शहतूत - नूर नहाए रेशम का झूला

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शहतूत - नूर नहाए रेशम का झूला

त्रिभुवन

मसूरी की इस यात्रा में देहरादून के पास फलों के विक्रेता एक अलग ही नज़ारा पेश कर रहे थे.  एक युवा फल-विक्रेता से शहतूत की बात की तो उसने कहा, वो बहुत पीछे एक बूढ़े बाबा बेच रहे थे.  बहुत उम्दा हैं.  मैं भागकर पीछे गया.  ले लिए.  बाबा बोले, धो दूँ तो लेना.  ये शहतूत मैंने देखे और चखे तो बचपन के पीछे छूट गए तन्हा शजर की कोई याद मानो फ़ाख़्ता की तरह उड़कर आई.  एक शहतूत मुँह में रखा तो वह स्वाद रेशम के धागे की तरह बचपन के दिनों को लम्हा-लम्हा खोलने लगा.  शहतूत के पत्ते साँसों में बजने लगे.  बचपन का सौदाई समय मन से रेशम की डोर सा लिपट गया.  

शहतूत ऐसा लफ़्ज़ है, जिसमें मेरे बचपन से तरबतर दिन तैरने लगते हैं.  मैं आठवीं कक्षा तक ही गाँव में रहा.  गंगानगर के चक 25 एमएल! गाँव में शहतूत के बहुत पेड़ थे; लेकिन गंगनहर के सुलेमान हैड की कोठी में शहतूत के नभस्पर्शी और बेहद मीठे फलों वाले पेड़ थे.  वे अँगरेज़ों के समय की परिकल्पना थी, जिस वैभव को हमारे प्रतिभाशाली स्वदेशी इंजीनियरों ने तबाह कर दिया है.  


शहतूत सिर्फ़ फल नहीं, वह सिर्फ़ मलबेरी नहीं, वह सिर्फ़ एक पेड़ भर नहीं; वह अपने आप में एक जीवन वैभव था.  शहतूत की कोमल कमनीयता के कारण मेरा और जाने कितने लोगों का बचपन, यौवन और बुढापा उन पेड़ों की उपस्थिति से खिलखिलाता रहता था.    


वे शहतूत मुँह में घुलते और रूह में भी.  शहतूत सिर्फ़ फल नहीं, मुहावरों का साहित्य भी था.  गाँव में एक ख़ूबसूरत और बुद्धिमान लड़की की शादी एक जड़ से नौजवान से हुई तो सुनाई दिया,  वेखो जट्ट किक्कर दा जातू, ब्याह के ले गया तूत दी छटी! अरे लोगो देखो, कैसा दुर्भाग्य है.  ये शहतूत सी मधुर और शहतूत सी कमनीय किशोरी को कीकर यानी बबूल के ऊबड़-खाबड़ कांट-कंटीले छिलके जैसा नौजवान ब्याह के ले गया है! इस वाक्य की अनुगूँज आज भी मेरी रूह के भीतर ध्वनित होती रहती है.  


कहते हैं, शहतूत खाकर ही रेशम के कीड़े रेशम पैदा करते हैं.  यानी शहतूत के बिना कैसा रेशम! शहतूत की कमनीयता ही रेशम के धागों में बदलती है.  शहतूत वसंत में नए पत्ते लाता है और पतझर में उसके कोई पत्ता नहीं रहता.  उसकी कोमल टहनियाँ उतरकर जाने कैसे-कैसे हाथों में जातीं.  वे शिक्षक ओम प्रकाश शर्मा या चंदूलाल के हाथ जातीं तो स्कूल में पाठ याद न करने वाले या प्रश्न हल न कर पाने वाली लड़कियों की कोमल हथेलियों और लड़कों के नितंब प्रदेश पर तड़-तड़ बरसतीं! वे जगरूपसिंह के हाथ लगतीं तो वह उनके ख़ूबसूरत टोकरे बनाता.  अगर जंगसिंह के हाथ आतीं तो वह उन्हें रोटी रखने के दर्शनीय छाबे में बदल देता! और अगर वे ईसरराम के हाथ लगतीं तो वह उन्हें रोप-रूप खेतों में नए शहतूत उगाता! जंग सिंह शहतूत की हॉकियां बनाया करते थे तो दर्शनसिंह एक नायाब किस्म की हथकढ़ तैयार करते! 


