ककड़ी खाने के अंदाज़ से पहचान होती है

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ककड़ी खाने के अंदाज़ से पहचान होती है

डॉ शारिक़ अहमद ख़ान

ककड़ी खाने के अंदाज़ से नफ़ासती शहरी और उजड्ड  मग्घे की पहचान होती है. कानपुर में मग्घा और मघईया देहाती को कहते है. उजड्ड मग्घे की पहचान ये है कि मग्घा मोटी ककड़ी पसंद करता है. मग्घा सोचता है कि दाम चुकाए हैं तो मोटी ककड़ी खाएं ताकि पेट भरे,इसलिए मोटी ककड़ी मग्घा ख़रीदता है और गर्मियों के मौसम में ट्रेनों में कंधे पर मोटी ककड़ी धरे हुए खाता चला जाता मग्धा अक्सर नमूदार होता है. मग्घे को नफ़ासत और लज़्ज़त से कोई मतलब नहीं,पेट भरे इसका पहले ध्यान रखता है. इसके उलट शहरी नफ़ासत पसंद लोग पतली ककड़ियाँ पसंद करते हैं जो लैला की उंगलियों सी नाज़ुक हों,वही लज़्ज़त की उम्दा होती हैं और आँखों को भी भली लगती हैं. हम भी मूल से रूप से मग्घे ही हैं मतलब देहाती हैं इसलिए हम भी पहले उजड्ड मग्घे की तरह मोटी ककड़ी ही पसंद करते,ताकि पेट भरे,लेकिन जब से नज़ीर को पढ़ा तब से मजनूँ की पसलियों सी पतली ककड़ियाँ चाहा कीं. आज भी ककड़ीवाले की बुलंद सदा सुनी तो पतली ककड़ियाँ मोल मंगवाईं. इस मौसम में ककड़ी खाना चाहिए,बेली ठंडी रखती है,डिहाईड्रेशन और लू से बचाती है. ज़रूरत पड़े तो पाकिस्तानी सेंधा नमक ककड़ी पर लगा लेना चाहिए. कम सोडियम होता है इसमें,दूसरे भी कई गुण होते हैं,इंडिया के समुद्री नमक में अधिक सोडियम होता है,ये नमक नुकसान करता है. व्रत में हिंदू वही सेंधा नमक खाते हैं,सेंधा नमक को गुणकारी मानते हैं. बीते दिनों सोशल मीडिया पर एक कथित हिंदू हंगामा मचा रहा था कि नमकीन के पैकेट पर उर्दू में लिखा है. हिंदू के खाने की चीज़ है तो उर्दू में क्यों है. उसे उर्दू से चिढ़ रही होगी. जबकि वो अरबी में लिखा था. वो हिंदू शायद भूल गया कि व्रत में जो नमक खाया जाता है वो सेंधा नमक पाकिस्तान से आता है. मुस्लिम देश और दुश्मन देश से आता है,तब विधर्मियों का सेंधा नमक कैसे हज़म करते हो. फलाहारी नमकीन व्रत वाली जो होती है उसमें भी तो सेंधा पाकिस्तानी नमक पड़ता है. उस नमक की लदान तो मुसलमान अपने हाथों से कर इंडिया भेजते हैं. धार्मिक शुद्धतावादी हो और अरबी उर्दू से नफ़रत है तो कैसे हज़म हो जाती हैं सेंधा नमक वाली चीज़ें जो उर्दू बोलने वालों के यहाँ से उनके हाथों से लदकर आती हैं. बहरहाल,ककड़ी की फिर चर्चा करें. मूल विषय ककड़ी है. शायर नज़ीर अकबराबादी आगरे के थे,एक बार राह में बैठ नज़ारेबाज़ी करते थे कि एक ककड़ी बेचने वाला उनके पास आया और कहा कि मैं सिकंदरे की तरफ़ से आया हूँ लेकिन आगरे में मेरी ककड़ियाँ बिक नहीं रही हैं,आप तो महान शायर हैं,कोई ऐसा शेर कहें जिसको पढ़कर हम ककड़ी बेचें और मेरी ककड़ियाँ बिक जाएं. ककड़ी वाले की दरख़्वास्त पर नज़ीर ने एक शेर पढ़ा कि 

'क्या ख़ूब नर्म ओ नाज़ुक आगरे की ककड़ी

 और जिसमें ख़ास काफ़िर,इस्कंदरे की ककड़ी'

      ये सुन ककड़ी वाले ने यही सदा बुलंद की और उसकी ककड़ियाँ हाथों-हाथ बिक गईं. नज़ीर अकबराबादी ने अब पूरा ककड़ीनामा ही लिखा जो ये नीचे हम दोहरा रहे हैं कि 


'पहुंचे न इसको हरगिज़ काबुल दरे की ककड़ी. 

