जब नवाब इस क़ैसरबाग़ दरवाज़े से गए

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जब नवाब इस क़ैसरबाग़ दरवाज़े से गए

डा शारिक़ अहमद ख़ान

आज से ठीक 166 बरस पहले आज का ही दिन था,13 मार्च 1856 जब अवध के नवाब लखनऊ से कलकत्ते की तरफ़ निष्कासित हुए थे.क़ैसरबाग़ के इसी पूरबी फाटक से जब नवाब लखनऊ से गए कि उसके बाद अवध का ताज ख़त्म हो गया.तेरह मार्च का रात का वक़्त था.इशां की नमाज़ हो चुकी थी,रात का वक़्त था.नवाब आमतौर पर बूचे पर सवार होकर घूमते लेकिन जब लखनऊ छोड़ा तो बग्घी पर थे और बग्घी को नवाब के दोस्त और कानपुर में अंग्रेज़ अफ़सर रहे ब्रैंडन साहब ख़ुद हांक रहे थे.नवाब लखनऊ से कानपुर चले गए,उसके बाद आगे का सफ़र रहा.ये दरवाज़ा गवाह है वाजिद अली शाह की कूच का और उस रात में उमड़ी प्रजा का जो अपने नवाब का अंतिम दर्शन करने आयी थी.नवाब वाजिद अली शाह क्योंकि शायर थे लिहाज़ा जब लखनऊ छूट रहा था तो उन्होंने एक नज़्म पढ़ी जिसके कुछ हिस्से ये कि 

'शबे अन्दोह से रो रोकर सहर करते हैं

दिल को किस रंज में तरद्दुद से बसर करते हैं

दोस्तों शाद रहो तुमको ख़ुदा को सौंपा

क़ैसरी बाग़ जो है उसको सबा को सौंपा

दरो-दीवार पे हसरत से नज़र रखते हैं

ख़ुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं'

       प्रजा को भरोसा ज़रूर था कि नवाब को लंदन उनका ताज वापस कर देगा,लेकिन ये हो न सका.जाने-आलम कहती थी प्रजा अपने इस जोगी बादशाह को.नवाब वाजिद अली शाह लखनऊ के पहले और आख़िरी ऐसे शासक थे जो जोगी भी था.जब बसंत आता तो जाने-आलम केसरिया कपड़े पहने,हिंदू जोगियों सा भेस बनाए क़ैसरबाग़ में एक चबूतरे पर जाकर बैठ जाते और वहीं धुनी रमा लेते.उस समय प्रजा बेहिचक उनसे मिलने आती और नवाब दिल खोलकर दान करते,दुनियावी मसलों से विरक्त हो जाते.तभी प्रजा उन्हें जोगी बादशाह भी कहती.नवाब वाजिद अली शाह कानपुर से बनारस होते हुए कलकत्ते गए थे.बनारस में राजा बनारस ईश्वरी प्रसाद नारायन सिंह की नदेसर कोठी में रूके थे.जब बनारस से कलकत्ते को नवाब निकले तो होली का त्योहार कुछ दिनों में आ गया.राजा बनारस ने अपनी प्रजा से कहा कि इस बरस बनारस में होली नहीं मनायी जाएगी,हम होली कैसे मना सकते हैं जब दिल्ली के बादशाह के प्रतिनिधि अवध के ताजदार का ताज अंग्रेज़ों ने छीन लिया हो.उस बरस बनारस ने भी होली नहीं खेली थी.लखनऊ में तो प्रजा मातम कर ही रही थी,जब नवाब इस क़ैसरबाग़ दरवाज़े से गए तो अगले तीन दिनों तक लखनऊ में चूल्हे नहीं जले थे.

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