आंधी पानी यानी ग़ाज़ी मियाँ की बारात !

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आंधी पानी यानी ग़ाज़ी मियाँ की बारात !

डॉ शारिक़ अहमद ख़ान 

आज ग़ाज़ी मियाँ की बारात है,तभी ज़ोरदार अंधड़ आया. आज ग़ाज़ी मियाँ की बारात के अवसर पर गोरखपुर समेत कई जगहों पर सरकारी लोकल हॉलीडे भी है. कहते हैं कि जिस दिन ग़ाज़ी मियाँ की बारात होती है उस दिन ज़ोरदार आँधी आती है. हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक है ग़ाज़ी मियाँ का मेला. सैय्यद सालार मसूद ग़ाज़ी उर्फ़ ग़ाज़ी मियाँ की मुख़्य मज़ार बहराइच में है. वहाँ एक महीने का मेला चलता है. दूर दूर से लोग ग़ाज़ी मियाँ की बारात लेकर बहराइच पहुँचते हैं जिसमें हिंदू-मुस्लिम दोनों होते हैं. देश में जहाँ-जहाँ ग़ाज़ी मियाँ की मज़ार की ईंटें रखी हैं वहाँ ग़ाज़ी मियाँ का रौज़ा बना है और उर्स लगता है,मेला लगता है. इन ईंट रखे स्थानों को लहबर कहते हैं. इसी लहबर की पुजाई होती है और विशेष प्रसाद के तौर पर तरबूज़ चढ़ता है. आमतौर पर इन स्थानों पर जेठ के नौतपा में तीन दिनों का मेला लगता है,बारात उठने पर ख़त्म होता है. 


आज़मगढ़ शहर में पहाड़पुर,बिलरियागंज के भगतपुर और ज़िले के मुबारकपुर में ग़ाज़ी मियाँ का मेला आयोजित होता है. ज़िला जौनपुर के मनेछा ग़ौसपुर खेतासराय और पूरब के शहर गोरखपुर में भी मेला लगता है,इसके अलावा पूर्वांचल में कई अन्य जगहों पर भी ग़ाज़ी बाबा का उर्स होता है. इस मेले का अपना रंग-ढंग है और एक ज़िन्दादिल कल्चर की तामीर करता है. 


हिंदू-मुस्लिम एकता देखनी हो तो ग़ाज़ी मियाँ के मेले में देखी जा सकती है. जहाँ दोनों धर्मों के लोग बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. तस्वीर में आप देखेंगे कि हिंदू महिलाएं दोहती नाम की रोटी बना रही हैं जो बाबा को चढ़ेगी. हिंदू-मुसलमान दाल-मुर्ग़ का मलीदा खा रहे हैं. कोई खिश्ती रोटी खाता है तो कोई शर्बत पीता है. सुबह से मनौती मानने वाले हिंदू-मुसलमान आकर परिसर में ही ग़ाज़ी मियाँ को मुर्ग़ा चढ़ाते हैं और वहीं परिसर में बनाकर नोश फ़रमाते हैं. जहाँ एक ओर हिंदू-मुस्लिम को लेकर इतनी सियासत गर्म हो रही है वहीं ग़ाज़ी मियाँ का मेला इस माहौल में ठंडी हवा का झोंका है. 


ग़ाज़ी मियाँ के बारे में तरह -तरह की बातों और इतिहास के बावजूद आज तक अधिकांश हिंदू लोग ग़ाज़ी मियाँ को अपना भला करने वाला मानते हैं. कहते हैं कि इनसे जो मुराद मांगी वो पूरी हुई. बहुत से भड़काने वाले लोगों ने चाहा कि ग़ाज़ी मियाँ के बारे में हिंदुओं को भड़का दिया जाए लेकिन ग़ाज़ी मियाँ के मुरीद हिंदू पीढ़ियों से उनके मेले में शिरकत करते आ रहे हैं. जिसने ज़्यादा भड़काया वो वहीं मौके पर जूते से पिट भी गया. ये है ग़ाज़ी मियाँ के लिए हिंदुओं मुरीदों की मोहब्बत. मुसलमान तो ग़ाज़ी मियाँ की आलोचना सुन भी लेता है लेकिन बाबा के हिंदू मुरीदों के सामने आप उनकी आलोचना नहीं कर सकते. पिटना है तो कर लीजिए. 


