ताड़ी के शौक़ीन कहते हैं..

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ताड़ी के शौक़ीन कहते हैं..

डा शारिक अहमद खान 

तरकुलारिष्ट. ताड़ी का मौसम क़रीब है. चैत्र रामनवमी के बाद ताड़ी उतरने लगेगी. ताड़ी के शौक़ीनों के अनुसार मौसम में सुबह एक गिलास ताज़ी ताड़ी पीने से शरीर स्वस्थ हो जाता है. साल भर शराब पीने वाले कुछ शौक़ीन ताड़ी के मौसम में शराब छोड़ ताड़ी पीने लगते हैं और उनका मानना रहता है कि शरीर पर हुए शराब के नुकसान की भरपाई ताज़ी ताड़ी पीने से हो जाती है. उनके अनुसार ताज़ी उतरी ताड़ी जिसे नीरा कहा जाता है उसे पीने से लीवर और शरीर के भीतरी अंग निर्मल हो जाते हैं,लीवर साफ़ हो जाता है. ये बात भले वैज्ञानिक नज़रिए से सही ना हो लेकिन रवायत में ताड़ी के शौक़ीनों में चलन में है. जैसे जैसे गर्मी बढ़ती जाती है वैसे वैसे ताड़ और ज़्यादा मात्रा में ताड़ी फेंकता है. तब कई बार पेड़ से इतनी ताड़ी निकलती है कि पेड़ पर टंगी लभनी मतलब मिट्टी की लबनी चूना मतलब ओवरफ़्लो होकर टपकना शुरू कर देती है. ताड़ के पेड़ को देशज भाषा में तरकुल भी कहा जाता है. सुबह की ताज़ी ताड़ी नीरा शीतलता की वजह से बतौर पेट की दवा बहुत पसंद की जाती है,भूख बढ़ाने वाली मानी जाती है तो शाम की ताड़ी दिन भर धूप खाने से हल्की नशे की सिफ़त वाली हो जाती है और हल्के नशे के तौर पर इसे लेने वाले शाम की ताड़ी बहुत पसंद करते हैं.

 ताड़ी के शौक़ीन कहते हैं कि ताड़ी वही शुद्ध है जिसमें हड्डे मतलब बर्रे और शहद की मक्खी समेत कुछ कीट आकर्षित हो पेड़ पर टंगी लबनी में कूद जाएं,शौक़ीन इस ताड़ी को छन्नी से छानकर पी जाते हैं और कहते हैं कि अगर कीट आकर्षित नहीं हो रहे तो ताड़ी मिलावटी है या दवा पड़ी ताड़ी है. ताड़ी बादशाह जहाँगीर को बहुत पसंद थी. बादशाह ताड़ी में अफ़ीम मिलाकर पिया करता और टुन्न होकर गद्दी पर तशरीफ़ फ़रमाता. अक्सर गद्दी पर बैठे-बैठे सो भी जाया करता. चंवर वाले चंवर से मक्खियाँ उड़ाया करते,जहाँगीर खर्राटे लेता रहता. दरबारी मुँह तका करते और फ़रियादी निराश हो जाते. जहाँगीर ने बस कहने के लिए अपने किले के बाहर घंटा टांगा था. फ़रियादियों की समस्या तभी सुनता जब उसकी  नींद टूटती. अफ़ीम से भी नींद आती है और ताड़ी से भी ख़ूब आती है. जब दोनों मिल जाएं तो फिर बल्ले-बल्ले. नींद तो ख़ूब गहरी आएगी ही. देर रात में जब फ़रियादी घंटा बजाते तो जहाँगीर ज़रूर सुन लेता क्योंकि नशा टूटने पर नींद भी टूट जाती थी. मशहूर हो गया कि बादशाह तो देर रात में भी घंटा बजते ही परकोटे पर आ जाते हैं और जनसमस्या सुन लेते हैं. वैसे भी बाद के बरसों में जहाँगीर को रात में नींद आती नहीं थी. 

