डॉ शारिक़ अहमद ख़ान
ज़ायक़े से कल्चर जुड़ा होता है. हर नियामत में रिफ़ाइमेंट नहीं आता,व्यंजन में रिफ़ाइनमेंट ना भी हो और ज़ायक़ा उम्दा हो तो भी व्यंजन एक कल्चर से जुड़कर उसकी पहचान बन जाता है. मेरी ये बात सूखी मिठाईयों मसलन हब्शी हलवे और कराची हलवे पर लागू है. सूखी मिठाईयों में वो कशिश नहीं थी जो ताज़ी मिठाईयों में होती है,नज़रों को उतनी पसंद नहीं आती थीं जितनी ताज़ी मिठाईयाँ भा जाती थीं. नज़रें ही तो पहले व्यंजन का रस लेती हैं,जब नज़रें व्यंजन को चख चुकती हैं तो मुँह उन्हें जुठारता है. फिर भी सूखी मिठाईयों ने अपने ज़ायक़े की वजह से अपना मक़ाम बना लिया और शौक़ीनों की ज़बान को भा गईं. जहाँ दूध की नदियाँ बहतीं,जो हरे भरे इलाक़े थे वहाँ ताज़ी मिठाईयाँ बनाने की रवायत थी. वहाँ मिठाईयाँ बनतीं,खप जातीं,फिर ताज़ी बन जातीं. लेकिन जहाँ दूध कम मात्रा में था,पशु कम पाले जाते,वजह कि पानी की कमी थी,हरियाली की कमी थी तो चारे की कमी थी,ऐसी जगहों पर सूखी मिठाईयाँ बनाने की दाग़बेल पड़ी.
हब्शी हलवा एक ऐसी ही मिठाई थी जो रेगिस्तानी इलाक़ों में बनने वाली मिठाई थी. जब हिंद में सल्तनत युग आया तो हिंदोस्तान की फ़ौज में भर्ती होने के लिए एशिया के तमाम क्षेत्रों से योद्धा और साहसिक आने लगे. कारवाँ आते गए,बसते गए. सल्तनत युग से पहले भी हिंद में कारवाँ आने का सिलसिला रहा और हज़ारों बरसों से कारवाँ आए और आबाद होते गए,सल्तनत युग के बाद उत्तर मुग़लिया काल तक काफ़िले आते रहे और काफ़िलों ने ख़ेमे हमेशा के लिए यहाँ लगा लिए. हर काफ़िला अपनी संस्कृति लेकर भी आया था,इसी वजह से हिंदोस्तान बहुरंगी है. जब दिल्ली सल्तनत के दौर के सुल्तानों के समय हब्शियों के कारवाँ आए तो वो अपने साथ हब्शी हलवा नाम की सूखी मिठाई लेकर आए. वजह कि वो रेगिस्तानी और सूखे इलाक़ों से आए थे,वहाँ सूखी मिठाईयों को बनाने की ही रवायत थी,ये सूखी मिठाईयाँ ज़्यादा समय तक रखने पर भी ख़राब नहीं होतीं.
हलवा फ़ारसी का शब्द है,फ़ारसी ज़बान हिंद में चलन में थी और फ़ारस के हलवे भी चलन में थे लिहाज़ा हब्शियों की लायी उस सूखी मिठाई का नाम हब्शी हलवा पड़ गया. हब्शी हलवा हिंदोस्तान के सुल्तानों की फ़ौज और मुग़लिया फ़ौज की भी पसंद बना,लंबे युद्ध और घेरे के समय,सुदूर इलाक़ों में तैनाती के समय उसे रखने में आसानी थी. आज जो कराची हलवा बनता है भले उसके मूल के बारे में कोई स्पष्ट मत ना हो,वो हब्शियों के साथ ना आया हो लेकिन हब्शी हलवे का ही भाई है या बेटा है,ये भी एक सूखी मिठाई है,इस तरह की दांतों से खींचकर खायी जाने वाली सूखी मिठाई का चलन अरब वग़ैरह के रेगिस्तानी इलाक़ों में ही था,ये हिंद में चलन में नहीं थीं. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ये तुर्की मिठाई है तो कुछ इतिहासकार मिस्र समेत दूसरी जगहों को इस हलवे का श्रेय देते हैं,लेकिन आम रवायत में कराची हलवे को हिंदोस्तान के शहर रहे कराची की ईजाद माना जाता है. कराची ज़िन्दादिल शहर था,कभी कराची शहर बादाकशों का भी स्वर्ग था,किसी का शेर इसी सिलसिले में कराची के ऊपर है कि 'पीने का शौक़ है तो कराची की सैर कर,फिरते हैं बादाकश बगल में लिए हुए'. कराची में तमाम नई खोजें होतीं,ये हलवा भी बना. कराची हलवा हब्शी हलवे का ही एक परिष्कृत रूप है. कराची से शुरू हुआ,कालांतर में बॉम्बे हलवा भी इसकी नकल पर बना. कराची हलवा सूखी मिठाई होने की वजह से सफ़र के लिए बहुत मुफ़ीद होता. कराची से इसे पैक कराकर ले जाने वाले लंबे समय तक सुरक्षित रखते. लाहौर में हलवा-पूड़ी की भी परंपरा है,वहाँ का पसंदीदा नाश्ता है. लाहौर के हलवे के बाज़ार में भी कराची हलवा आया और छा गया. ब्रिटिश दौर में स्टील के गोल डिब्बों में कराची से पैक होकर कराची हलवा पूरे हिंद में सप्लाई होता. लकड़ी के पीपों में भी पैक होकर आया करता. ब्रिटिश दौर के बाद जब पाकिस्तान बन गया तो पाकिस्तान से भी कराची हलवा आता,इसकी बहुत डिमांड थी,मशहूर हलवाई वहीं से मंगाकर बेचा करते. कराची का अहमद का कराची हलवा ख़ूब मशहूर था. आज भी गल्फ़ वग़ैरह में कराची से कराची हलवा सप्लाई होता है. बाद में जब दोनों मुल्कों हिंदोस्तान-पाकिस्तान में ताल्लुक़ात ख़राब हुए तो धीरे-धीरे कराची और लाहौर से कराची हलवा आना बंद हो गया.