ने पूरब और न पच्छिम, ख़ूबी भरे की ककड़ी. 

ने चीन के परे की और न बरे की ककड़ी. 

दक्खिन की और न हरगिज़,उससे परे की ककड़ी. 

क्या ख़ूब नर्मो नाज़ुक, इस आगरे की ककड़ी. 

और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी. 


क्या प्यारी-प्यारी मीठी और पतली पतलियां हैं. 

गन्ने की पोरियां हैं, रेशम की तकलियां हैं. 

फ़रहाद की निगाहें, शीरीं की हसलियां हैं. 

मजनूं की सर्द आहें, लैला की उंगलियां हैं. 

क्या ख़ूब नर्मो नाज़ुक इस आगरे की ककड़ी. 

और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी. 


कोई है ज़र्दी मायल, कोई हरी भरी है. 

पुखराज मुनफ़अल है, पन्ने को थरथरी है. 

टेढ़ी है सो तो चूड़ी वह हीर की हरी है. 

सीधी है सो वह यारो, रांझा की बांसुरी है. 

क्या ख़ूब नर्मो नाज़ुक, इस आगरे की ककड़ी. 

और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी. 


मीठी है जिसको बर्फ़ी कहिए गुलाबी कहिए. 

या हल्क़े देख उसको ताज़ी जलेबी कहिए. 

तिल शकरियों की फांके, अब या इमरती कहिए. 

सच पूछिये तो इसको दनदाने मिश्री कहिए. 

क्या खू़ब नर्मो नाज़ुक, इस आगरे की ककड़ी. 

और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी. 


छूने में बर्गे गुल है, खाने में कुरकुरी है. 

गर्मी के मारने को एक तीर की सरी है. 

आंखों में सुख कलेजे, ठंडक हरी भरी है. 

ककड़ी न कहिये इसको, ककड़ी नहीं परी है. 

क्या ख़ूब नर्मो नाज़ुक, इस आगरे की ककड़ी. 

और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी. 


बेल उसकी ऐसी नाज़ुक, जूं जुल्फ़ पेच खाई. 

बीज ऐसे छोटे छोटे, ख़शख़ाश या कि राई. 

देख उसी ऐसी नरमी बारीकी और गुलाई. 

आती है याद हमको महबूब की कलाई. 

क्या खू़ब नर्मो नाज़ुक, इस आगरे की ककड़ी. 

और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी. 


लेते हैं मोल इसको गुल की तरह से खिल के. 

माशूक़ और आशिक़ खाते हैं दोनों मिलके. 

आशिक़ तो हैं बुझाते शोलों को अपने दिल के. 

माशूक़ हैं लगाते, माथे पै अपने छिलके. 

क्या ख़ूब नर्मो नाज़ुक, इस आगरे की ककड़ी. 

और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी. 


मशहूर जैसी हरजा, यां की जमालियां हैं. 

वैसी ही ककड़ी ने भी धूमें यह डालियां हैं. 

मीठी हैं सो तो गोया, शक्कर की थालियां हैं. 

कड़वी हैं सो भी गोया, खू़बां की गालियां हैं. 

क्या ख़ूब नर्मो नाज़ुक इस आगरे की ककड़ी. 

और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी. 


जो एक बार यारो, इस जा की खाये ककड़ी. 

फिर जा कहीं की उसको हरगिज़ न भाए ककड़ी. 

दिल तो ”नज़ीर“ ग़श है यानी मंगाए ककड़ी. 

ककड़ी है या क़यामत, क्या कहिए हाय ककड़ी. 

क्या खू़ब नर्मो नाजुक, इस आगरे की ककड़ी. 

और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी. 

     

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