ख़ैर.तस्वीर में देखिए कि यहाँ ग़ाज़ी मियाँ के रौज़े के परिसर में मिट्टी की परई में ताज़ा फल चढ़ रहें हैं तो चादरपोशी भी हो रही है. इन्तेज़ामिया कमेटी में हिंदू भी हैं और मुसलमान भी,ख़ूब खाना पका रहें हैं मुरीद. हलवा-पराठा बिक रहा है. कीमे और प्याज़ की पकौड़ियाँ तली जा रही हैं. गुड़ की चोटहिया और चीनी वाली सादी जलेबी भी छन रही है. बच्चे खिलौने ख़रीद रहे हैं. कोई बांसुरी ख़रीदता है तो मिट्टी के खिलौने पर लट्टू है. किसी को बरफ़ चाहिए तो कोई पिपिहरी मांगता है. हमारे परिवार और ख़ानदान में तो ग़ाज़ी मियाँ के मेले या किसी भी मज़ार पर जाने की रवायत नहीं है लेकिन हम जाते हैं,हमें ग़ाज़ी मियाँ का मेला पसंद है,हम जिन जगहों के नाम बताए उन सब जगहों पर ग़ाज़ी मियाँ के मेले में गए हैं. 


ग़ाज़ी मियाँ का नेज़ा भी आज के दिन बुलंद होता है. ग़ाज़ी मियाँ हर बरस कुंवारे रह जाते हैं. ग़ाज़ी मियाँ के बारे में कहते हैं कि वो एक दिन जंगल में भटक गए और उन्हें प्यास लगी,तब एक अहीर की कन्या ने उन्हें गाय का ताज़ा दूध पिलाया,ग़ाज़ी मियाँ ने उसे अपनी बहन मान लिया और उसकी रक्षा करने का वचन दिया. ग़ाज़ी मियाँ अट्ठारह बरस के थे तो उनकी बारात जाने वाली थी,ग़ाज़ी मियाँ पीढ़े पर बैठे थे और उन्हें उबटन लग रहा था,तभी वहाँ अहीर आ गए और ग़ाज़ी मियाँ से कहा कि आपकी अहीर बहन ने हम लोगों को भेजा है,सुहेलदेव के सैनिक हम लोगों की गाय खा जा रहे हैं. ये सुन ग़ाज़ी मियाँ पीढ़े से उठ गए और जंग करने गए,जहाँ धोखे से उनका क़त्ल हो गया. ग़ाज़ी मियाँ को सबसे बड़ा गोरक्षक माना जाता है,क्योंकि अहीरों की गाय बचाते हुए वो शहीद हुए. ग़ाज़ी मियाँ की शहादत के बाद से ग़ाज़ी मियाँ की बारात उठाने की परंपरा शुरू हुई. कहते हैं मेले वाले दिन आंधी ज़रूर आती है. यही तो वो त्योहार हैं जो हिंद की आत्मा हैं. ये सबके हैं,धर्मों का भेद नहीं है. 


ग़ाज़ी मियाँ के भक्तों के गोल के गोल बच्चों को गोद में उठाए तो किसी बच्चे को सिर और कंधे पर बैठाए मेले में आते हैं. किसी पास के पोखर में पहले नहान होता है. फिर मेला रंग जमाता है. आज़मगढ़ के बिलरियागंज के पास जो ग़ाज़ी मियाँ का मेला लगता है उसे तरबूज़ का मेला भी कहा जाता है. तरबूज़ों की खेप गिरती हैं. ग़ाज़ी मियाँ को तरबूज़ चढ़ता है. बहुत से हिंदू ऐसे भी होते हैं जो ग़ाज़ी मियाँ के भगतपुर स्थान पर बकरे और भेड़े की बलि देते हैं. वहीं मिट्टी की मेटी मतलब हंडियों में कंडे की आंच पर मटन पकता है और बाटी लगती है. फिर वहीं मिट्टी की परई में मटन की जिमाई होती है. मेरे एक हिंदू राजपूत दोस्त ने एक बार वहाँ बकरे की बलि दी थी तो हम भी जीमने गए थे. 


