूब परंपरा है.आज तीसरा बुढ़वा मंगल है.हमारे एक कर्मचारी ने इस अवसर पर बड़े मंगल का भंडारा परिसर में किया.पूड़ी और अमियाँ की मीठी चटनी का प्रसाद हमने भी ग्रहण किया.'उतरती जुमेरात' और 'बुढ़वा मंगल' मेरा प्रिय शब्द है,जब हमें कोई काम नहीं करना होता तो कह देते हैं कि अमुक काम हम बुढ़वा मंगल या उतरती जुमेरात को ही करेंगे,सामने वाला आम आदमी चकरा जाता है कि आख़िर बुढ़वा मंगल और उतरती जुमेरात कब है. ख़ैर,पूड़ी की चर्चा हो रही थी.तो पूड़ी से याद आया कि नवाब अवध वाजिद अली शाह की एक पूड़ी ही एक कड़ाही भर तेल में छनती थी,दूसरी पूड़ी दूसरी कड़ाही के तेल में छनती,जिस तेल में एक बार पूड़ी छन जाती उसमें दोबारा छनी पूड़ी नवाब वाजिद अली शाह नहीं खाते.जब अंग्रेज़ों ने नवाब को लखनऊ से निकाला और वो कलकत्ते की तरफ़ चले तो बीच में बनारस में भी रूके.राजा बनारस ने नदेसर कोठी में रूकवाया.जब नवाब वाजिद अली शाह को नदेसर कोठी बनारस में पूड़ी पेश की कई तो उन्होंने एक पूड़ी खाने के बाद जैसे ही दूसरी पूड़ी को छुआ कि समझ गए कि ये उसी तेल में छनी है जिसमें पहली पूड़ी छनी थी,लिहाज़ा दूसरी पूड़ी को उन्होंने उठा तो लिया था लेकिन खायी नहीं.पुराने दौर में गाय भैंस के दूध की इफ़रात संपन्न ग्रामीण किसानों के यहाँ रहती,ऐसे में उन किसानों में घी में ही पूड़ी छानने का आम चलन था.जब कोई किसी काज में तेल में पूड़ी छनवा देता तो लोग कहते कि बताइये तेल में पूड़ी छनवा दी,सब अकड़ निकल गई,लगता है इस बरस काश्त अच्छी नहीं हुई.बाद में साइंस ने पाया कि घी के मुक़ाबले सरसों का तेल सेहत के लिए बेहतर है. पूड़ी दो तरह की होती है.एक सरसों के तेल में छनी पूड़ी और दूसरी घी में छनी पूड़ी.सरसों के तेल में छनी पूड़ी हिंदुओं में शैव संप्रदाय के लोग खाते हैं.क्योंकि शिव जी को सरसों का तेल प्रिय है.सरसों के तेल से शिवलिंग का अभिषेक भी होता है,लिहाज़ा शैव सरसों के तेल से दूरी नहीं बरतते,शनि महाराज को भी सरसों का तेल प्रिय है,उनकी पूजा में भी सरसों का तेल इस्तेमाल होता है.शैव सरसों के तेल और घी दोनों में छनी पूड़ी खा सकते हैं,लेकिन शुद्ध वैष्णव केवल गाय के घी में छनी पूड़ी ही जीमते हैं.उनके भोजन में भी गाय के घी का इस्तेमाल होता है.हमने एक बार दिल्ली के इस्कॉन मंदिर में भंडारा छका था,वहाँ घी की ही पूड़ियाँ मिली थीं. लेकिन जैसी पूड़ी हमने काशी विश्वनाथ मंदिर के गर्भगृह में खायी वैसी पूड़ी कभी ना पहले खायी थी ना आज तक फिर दोबारा मिली.कैसे मिली,ये बताते हैं.बहुत से बड़े बड़े हिंदू लोगों ने काशी विश्वनाथ मंदिर का गर्भगृह नहीं देखा होगा.लेकिन हमने देखा है,हम गर्भगृह में गए हैं.हुआ ये कि एक बार बरसों पहले मेरे एक हिंदू राजपूत मित्र को काशी विश्वनाथ मंदिर बनारस के कार्यकारी अधिकारी से मिलने जाना था जो प्रदेश सरकार के सरकारी पीसीएस अधिकारी होते हैं और ब्राह्मण होते हैं.मित्र हमको भी लेकर चले.हमने कहा कि देखिए आप हमें ले तो चल रहे हैं लेकिन ना हम किसी के पैर छुएंगे और पहुँचते ही अपना परिचय देंगे. बहरहाल,पहुँचे,कार्यकारी अधिकारी से मिले,परिचय हुआ.कार्यकारी अधिकारी ने सरसों के तेल में छनी पूड़ी मंगाई और मिठाई के साथ उसका प्रसाद दिया.सरसों के तेल की उस पूड़ी की ख़ुशबू ही अलग थी,ऐसी स्वादिष्ट पूड़ी हमने पहले कभी नहीं खायी थी जैसी गर्भगृह की पूड़ी थी.फिर कार्यकारी अधिकारी ने निकाला पैड और एक बड़ा सा लिफ़ाफ़ा जिसके ऊपर शिवलिंग की बड़ी सी आकृति बनी थी.मित्र कहे अनुसार कार्यकारी अधिकारी ने पैड पर लिखा और मित्र को लिफ़ाफ़ा दे दिया.फिर चलते समय गर्भगृह की पूड़ी भी बँधवाकर दे दी.अब हम लोग सीधे लखनऊ आए. पहले यूपी की विधानसभा पहुँचे.यूपी के विधानसभा के अध्यक्ष के चैंबर में गए,उनसे भी एक सपोर्टिंग लेटर लिखवाया.उसके बाद वहाँ पहुँचे जहाँ लिफ़ाफ़ा देना था.लिफ़ाफ़ा पाते ही लिफ़ाफ़ा पाने वाले ने काशी विश्वनाथ के गर्भगृह के लिफ़ाफ़े को अपने चैंबर के छोटे से मंदिर में रखा और उसे दंडवत प्रणाम किया.वो काशी विश्वनाथ के बड़े भक्त थे,उन्होंने झम्म से काम किया.अब मित्र ने उनसे पूछा कि गर्भगृह का प्रसाद पाएंगे.ये सुनते ही उनकी आँखें चमक गईं.कहने लगे कि पुन: स्नान करके आते हैं.वो स्नान करके आए तो मित्र ने उन्हें दो पूड़ी दी.वो ज़मीन पर बैठकर खाने लगे और कहा कि गर्भगृह की सरसों के तेल की ये पूड़ी भोलेबाबा का विशेष प्रसाद है,ये सबके नसीब में नहीं है,मेरा आज का दिन बन गया,अब कुछ रूके हुए अपने शुभ काम आज ही कर लेते हैं.तो ये थी पूड़ी की महिमा.
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