एक बार वह नौजवान अपने कुर्ते की झोली बनाकर शहतूत भर लाया और गाँव के बीचोबीच उस लड़की के सामने रोने लगा : "बस यही मेरे पास है.  ये सब ले ले.  और मेरी हो जा. " वे प्रेम करते थे.  जातियां अलग थीं.  अगले दिन शहतूत के फल लड़की के घर से शहतूत की सटियाँ बनकर निकले और उस लड़के की पीठ पर इतने बरसे कि पूरी देह पर शहतूत ही शहतूत उग आए.  लड़का कहता रहा कि वह फ़क़त प्यार करता है.  कोई ग़लत बात तो की नहीं! लेकिन उसे क्या मालूम था कि प्रेम के लिए एक पल नहीं, उम्र भर के लिए आँहों का तावान भरना पड़ता है.  मैंने बचपन में उस लड़के और लड़की को एक दूसरे को देख-देख रोते हुए देखा! लेकिन हमें कहाँ समझ आनी थी ये बात.  ये तो समय बीत जाने और बहुत कुछ रीत जाने के बाद समझ आने लगा. 


बचपन के उन दिनों में शीशम, शहतूत और कीकर पर चढ़ते हुए एक गीत सुनते थे : आ कुड़िये बैठ तूतां (शहतूतों) वाले खूह ते, गल्लां होण दिलां दियाँ एक-दूजे दे मूह ते! कि ओ प्यारी लड़की, तू शहतूत वाले कुऍं पर आ जा.  वहीं, आमने-सामने दिल की प्रेम भरी बातें करेंगे.  अब "तूतां वाले खूह" की बात चली है तो सोहन सिंह 'शीतल' का वह उपन्यास भी याद हो आया, जिसे दसवीं कक्षा में हम संस्कृत पढ़ते थे तो हमारे पंजाबी वाले सहपाठी इस उपन्यास को पाठ्यक्रम में पढ़ते थे.  


शहतूत वृक्ष भर नहीं, वह भारत-पाकिस्तान से लेकर ईरान-इराक तक गीतों का कारवाँ भी लेकर चलता है.  प्रसिद्ध ईरानी कवि सबीर हाका की शहतूत सम्बन्धी कविताओं का अनुवाद कुछ समय पहले गीत ने किया है.  नीलोफ़र मंसूरी के गीत भी खूब गाए गए हैं.  लेकिन हमारी संस्कृति में शहतूत गति से लेकर रति तक तरह-तरह के रंग भरता है.  शहतूत किसी को माँ लगता था, किसी को प्रेमी, किसी को पुत्र और किसी को बेटी-बहू.  किसी को वह जटाधारी साधु लगता तो किसी को उसके फल जीवन का मधुरतम रस.  


शहतूत मुझे एक ऐसा मुकम्मल रंग लगता है, जो मेरे बचपन के ख़ाके में महक रहा है.  उम्र के साथ ठिठुरता-ठिठकता हुआ मैं निरन्तर नीचे उतर रहा हूँ और मेरे आसपास जब शहतूत का कोई पेड़ नहीं है तो मन का दामन कैसे भरे.  रूह के लबों को जो शगुफ़्तगी शहतूत से मिलती है, वह और किसी पेड़ से कैसे मिल सकती है? काव्य के इतिहास की दुर्लभतम प्रतिभा जॉन कीट्स अपनी अद्भुत रचना  "ऑड टु अ नाइटिंगेल" शायद ही लिख पाते अगर वे लन्दन के हैम्पस्टेड स्थित अपने घर के दालान में प्लम-ट्री के नीचे बैठकर सामने के मलबेरी या शहतूत के वृक्ष को निरंतर निहारते नहीं रहते! 


लेकिन शहतूत की यह उपमा अविस्मरणीय है कि सच्चे प्रेमी की रूह में बहते प्रेम की अविरल धारा और शहतूत की कमनीय डाली जीवन में कभी नहीं टूटती.  कोई चाहे लाख कोशिश कर ले! बचपन में आठवीं कक्षा तक उस गाँव में हमने सैकड़ों कोशिशें की होंगी कि शहतूत की डाली को बीच में से तोड़कर देखें; लेकिन कभी नहीं तोड़ पाए.  आज शहतूत के फलों को चखकर मन की आँखों के आँसू रोके नहीं रुकते; लेकिन रूह नूर नहाए रेशम का झूला झूल रही है!


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