बैठे -ठाले क्या करें. फ़रियादियों की फ़रियाद ही सुन लिया करते. रात में मनोरंजन भी हो जाता था और शोहरत भी मिल जाती थी. हकीमों ने बहुत समझाया कि शराब छोड़ दो लेकिन जहाँगीर नहीं माना. हाँ,उसने ये आज्ञा ज़रूर दी कि पूरे हिंदोस्तान में शराबबंदी लागू की जाए. लागू क्या हुई बस काग़ज़ पर रही. इसी तरह अकबर से एक जैन साधु शांतिचंद्र ने 1590 के आसपास शराब बंद करवाने की गुहार लगाई. शांतिचंद्र के सम्मान में अकबर ने शराबबंदी का हुक्म दे दिया. अकबर वैसे भी जवानी के शुरू के दिनों को छोड़ बाद में शराब पीता नहीं था. लेकिन अकबर हो या कोई भी सल्तनतकालीन सुल्तान,शराब पर  रोक तो लगभग सभी के समय रही लेकिन धरातल पर नहीं उतर पायी. ताड़ी-शराब का सेवन भारत में बहुत प्राचीन समय से है. सम्राट हर्षवर्धन के समय चीनी यात्री ह्वेनसांग जब भारत आया तो लिखता है कि यहाँ के क्षत्रिय फलों की शराब पीते हैं. वैश्य मतलब बनिए थोड़ा कड़क शराब पीते हैं जबकि ब्राह्मण फलों के रस का आनंद लेते हैं. ख़ैर,बात ताड़ी की हो रही है. चैत्र की रामनवमी के बाद ताड़ी उतारने वालों मतलब गछवाहों की पत्नियाँ अपने सुहाग की सभी निशानियाँ हटा देती हैं. मसलन चूड़ी-बिंदी-सिंदूर वग़ैरह. ये पति की लंबी उम्र के लिए  एक किस्म का टोटका है जो सदियों से चला आ रहा है. नाग पंचमी के दिन गछवाहों की सुहागन फिर से सुहाग की निशानियाँ धारण करती हैं. तरकुलवा देवी की पूजा करती हैं. बकरे की बलि चढ़ती है. ज़िला गोरखपुर में एक तरकुलहा देवी हैं,वहाँ भी लोग देवी को बकरे की बलि चढ़ाने जाते हैं. फिर वहीं मिट्टी की मेटी में बकरा पकता है और मिट्टी की परई मतलब शकोरों में खाया जाता है. हम वहाँ एक बार गए हैं,मेरे मित्र ने देवी को बलि चढ़ायी थी और फिर वहीं बकरा पका था. भारत में ताड़ी पीने की लत हज़ारों वर्ष पुरानी है. जब गर्मी का मौसम अपनी शुरूआत पर होता है तो ताड़ी उतारने वाले गछवाहे कमर कस लेते हैं.

