चंचल
हम अपना घर देखते हैं , घर है , सब कुछ है , सही सलामत है . वही अनंत पर जाकर खड़ी दीवारें , आसमान से भी ऊंची छत , भरपूर जगह घेरे रोशनदान , खुला हुआ दरवाजा , किवाड़ लगने की जगह और वजह तक नही है . कभी इसके दरवाजे पर एक तख्ती लटका करती थी -
' बगैर अनुमति के- पुरुष प्रवेश वर्जित है , जब तक कि उनके पास सामाजिक सरोकार से जुड़ी कीमती राय न हो .महिला मित्रों के लिए पूरी छूट है , कोई शर्त नही .'
अब अपना घर देखता हूँ तो सब कुछ है और अति संपन्न है . अपने घर के अंदर झांकता हूं तो एक से बढ़ कर एक कीमती सामान फैला पड़ा मिलता है . खुशी होती है . बाज दफे तो धोखा हो जाता है गलत घर मे तो नही घुस आया हूँ ?
पुलिस कह रही है - उतरिये मदान साहब ! आपका घर आ गया .
- ये मेरा घर नही है , हम अपने ही घर को नही पहचानेंगे ?
- इन्हें नीचे उतार दीजिये , हम इन्हें समझा देते हैं.' अब यह इन्ही का घर है . अध खुले किवाड़ का पल्ला पकड़े औरत की आवाज ने मदान साहब को मुतमइन कर दिया कि यह वाकई उन्ही का घर है , क्यों कि समझाने की बात करनेवाली जनाना आवाज उनकी बीवी की ही है .
यह उन दिनों का वाकया है जब दिल्ली पुलिस देश की बेहतरीन पुलिस मानी जाती थी , इसके ऊंचे ओहदों पर केवल वर्दी की हनक और दंड का रुआब ही नही होता था , ऊंचे ओहदों पर बैठे लोग जहीन होते थे . लेखक , चित्रकार , संगीत वगैरह में रुचि रखते थे . अदब की कद्र करते थे . उनका एक नियम था , रात में यदि कोई 'पियक्कड़ ' सड़क पर वाहन चलाते हुए मिल जाय तो ,उसके वाहन को नजदीकी थाने में रखवा दिया जाता और रात गस्त करनेवाले पुलिस वाहन से पियक्कड़ को उसके घर पहुंचाया जाता . उन दिनों दिल्ली में जो कई
' आदर्श ' अड्डे चिन्हित किये गए थे उसमे दिल्ली प्रेस क्लब अव्वल नम्बर पर था . यहाँ जिस मित्र का जिक्र किया वे थे ब्रजेश्वर मदान . कमाल का पत्रकार , बेहतरीन कहानीकार , नफीस किंतु बेपरवाह इंसान . बिल्कुल सादा बंदा . प्रेस क्लब से अक्सर वे पुलिस सहयोग से घर पहुंचते . दूसरे दिन जमुनापार से चल कर दरियागंज आते . 'सारिका ' के दफ्तर में दोस्तों के साथ किस्से कहानी पर बोलते बतियाते . फिर प्रेस क्लब . अक्सर पुलिस ही उन्हें घर ले जाती . जमुनापार जिस मोहल्ले में रहते थे वह घर एक गली में था . गलियों की एक दिक्कत होती है वे बन्द नही होती एक तरफ से जाते हुए उनका मकान दाहिने पड़ता था , पर दूसरी तरफ से आते हुए बाएं हो जाता था . मदान साहब को इसी 'दाएं' 'बाएं' में भरम रहा . इस भरम के चलते ब्रजेश्वर न बाएं के रजिस्टर में दर्ज हो सके , न दाहिने के खीसे में समा सके . और एक दिन असमय अलविदा कह कर उठ गए .
मदान के ' लेखन कला ' पर शोध होना चाहिए . डेढ़ पेज की कहानी लिखने के लिए कम से कम सौ फुल स्केप पन्ना तो चाहिए ही चाहिए . इस दमदार शख्सियत पर लेखक बिरादरी बहुत निष्ठुर रही , इसका मलाल है .
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