डॉ शारिक़ अहमद ख़ान
फ़ायक़ मुल्ला और क़तील पैदा हुए हिंदू और मरे मुसलमान.क्या कबाब की वजह से हिंदू से मुसलमान भी कोई हो सकता है.इसकी नज़ीर हैं लखनऊ के मुल्ला फ़ायक़ और मिर्ज़ा क़तील.मुल्ला फ़ायक़ एक हिंदू थे जिनका ख़ानदान मुग़लिया दौर के आगरे से नवाबी दौर में लखनऊ आ बसा.मुल्ला फ़ायक़ ने फ़ारसी सीखी और मुसलमान हो गए.फ़ारसी आलिम रहे मुल्ला फ़ायक़ ने फ़ारसी का शानदार और बहुत बड़ा व्याकरण कोष तैयार कर दुनिया को दिया है.
मुल्ला फ़ायक़ फ़ारसी का बड़ा नाम रहे.आज भी इनका व्याकरण कोष फ़ारसीदाँ लोगों में बहुत मशहूर है.इसी तरह लखनऊ के मिर्ज़ा क़तील थे.ये भी हिंदू से मुसलमान हुए और फ़ारसी शायर होने के साथ-साथ फ़ारसी के स्टैंडर्ड आलिम थे.इन्हें 'मिर्ज़ा' का ख़िताब मिला था.मिर्ज़ा क़तील के प्रशंसकों की संख्या एक दौर में लखनऊ से कलकत्ते तक थी.ग़ालिब को कभी किसी ने फ़ारसी के किसी मामले पर टोका और सनद के तौर पर क़तील का हवाला दिया तो चिढ़कर ग़ालिब ने कहा कि 'सुख़नस्त-आशकार-ओ-पिनहाँ नीस्त,देहली-ओ-लखनऊ-ज़-ईरां-नीस्त'.लखनऊ और दिल्ली ईरान का शहर नहीं है,क़तील ना इस्फ़हान के थे ना ही उनकी मादरी ज़बान मतलब मदर टंग फ़ारसी थी,इसलिए उनकी बात को फ़ारसी के मामले में मैं यक़ीनी नहीं मान सकता.
ज़बान के मामले में किसी की बात तभी यक़ीनी मानी जा सकती है जब वो भाषा उसकी मादरी ज़बान हो.ख़ैर,मुल्ला फ़ायक़ और मिर्ज़ा क़तील का कहना था कि 'बू-ए-कबाब मरा मुसलमान कर्द'.मतलब कि ये दोनों कहा करते कि कबाब की ख़ुशबू ने उन्हें मुसलमान बना दिया.बहरहाल,कबाब की ख़ुशबू में भी एक मक़नातीसी कशिश मतलब चुम्बकीय आकर्षण तो होता ही है.आज हमने घर पर शामी कबाब बनवाए.तस्वीर में तवे पर जाने की पूर्व अवस्था में शामी कबाब नज़र आ रहे हैं.
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