ग़ाज़ी मियाँ का जो मेला जौनपुर ज़िले के खेतासराय में लगता है उसमें डफ़ाली जाति के मुसलमान ग़ाज़ी मियाँ की बारात का नेतृत्व करते हैं और बारात बहराइच जाकर ख़त्म होती है. डफ़ाली आगे आगे डफ़ बजाते चलते हैं. हमने वो मेला भी देखा है. मेले में अस्सी फ़ीसद हिंदू और बीस फ़ीसद मुसलमान श्रद्धालु रहते हैं. ग़ाज़ी मियाँ को मुर्ग़े की बलि चढ़ती है. उनको बलि चढ़ाने वाले देशी मुर्ग़ साल भर विशेष रूप से पाले जाते हैं. हिंदू मुस्लिम दोनों बलि देते हैं. लहबर पुजाई होती है,मन्नत मानी जाती है,नेज़ा निकलता है. मनेछा से लेकर खेतासराय तक खचाखच भीड़ रहती है. हिंदू महिलाएं मज़ार पर जाने से पहले पास के पोखर में स्नान करती हैं,खाना बनाती और खाती चलती हैं,ग़ाज़ी मियाँ के गीत गाती चलती हैं,एक तरह से पिकनिक हो जाती है. मेले में अहरा लगता है,हलवा मलीदा चढ़ता है,ग़ाज़ी मियाँ के स्थान पर  दोस्ती रोटी बनती है और फल चढ़ते हैं. पूर्वांचल में ग़ाज़ी मियाँ के सम्मान में अहीर मतलब यादव जाति के हिंदू बहुत शानदार भोजपुरी बिरहा गाते थे,इंसान भाव-विभोर हो जाता,आँसू भी टपकते जाते और आत्मा तर हो जाती. हमने ख़ूब सुना है. अभी भी रवायत बहुत जगहों पर जारी है. अहीरों में ग़ाज़ी मियाँ के बिरहा की परंपरा इसलिए थी क्योंकि ग़ाज़ी मियाँ अहीरों की गायों की रक्षा करते ही शहीद हुए थे. 


हिंदोस्तान की आत्मा इन मेलों में बसती है. ग़ाज़ी मियाँ कहे जाने वाले इन्हीं सैय्यद सालार मसूद ग़ाज़ी के नाम से यूपी के ग़ाज़ीपुर और ग़ाज़ियाबाद ज़िले के नाम हैं. ग़ाज़ी मियाँ को बाले मियाँ भी कहा जाता है. ग़ाज़ी मियाँ के मेले की परंपरा सदियों पुरानी है. लगभग सात सौ बरस पहले भी ग़ाज़ी मियाँ की बहराइच दरगाह पर मेला लगता था,इसका वर्णन इब्नबतूता ने भी किया है,वो बहराइच गया भी था. हिंदू मुस्लिम एकता का प्रतीक है ग़ाज़ी मियाँ का मेला. गाय की रक्षा करना सीखना हो तो ग़ाज़ी मियाँ से सीखना चाहिए. 


हिंदोस्तान के हिंदू अपने ग़ाज़ी मियाँ को मुसलमानों से ज़्यादा मोहब्बत करते हैं. मेरे कैमरे से ली गईं इन तस्वीरों में बीते बरसों का आज़मगढ़ शहर का ग़ाज़ी मियाँ का मेला है,ग़ाज़ी मियाँ की बारात और तमाम तस्वीरों के अलावा हिंदू महिलाएं और पुरूष भी मेले में हैं और मुसलमान भी हैं. इस बार कोविड की वजह से दो साल बाद ग़ाजी मियाँ का मेला लग रहा है. ग़ाज़ी मियाँ की बारात जगह जगह से उठती है और मुख्य दरगाह बहराइच जाकर ख़त्म होती है. साथ में बुलंद नेज़ा मतलब झंडा चलता रहता है जो ऊँचे बाँस पर होता है. कहते हैं कि ग़ाज़ी मियाँ हर सवाली की झोली भर देते हैं,उनसे जो मन्नत माँगी जाती है वो ख़ाली नहीं जाती,ग़ाज़ी मियाँ सबकी मुराद पूरी करते हैं. 


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