चला जाय लंका चाची की दुकान पर

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चला जाय लंका चाची की दुकान पर

चंचल  
 उन दिनो की बात है , कब हम ख़ाली बैठे थे और अजीबो गरीब हरकतें किया करते थे .   काका यानी राजेश  खन्ना , नयी दिल्ली से सांसद बन चुके थे , 81लोधी इस्टेट उनका सरकारी आवास था .  काका के दीवाने ख़ास मे जिनका बेरोकटोक प्रवेश रहा , उनमे नरेश जुनेजा और हम थे .  बे रोक टोक आना , महफ़िल जमाना ,  वग़ैरह वग़ैरह के अलावा   “ देखी तेरी दिल्ली ! बहुत देखी “ “ चल ! कहीं चल “  कार्यक्रम बनते, अड़ीबाज़ी होती  वग़ैरह .   
 - पुरानी दिल्ली चला जाय , बहुत दिन हुए चाँदनी चौक की चाट खाए हुए ! नरेश जुनेजा जी खाने खिलाने के निहायत शौक़ीन , यह  प्रस्ताव उन्ही का था .  हमने ऐतराज किया , असल वजह अपनी ठेठ गँवाई आदत , बाज़ार का खाना हमे कभी भी पसंद नही रहा .   हम चना , चबैना , गंगजल से उठे भी तो “ जलजोग “ तक जा बैठे  एक ठो चमचम भाई , बस .  लेकिन यहाँ नरेश जी के प्रस्ताव को ख़ारिज करने के लिए हमने काका का सहारा लिया - नरेश जी !  काहे यातना दे रहे काका को ? पिछली बार का याद  है ? चाट खाने का अजूबा अन्दाज़ ! लोग चाट खाते हैं , खड़े होकर , बैठ कर , लेकिन हमने यह नही देखा कि कोई गाड़ी मे पिछली सीट के नीचे जहाँ पैर रखा जाता  है वहाँ अख़बार बिछा कर , उस पर लेट कर चाट खाये ?  हमने किसी को नही देखा , केवल काका को देखा .  “  
काका मुस्कुराए - हाँ साहिब ! उस दिन कान पकड़ लिया ,  अब इस तरह की चाट कभी नही !  बहरहाल तय हुआ बनारस चला जाय .  बनारस की कचौड़ी और जलेबी .   
    - और ?  
  - पहले भोले बाबा के दर्शन , नज़ीर बनारसी से मिलना , असलम परवेज़ के घर  चाय , चाची के दुकान की कचौड़ी , केशव पान की दुकान पर राजेंदर से पान खाना और बाक़ी बाक़ी  बाक़ी वहीं तय हो जायगा . मलिक को सूचित  कर दिया जाय .   

   हम चार जन दिल्ली से चले , बनारस के लिए .  काका , नरेश जी , मामू और हम .  बाबा विश्वनाथ के दर्शन की ज़िम्मेवारी पड़ी दर्शन आयोजक हम लोंगो के अज़ीज़ पंडा भाई रतिशंकर मिश्र .  विधिवत दर्शन हुआ .  अब शुरू हुआ बनारस की परिक्रमा .  चला जाय  लंका चाची की दुकान पर .  गोकि हमने काका को पहले ही बता दिया था कि घबड़ाइएगा नही  , चचिया  गाली खूब देगी .  और वही हुआ .  हम ज्यों ही गाड़ी से नीचे उतरे , चाची शुरू हो गयी -“ का बे भो     के ? ई राजेश खन्ना हौ न ? ई भो     के कैसे फ़सौले रे ? “ काका हक्का बक्का .  बहरहाल वहीं दुकान के सामने सड़क पर खड़े खड़े कचौड़ी , जलेबी खाया गया .  भीड़ बढ़ती रही , चाची भीड़ को गरियाती रही , हटाती फ़ही , लेकिन कौन सुनने वाला ? विदा होते समय और गाली पड़ी जब जुनेजा जी पैसा देने के लिए पर्स खोला .  भो       के पैसा देखावट अहे ? वग़ैरह वग़ैरह .  उल्टे जब हम चलने लगे अपनी रवायत मे , चाची ने गल्ले से दस रुपए का नोट निकाला और बढ़ा दिया काका की तरफ़ - ले सिगरेट पी लिहे ! हिचकते हुए काका ने नोट पकड़ा तो उनकी गर्दन झुक गयी , काका की आँख भर आयी .  कुछ याद हो आया होगा .   
     नज़ीर साहब के घर पहुँचते ही  बाक़ी कोर कसर भी पूरी हो गयी .  नज़ीर साहब के सदर दरवाज़े पर एक  बड़ा सा तोता लटका हुआ मिला .  हम लोग को देखते ही लगा चीखने - के चूतिया हौ बे ? के चू  
      बहरहाल हम एक घंटे रहे नज़ीर सांब के साथ .  ग़ज़ब की समझ , अद्भुत ज्ञान पर अघा गया .   
     आज 25 नवम्बर को नज़ीर सांब का जनम दिन  है .   
   आज आप होते नज़ीर साहब , तो हम आपकी महफ़िल मेन बैठने की  इजाज़त लेते , अभी तो हम बस आपको नमन ही कर सकते हैं !

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