अब फारसी भूल गए कश्मीरी पंडित !

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अब फारसी भूल गए कश्मीरी पंडित !

डा शारिक अहमद खान 

कश्मीरी पंडितों से अब फ़ारसी का नाता नहीं रहा वरना एक दौर ऐसा था जब कश्मीरी पंडितों की फ़ारसी भाषा पर ऐसी पकड़ थी कि कई जगह मुसलमान और कायस्थ भी कश्मीरी पंडितों से फ़ारसी के इल्म के मामले में उन्नीस पड़ जाते.कश्मीरी पंडितों की मातृभाषा फ़ारसी नहीं थी लेकिन ये उनके द्वारा अर्जित की गई भाषा थी.इसी फ़ारसी ज़बान में माहिर होने की वजह से कश्मीरी पंडित कश्मीर की घाटी से निकले और हिंदोस्तान के तमाम सूबों में और रियासतों में महत्वपूर्ण पदों पर क़ाबिज़ हो गए.

कायस्थ गंगो-जमन के मैदानों की एक ऐसी जाति थी जो फ़ारसीदाँ थी,कायस्थ फ़ारसी की वजह से मुग़ल दौर के प्रशासन में महत्वपूर्ण जगहों पर रहे और कायस्थ ऐसी फ़ारसी का इस्तेमाल कभी-कभार करते जो लोगों के सिर के ऊपर से निकल जाती थी,इतनी मुश्किलकुशाँ कि समझ में ही नहीं आती थी,इसी वजह से कायस्थों की फ़ारसी का ख़ूब मज़ाक़ आम लोग उड़ाया करते.कश्मीरी पंडितों ने ये कमाल किया कि फ़ारसी के मामले में कायस्थों से आगे निकल गए और धीरे-धीरे कायस्थों के हिस्से के काफ़ी पद कश्मीरी पंडितों के खाते में चले गए.हिंदोस्तान की ज़बान नहीं थी फ़ारसी,ये फ़ारस मतलब ईरान की ज़बान थी,लेकिन हिंदोस्तान में राजभाषा बनने के बाद ऐसा चलन में आयी कि हिंद की फ़ारसी ईरान की फ़ारसी से मुश्किल हो गई.यहाँ बच्चों के कोर्स में ही फ़ैज़ी नेमत-ख़ान-ए-अली और उर्फ़ी मुल्ला तुग़रा और पंजरूक़्क़ा जैसे लेखक और शायर पढ़ाए जाते थे.अब तो ना कश्मीरी पंडित फ़ारसी पढ़ते हैं ना कायस्थ जानते हैं.जब से 'पढ़ें फ़ारसी बेचें तेल' वाला मामला हुआ तब से फ़ारसी को इन लोगों ने पढ़ना छोड़ दिया.उर्दू और फ़ारसी को मुसलमानों की भाषा मान लिया गया.मुसलमानों ने कश्मीरी पंडितों और कायस्थों के फ़ारसी छोड़ने के कुछ अरसे बाद तक फ़ारसी पढ़ी लेकिन आज़ादी के बाद पैदा हुई मुसलमानों की पीढ़ी के बहुत कम लोग फ़ारसी जानते हैं.