 पेड़ के मालिक से सीज़न भर के लिए पेड़ का ठेका ले लेते हैं. शौक़ीन मालिक को कुछ मात्रा में असली ताड़ी देने का भी करार कर लेते हैं. अब शुरू होता है ताड़ी उतारने का काम. ऊँचे-ऊँचे ताड़ के दरख़्तों पर चढ़ते हैं गछवाहे. पैरों में रस्सी की फंदगी फंसाए,कमर में बंधी रस्सी से ख़ुद को ताड़ से बिंधाए, रस्सी में अंकुश मतलब अंकुआ लगाकर उसमें लबनी  अर्थात् लभनी लटकाकर पैर की फंदगी के सहारे ताड़ पर चढ़ना शुरू करते हैं. हाथ में हँसुआ होता है और कमर में  चाकू जिसको चक्कू भी कहते हैं. जब ताड़ पर ऊपर चढ़ जाते हैं तो ताड़ नर हुआ तो फूल जिसे फुल्तार मतलब बलिहा कहते हैं उसको हल्का सा चाकू से बालकर मतलब छीलकर उसमें मिट्टी की लबनी लगा देते हैं. यदि ताड़ मादा हुआ तो उसके फल मतलब फल्ला या जिसे फलतार भी कहते हैं उसको हँसुआ से छीलकर पकी मिट्टी की लबनी लगा दी जाती है. इसी लबनी में टपकता है रस. पहले तो कुछ दिन कच्ची ताड़ी उतरती है. जिसको कुछ लोग पसंद करते हैं तो कुछ को पसंद नहीं है. खंगरहवा ताड़ नया होता है,यह कच्ची ताड़ी खूब फेंकता है. जो ताड़ घऊदहा होता है वो पूरे साल ताड़ी देता है. जेठुआ ताड़ वही बसंत के मौसम में कुछ दिन ताड़ी देता है. धऊरा पेड़ की ताड़ी बरसात में होती है लेकिन अधिकतर लोग इसे सही नहीं मानते हैं. असली ताड़ी तो मिलती है गर्मी के मौसम में,कहते हैं कि अगर भोर में पेड़ से उतारी गई ताड़ी अगर सीमित मात्रा में पी जाए तो वो नशा नहीं करती है बल्कि पेट के लिए फ़ायदेमंद है. सुबह के बाद जैसे-जैसे सूरज की किरनें अपनी गर्मी बढ़ाती हैं ताड़ी में ख़मीर पैदा होता है जो हल्का नशीला होता है.  शाम के समय उतरने वाली ताड़ी ज़्यादा नशीली होती है लिहाज़ा तड़ियल नशेबाज़ शाम वाली ही अधिक पसंद करते हैं. अब सवाल उठता है कि एक पेड़ से बहुत हद से हद तीन लोटा या मान लीजिए कि चार लोटा ही ताड़ी निकलती है तो ताड़ी की दुकान सजाए लोग चार पेड़ के नीचे बैठकर कई मटके और छोटे ड्रम कैसे भरे बैठे रहते हैं. जवाब है कि वो मिलावटी ताड़ी बेचते हैं. कई तो नशे के लिए उसमें एलप्राक्स जैसी दवाएं मिलाए रहते हैं.  जिसको पीना मौत को बुलावा देना है. कई बार बासी ख़मीरा वाली ताड़ी नई से मिलकर रिएक्शन कर जाती है और ज़हरीली  हो जाती है. पीने वाले को हमेशा के लिए नरक की सैर पर लेकर चली जाती है. यूपी के आबकारी विभाग में अलग से ताड़ी निरीक्षक होते हैं,फिर भी मिलावटी ताड़ी बाज़ार में बिकती है. सरकार भी सेंधी ताड़ी को दुकानों के ज़रिए लाइसेंस देकर बिकवाती है. ताड़ी बारिश होते ही त्याग देने वाली चीज़ है,वरना बरसाती ताड़ी या खड़ताल बंझा ताड़ की ताड़ी पीने से यमराज के आने का ख़तरा बढ़ जाता है. ताड़ से सिर्फ़ ताड़ी नहीं उतरती बल्कि ताड़ का फल भी मिलता है. मेरे गाँव में मेरे पास बचपन में ख़ुद ताड़ के पेड़ थे जिसे ताड़ी उतारने के लिए तो नहीं दिया जाता था लेकिन हम ताड़ के फल ख़ूब पसंद करते थे. ताड़ के फल को छीलकर नरकट की सहायता से या लकड़ी की सहायता से फल को पेरकर उसका गूदा खाया जाता है,इस फल को ख़ूब घुमाकर और पेरकर ऐसे खाना कि गूदा निकल आए और रेशा किनारे रह जाए ये भी एक कला है. खटिया पर बैठकर नहीं खाया जाता,वरना कहते हैं कि इससे खटिया में खटमल हो जाते हैं. गूदा खाने के बाद ताड़ के बीज को ज़मीन में एक बालिश्त गहराई में दफ़न कर दिया जाता है,मौसम भर बरसात दिखाने के बाद ज़मीन से कोया अर्थात कोवा मतलब बीज निकालकर उस कोए को भी फोड़कर खाया जाता है,फिर ये ताड़ की गिरी भी बहुत स्वादिष्ट लगती है. ताड़ की तरह जंगली खजूर की भी ताड़ी उतरती है. खजूर वाली थोड़ी मीठी होती है. जो गुड़ बनाने के लिए खजूर  की ताड़ी उतारते हैं वो लबनी में नींबू की बूंदें डाल देते हैं ताकि खमीरा न उठे.

