ओम प्रकाश सिंह
आप भी महुआ का पेड़ लगाएं.. एक पीढ़ी लगाए और कई पीढ़ी लाभान्वित हो...जिस जमीन पर बच्चे महुआ बीन रहे हैं वो हमारी पैतृक जमीन है, आम और महुए का बाग था..आम के पेड़ तो बचे नहीं, महुए के चार पेड़ अभी भी अपनी खुशबू बिखरते हैं..इसी जमीन पर गुरुकुल खोलने की योजना थी लेकिन धनाभाव के कारण योजना परवान ना चढ़ सकी लेकिन साथी अरुण प्रकाश जी के साथ और कहीं( मूर्त रुप लेते ही विस्तार से लिखूंगा) लक्ष्य साधा जा रहा है..
आज घर से जब रोजी रोटी के ठीहे की तरफ आ रहा था तो बच्चे महुआ बीन रहे थे.. रुककर महुआ की सुगंध को नथुनों से खींचा साथ में बच्चों की तस्वीर भी. आपको भी अवसर लगे तो महुआ बीनने का प्रयास करिए, बेहतरीन एक्सरसाइज हो जाएगी..
महुआरी यादें और सुंगध का संवाद
अलसुब्बह चुए मादक महुए महक रहे होते हैं. वह महक गंधभर नहीं है. ‘गंध का संवाद’ है जो खुद तो कुछ नहीं कहते, लेकिन आपको बहुत कहने के प्रेरित करते हैं.
बाग में इन पेड़ों के अलावा दो तीन जहीन पेड़ महुआ के और थे. इतने बड़े की दस-बारह बच्चे हाथ का ‘कक्कन जोड़कर’ उसकी मोटाई नापते थे. उसकी शाखाएं - प्रशाखाएं बीघे भर में फैली थीं, बड़ा छतनार पेड़ था. फागुन उतरने के साथ महुआ का पेड़ अपनी पत्तियां उतार देता, लाल कोमल शिशु पत्तियों के नीचे गुच्छों में महुआ चोंच निकालकर बाहर का ताप लेते. पुरानी पत्तियों के झरने से नीचे मोटी बिछावन बिछ जाती इससे चुने वाले 'सुमन की सुकोमलता' न प्रभावित हो. जब भोर की पोर खुलती तो कुच की बुनरी ढीली होती जाती और सफ़ेद मोती उन पत्तियों के बिछावन पर बरस पड़ते, बहुत सुंदर और तालबद्ध धुन होती..पुटुर, पुटुर..पुत्त!
अब मन परबस,
अब सपन परस,
अब दूर दरस,अब नयन भरे.
महुआ के,
महुआ के नीचे मोती झरे.
...... हम जब बगिया में पहुंचते तो पत्तियों पर हिमपात की सी चादर होती, सफ़ेद मोतियों की. हम उन महुओं को बहुत आहिस्ता पकड़ते और बांस की टोकरी में संग्रहीत करते. टोकरियां बोरों में खाली होतीं. लोग बोरे लेकर लौट जाते और हम वहीं पड़ जाते. मटर छीलते समय जैसे लोग उसके दाने खाते रहते हैं, मैं चुनते समय महुए खाता रहता. चूंकि महुए में सिर्फ मादक महक ही नहीं होती, मादक तत्त्व भी होते हैं और उसका असर कई घंटे की मधुर स्वप्नों वाली नींद देता.
महुए से कई सामाजिक उपक्रम जुड़े थे, कुछ लोग सिर्फ इसी महीने में घर की तरफ चक्कर काटते, जिनके यहां महुआ नहीं होता था. ताजे महुओं की लप्सी बनती, हमारी आजी तो महुये को दूध में उबालकर खिलाती थीं. संग्रहीत किये गये महुए सुखाये जाते और वह पक्के किशमिश के रंग के हो जाते. यह सूखे महुए किसानों के मेवे थे. इनका ठेकुआ और लाटा बनता. लाटा मेरी आजी बहुत अच्छा बनाती थीं, लाटा कई चीजों को मिलाकर महुए के साथ कूटने से बनता था. उसे खाकर पानी पीना बड़ा अच्छा लगता था. उसी लाटा के प्रेम में कई लोग आजी का हालचाल पूछने आते-जाते. महुआ और उसके उत्पादों से आजी की बहुत सी यादें जुडी हैं. बात महुआ पर ही ख़त्म न होती, उसके जब फल आते उसकी कौड़ियाँ फोड़कर सुखाई जातीं और उनका तेल निकलता. उससे वर्षा के प्रथम उत्सव पर पूड़ी बनती. आजी अब नहीं हैं, दोनों महुए के पेड़ भी नहीं हैं. हां, उसकी लाल और मजबूती लकड़ी अब भी घर की कई खिडकियों और दरवाजों में लगी है, जैसे अतीत के झरोखे आजी की यादों से बुने हैं. पुराने घर के खंडहर के पास दो महुए के युवा पेड़ हैं, उतने बड़े तो न सही पर सामान्य वृक्ष की तरह हैं और फूलते फलते हैं.
जिस मादक महक ने अतीत के शिकस्ते पर चढ़ा दिया था, फिर उसी ने ध्यान भंग किया है. रात के 10 बजे जब घर लौटता हूं तो इन्हीं महुआ वृक्षों को एक बार फिर निहारता हूं. कुछ महुओं को जेब के हवाई करता हूं और फिर गांव की अपनी प्रस्तर कुटी की ओर बढ़ जाता हूं, जेब में महुआ महक रहा है. मैं महुए का जमीन पर बिखरना तो नहीं रोक सकता, न ही उस मधु पांत को, लेकिन वह मादकता का संवाद बटोर लाया हूं. जैसे वह पेड़ मेरे साथ-साथ आ रहे हों. पड़ाव पर पहुंचकर वह महुए कटोरी में रखे हैं, यहां न किसी को मेरे विलम्ब आने से दिक्कत है न ही किसी ने मादक गंध से मुझे टोका है. मैंने महुआ फूल के अंदर की भूसी निकालकर उसकी लपेट खोल दी है, और वे अधिक तीक्ष्ण गंध छोडकर शांत से हो गये हैं. महक कमरे में भर गई है. उन्हें खाते हुए आशंका है कि लुढ़क जाऊंगा, लेकिन वयस्कता का आवरण अभेद्य हो चुका है, सुकोमल महुआ की मादकता का सत्कार करने वाला हृदय और शरीर तीन दशक पीछे छोड़ आया हूं. तभी तो इतना कुछ लिख सका हूं. यादें ही नहीं जज्बात भी महुआरी भये जा रहे हैं.
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