फिर धीरे-धीरे हिंदोस्तान के इस इलाक़े में भी कराची हलवा बनने लगा था. दिल्ली में फ़तेहपुरी मस्जिद है,वहाँ चैना राम नाम की एक हलवाई की दुकान है,चैनाराम सिन्धी थे,उनके वंशज दुकान चलाते हैं,उनका हलवा भी मशहूर है. बंटवारे के बाद चैना राम हलवाई की दुकान ने कराची हलवे के मामले में अपना स्थान बनाया. मेरे बहुत से रिश्तेदार पुरानी दिल्ली में सदियों से रहते आ रहे पुराने दिल्लीवाले हैं. मेरे बचपन में जब वो आया करते तो उनके साथ दिल्ली के चैनाराम का कराची हलवा आया करता,हम जब वहाँ जाते तब भी ये मिठाई खाने को मिलती. वो लोग इसे सिन्धी का कराची हलवा कहा करते. छात्र जीवन में हम ख़ुद भी कई बार चाँदनी चौक फ़तेहपुरी के चैनाराम से कराची हलवा लाए. मेरे बचपन में स्कूल के पास जो टॉफी-चॉकलेट की दुकानें होतीं वहाँ भी कराची हलवा ख़ूब मिलता जो पारदर्शी पन्नियों में पैक होता. इसका नाम कराची हलवा तो सबकी ज़बान पर था लेकिन बॉम्बे और बंबई हलवा भी कहा जाता,बच्चों को लुभाने के लिए दुकानदार बंबईया मिठाई भी कहा करते,वजह कि बॉम्बे ने भी कराची हलवा बनाने में नाम कमाया. हम लोग रबड़ की तरह लगने वाले इस हलवे को दाँतों से खींचकर खाते तो ख़ूब मज़ा आता,इसे चबाने से जबड़ों की कसरत भी हो जाया करती. मिठाई की दुकानों पर मिक्स मिठाई के डिब्बों में भी पन्नी में पैक कराची हलवा नज़र आ जाता. अब मिक्स मिठाई के डिब्बों से ग़ायब होता जा रहा है लेकिन हमारे देखने में अच्छी मिठाई की दुकानों पर कराची हलवा हर ठीक-ठाक शहर-क़स्बे में हमेशा से मिलता आया है. रेलवे स्टेशनों के प्लेटफ़ार्म पर भी दुकानों पर बिकता है,बस स्टैंड पर भी,हाँ वहाँ वाला क्वालिटी का बहुत ठीक नहीं होता है.
कराची हलवा कई रंगों का होता है,गहरा ब्राउन रंग इसका पुराना रंग है. कराची हलवा बनाने में मुख्य चीज़ें हैं मक्के का आटा,घी,शक्कर और सूखे मेवे. हमें कराची हलवा अब भी पसंद है,जब सामने आ जाता है तो कई अदद शौक़ फ़रमा लेते हैं. लखनऊ में कराची हलवा ख़ूब बनता है,चौक पर कई दुकानों पर,हज़रतगंज में,गोलागंज में, लालबाग़ में और अमीनाबाद में अच्छा मिल जाता है,सबकी लज़्ज़त जुदा है,सबका अच्छा है. आज कराची हलवे के डिब्बे एक हज़रत बतौर तोहफ़ा ले आए तो हमने एक डिब्बा यहीं चैंबर में ही खोल दिया,उसी का कराची हलवा तस्वीर में है. ख़ैर,डिब्बा खोलते ही एक डिब्बा कराची हलवा लुट गया. हाँ,जिसके दांत मज़बूत और सलामत हों वही कराची हलवे को नोश फ़रमाए,वजह कि इसको चबाने में दांत का ख़ूब काम है. एक सज्जन जिनके दांत कम हैं उन्होंने भी कराची हलवा देखा तो ख़ुद को रोक नहीं पाए,कहने लगे कि डॉक्टर साहब मेरे पास दांत भी कम बचे हैं,लेकिन कराची हलवा खाएंगे,ज़रा सा चबाकर गटक जाएंगे,टेस्ट तो ज़बान लेती है,वो ले लेगी. ये कह वो कराची हलवा खा गए. कराची हलवा ज़िन्दाबाद रहे,सदियों तक मिठास घोलता रहे.
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