 ताड़ी के सेवन को इस्लामी नज़रिए से देखें तो ताड़ और खजूर की ताड़ी अगर ताज़ी हो तो इस्लाम में ना हराम है ना मकरूह है,क्योंकि उसमें नशा नहीं होता. अबू सईद अल ख़ुदरी रहमतुल्लाह अलैह से रवायत है कि खजूर का नबीदह तब तक हराम नहीं जब तक उसमें नशा पैदा करने वाली सिफ़त ना आ जाए. लिहाज़ा इसी खजूर के नबीदह की रोशनी में ताज़ी ताड़ी जिसमें नशा ना हो वो हराम नहीं है. ताड़ का फल भी नशे का नहीं होता लिहाज़ा उसे खाना भी जायज़ है. एक बार जब बादशाह औरंगज़ेब ने नशीली ताड़ी-शराब पर बहुत कड़ाई से रोक लगाई तो दरबार में बैठकर विदेशी यात्री मनूची से कहा कि मुझे मालूम है कि मेरे रोक लगाने के बावजूद पूरा हिंदोस्तान शराब पीता है. मुझे गर्व है कि सिर्फ़ दो लोगों को छोड़कर जिसमें मैं ख़ुद और दूसरे मेरे आदरणीय क़ाज़ी साहब अब्दुल वहाब शामिल हैं. मनूची बादशाह के सामने था इसलिए कुछ नहीं बोला लेकिन बाद में लिखता है कि औरंगज़ेब के आदरणीय क़ाज़ी साहब को तो मैं ख़ुद एक बोतल वाइनो जो एक किस्म की वाइन होती है रोज़ भेजवाता था जिसे वो बादशाह से छिपकर पिया करते थे. क़ाज़ी ने औरंगज़ेब को ख़ूब धोखे में रखा. ताड़ के पेड़ को बहुत लोग मौसम में ख़रीद लेते हैं और उससे मौसम भर ताड़ी पीते हैं,इसे पेड़ ख़रीदने को पेड़ कूत लेना कहा जाता है. कुछ बरस बरस पहले मेरे एक मित्र मौसम में हमसे कहते कि आप मेरे लिए कुछ पेड़ ख़रीद दें,बर्थ डे गिफ़्ट मत दीजिएगा. अब हम उनके लिए ताड़ के कुछ पेड़ ख़रीद देते और वो मौसम भर ताज़ी ताड़ी पीते और मछली खाते. कभी-कभार ताज़ी ताड़ी को फ़्लास्कों में भरवाकर लाते और बतौर अपना प्रसाद कह थोड़ी-थोड़ी बांटते. ताड़ी का जोड़ भुनी हुई मछली के साथ ख़ूब है और कई लोग मछली का झोल एक तरफ़ पीते जाते हैं तो दूसरी तरफ़ ताड़ी पीते जाते हैं. आज़मगढ़ शहर के पास स्थित गाँव हथिया जिसे किसी समय मिनी चंबल कहा जाता था,वजह कि वहाँ डाकुओं के तमाम गिरोह रहते,वहाँ नदी के तीरे अमरूद के बाग़ों में ताड़ के पेड़ों के ख़ूब घने दरख़्त हैं और ताड़ी उतरती है. अब डाकुओं का भी उन्मूलन हो चुका है. वहाँ हमने भोर की ताज़ी ताड़ी बरसों पहले पी थी. उसमें नशा नहीं था,ताज़ी ताड़ी दवा के रूप में होती है. इसी तरह खजूर की ताड़ी के मामले ज़िला मऊ की मोहम्मदाबाद तहसील से जो रास्ता घोसी तहसील की तरफ़ जाता है,वो इलाक़ा प्रसिद्ध है. वहाँ खजूर के ख़ूब दरख़्त हैं और सुबह खजूर की ताड़ी उतरती है. बरसों पहले एक परिचित ने अपने पेड़ से वहीं उतरवाकर खजूर की मीठी और ठंडी ताज़ी ताड़ी पेश की थी. ताड़ी को बहुत से लोग फ़्रिज में भी रख लेते हैं और फिर मछली के साथ ताड़ी का सेवन करते हैं. लेकिन ताड़ी का मज़ा तब है जब वो मिट्टी की लभनी या घड़े में हो,ताज़ी हो. ताड़ के पेड़ के बारे में मशहूर है कि अगर दोपहर में ताड़ के पेड़ के नीचे खटिया बिछा कोई सोया या बैठा है तो ताड़ का फल उसके ऊपर नहीं टपकता,ताकि सोए या बैठे व्यक्ति को चोट ना लगे,बल्कि ताड़ का पेड़ अपने फल को सोए या बैठे व्यक्ति से बचाकर गिराता है,इसलिए ताड़ और ताड़ का फल दयालु भी माना गया है. ताड़ी को देशज भाषा में तरकुलारिष्ट भी कहा जाता है. ये पोस्ट चार बरस पहले लिखी थी,आज फ़ेसबुक ने याद दिलाया तो संशोधन के साथ विस्तार दे पुन: लगायी है. मेरे कैमरे की इन तस्वीरों में ताड़ी की लबनी और घड़ा. यही पेड़ पर टांगा जाता है. ताज़ी ताड़ी भी गिलास में और लोटे में है. जब हम पिछली बार आज़मगढ़ के हथिया गाँव के बाग़ में गए थे तो यही ताड़ी ताज़ी उतरी थी. तस्वीरों में आज़मगढ़ शहर के पास हथिया गाँव में टौंस मतलब तमसा नदी के किनारे लगे ताड़ के पेड़ भी नज़र आ रहे हैं और एक तस्वीर में ताड़ के फल को लकड़ी से पेरकर ख़ास तरह से खाते हुए हमारे प्रिय सेवक पुरूषोत्तम राम जी भी नज़र आ रहे हैं. तस्वीर में ताड़ के फल भी हैं,ताड़ के फल पर क़ुदरती ताज होता है,देखिए कितना ख़ूबसूरत ताज ताड़ के फल पर है. 

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