क़ुरआन की मूल भाषा क्योंकि अरबी है इसलिए मुसलमान अरबी तो पढ़ लेता है और साथ में अच्छी हिंदोस्तानी जानने के लिए उर्दू भी पढ़ लेता है लेकिन फ़ारसी नहीं पढ़ता.ज़्यादातर वही पढ़ते हैं जिनको आगे इसमें कैरियर बनाना हो या मुसलमानों में कुछ दीनी आलिम पढ़ते हैं.हमने तो अरबी और उर्दू के साथ फ़ारसी भी पढ़ी.दीनी आलिम नहीं बनना था फिर भी पढ़ी.मेरे स्कूल में ये भाषाएं नहीं थीं,वो तो अंग्रेज़ी कान्वेंट स्कूल था,हमने घर पर पढ़ीं,उस्ताद लगाकर पढ़ीं,उस्ताद क्योंकि फ़ारसी के भी बहुत मशहूर आलिम थे लिहाज़ा उन्होंने अरबी और उर्दू के साथ फ़ारसी भी पढ़ा दी.'फ़ैज़-ए-अज़-सोहबत-ए-क़तीलम नीस्त'.हमें हिंद की फ़ारसी के स्तंभ क़तील से तो सोहबत ना हासिल रही क्योंकि वो मेरे दौर से बहुत पहले थे लेकिन अपने दौर के फ़ारसीदाँ आलिमों की सोहबत हासिल रही.फ़िराक़ साहब ने कहा है कि जिसको अच्छी उर्दू नहीं आती उसे अच्छी हिंदी नहीं आ सकती और जिसे अच्छी फ़ारसी नहीं आती उसे अच्छी उर्दू आ ही नहीं सकती.इस तरह से देखा जाए तो अच्छी हिंदी मतलब हिंदोस्तानी,मतलब वो ज़बान जो संस्कृत के शब्दों से जबरन भरी हुई हिंदी ज़बान ना हो बल्कि टकसाली हिंदी हो,उसे जानने के लिए भी फ़ारसी जानना ज़रूरी है.हिंदोस्तानी कल्चर को जानने के लिए भी फ़ारसी ज़रूरी है.वजह कि फ़ारसी में तमाम ऐसी किताबें हैं जो हिंदोस्तानी कल्चर पर हैं और उनका तर्जुमा आज तक नहीं हुआ है,जब कोई फ़ारसी जानेगा ही नहीं तो उन किताबों को पढ़ ही नहीं सकता.इतना विशाल संग्रह फ़ारसी की उन महत्वपूर्ण पुस्तकों का है कि कई दर्जन लोगों के दर्जनों गोल भी अगर दिन-रात उनका अनुवाद करें तो अनुवाद करने में दशकों लग जाएं.ये फ़ारसी में लिखी किताबें हर विषय पर हैं.इसलिए भी समझिए कि समृद्ध ज्ञानकोष को बचाने के लिए भी फ़ारसी पढ़ना कितनी ज़रूरी है.

अब मुसलमान भी धीरे-धीरे अपने बच्चों को उर्दू-अरबी और फ़ारसी से दूर करते जा रहे हैं,हिंदू तो पहले ही दूर हो गए,कुछ हिंदू अब बस ये कहते मिलते हैं कि उनके पिता-नाना-दादा फ़ारसी जानते थे,लेकिन ख़ुद वो नहीं जानते.मुसलमानों में एक वर्ग ऐसा भी उभरा है जो कहता है कि बच्चों का कोर्स बहुत होता है,मौक़ा ही नहीं मिलता कि उर्दू-अरबी-फ़ारसी पढ़ायी जाए.ऐसे लोगों से हम कहना चाहते हैं कि हमने भी वही कोर्स पढ़ा है जो आपके बच्चे आज पढ़ रहे हैं,हम भी इसी दौर के हैं,इतना ही मुश्किल कोर्स तब भी था और आज भी है,कंप्यूटर साइंस भी मेरे कोर्स में था,वही सब किताबें हर कोर्स में चलती थीं जो आज चलती हैं,माध्यम मेरा भी अंग्रेज़ी था,तब भी हमने अलग से ट्यूशन लगवा उर्दू-अरबी-फ़ारसी पढ़ी,डबल बर्डेन रहा,लेकिन सहा और पढ़ा.साथ में संस्कृत भी पढ़ी,अंग्रेज़ी भी पढ़ी,हिंदी भी पढ़ी,स्कूल के अलावा इसके ट्यूशन भी पढ़े.इसी वजह से हिंदी-संस्कृत-अंग्रेज़ी-अरबी-उर्दू-फ़ारसी के स्टैंडर्ड विद्वानों के लिखे पर हम निशान लगा बता देते हैं कि आपने कहाँ ग़लत कहा और लिखा.इसलिए ये बहाना बनाना ग़लत है कि बच्चों को बहुत पढ़ना होता है.कहना है तो साफ़ कहिए कि फ़ारसी रोटी की ज़बान नहीं है,इसी वजह से हमने भी फ़ारसी नहीं पढ़ी और ना बच्चों को पढ़ाएंगे,हमारा लक्ष्य तो बस नौकरी हासिल कर रोटी खाना रहा है,यही हम अगली पीढ़ी से भी चाहते हैं.फ़ारसी पढ़कर दुनिया को कुछ देना हो तो दूसरे दें,हम क्यों मेहनत करें.


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