आप पीते नहीं हैं तो दमन मत जाइए !

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आप पीते नहीं हैं तो दमन मत जाइए !

संजय वर्मा  
आप शराब नहीं पीते हैं तो दमन मत जाइए ! लोग दमन को गोवा का छोटा भाई मानकर धोखा खा जाते हैं , पर गोवा के बीयर , बीच और बिकनी की तिकड़ी के मुकाबले दमन के साथ पास सिर्फ एक 'बी' है - बीयर ! यहां समंदर तो है मगर किनारों पर काली रेत है , जहां न धूप सेंकी जा सकती है , ना पैदल घूमा जा सकता है ; पर बीयर तो है ! सो हमने वहीं से शुरुआत की.  
पहले दिन मैंने अपने बीयर गुरु मेरे छोटे बेटे रोहन से टेलिफोनिक काउंसलिंग ली और दोपहर शाम रात अलग अलग ब्रांड आर्डर किए . शुरुआत हुई 'कॅरोना' से . रोहन ने कहा इसे नींबू की स्लाइस को गिलास पर लगाकर पिया जाता है . पर जिस सस्ते होटल में हम पी रहे थे , वहां स्लाइस कोई नहीं समझा . सो निंबू के टुकड़े को निचोड़ कर रस्म अदा की गई . फिर 'हो-गार्डन ' पी. यह व्हीट बीयर है. थोड़ी फीकी है पर अच्छी है. मेरे भाई और सहयात्री दीपक असीम का प्रिय ब्रांड 'कार्ल्स बर्ग' है , सो भाईचारे में ज्यादातर समय फिर वही पी गई. 
बीयर के अलावा दमन में तरह-तरह की मछलियां खाई जा सकती हैं , पर किसी बड़े होटल में नहीं !  फिश मार्केट से खुद जांच परख कर खरीदिये फिर लगी हुई किसी होटल से उसे तलवा लीजिए . सिर्फ दो सौ रुपये किलो में !  हमने पाम्पलेट खाया . सारी मछलियां 'खाई' जाती है पर पाम्पलेट पुर्लिंग है ! 
यहां की विस्तृत मछली बिरादरी देखकर फिशिंग के बिजनेस के बारे में जिज्ञासा हुई तो हम अगली सुबह समंदर किनारे मछली वालों  की नाव देखने चले गए . एक बड़ी नाव में 20 से 25 टन तक मछली आ सकती है . ये मछुआरे  दमन से निकलकर मुंबई ,गोआ , रत्नागिरी तक जाते हैं . एक ट्रिप दो दिन से लगाकर पन्द्रह दिन तक की हो सकती है . पकड़ी हुई मछलियों को रखने के लिए नाव में एक बड़ा सा बर्फ का चेम्बर होता है . एक नाव पर अठारह लोग जाते हैं . किसी को तनख्वाह नहीं मिलती , बटाई मिलती है . मछलियों की कुल कीमत का आधा हिस्सा नाव का मालिक लेता है . बाकी के आधे का बंटवारा इन मछुआरों में होता है . वरिष्ठता के आधार पर किसी की एक किसी की दो या  चार पाती होती है . इन दिनों कारपोरेट में एंप्लाइज के साथ प्रॉफिट शेयरिंग की बातें चलन में हैं पर इन अनपढ़ मछुआरों ने यह बिजनेस मॉडल पहले ही बना रखा है . दीपक भाई इस बिजनेस मॉडल से इतने अभिभूत हुए कि जिद करने लगे तुम अभी एक बोट खरीदो और मुझे बटाई पर दो , मैं हमेशा से मछुआरा बनना चाहता था. बोट सिर्फ दो करोड़ की थी. मैंने उनसे वादा किया शाम तक जरूर मैं इस बोट का सौदा कर लूंगा . अनुभव से मैं जानता हूं उनके इस तरह के दौरों की अवधि छः से आठ घंटे की होती है. इसके बाद वे कोई नया कैरियर ढूंढ लेंगे. 

समंदर किनारे जगह-जगह गुमटियों में लोग शराब पी रहे थे . पर उनके पीने में वैसी ही सहजता थी जैसे हमारे यहां चाय पीने में होती है. हमारे यहां मान्यता है कि शराब और अपराध में सीधा संबंध होता है,  तो एक ऐसे शहर में जहां लगभग हर आदमी लगभग हर रोज शराब पीता है वहां अपराध ज्यादा होने चाहिए . कुछ तो इस जिज्ञासा और कुछ आवारागर्दी के अपराध बोध से मुक्त होने के लिए हम इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट की भूमिका में आ गए और पास के थाने पहुंच गए . थाना साफ सुथरा और हमारे यहां के मुकाबले कम खूंखार लग रहा था . घुसते ही पहली डेस्क पर एक महिला सब इंस्पेक्टर किसी मामले को सुलझा रही थी . शायद किसी बच्चे ने अपने पड़ोसी के यहां कोई सामान चुराया था . वह जिस  संवेदना से मामले को सुलझाने की कोशिश कर रही थी उसे देख कर लगता था वह पुलिस नहीं डॉक्टर है. उसकी शक्ल मेरी एक भांजी से बहुत मिलती थी. मुझे उस पर बड़ा स्नेह आया . वह बड़ी कुशलता से ममता और कर्तव्य पालन के बीच संतुलन साधने की कोशिश कर रही थी कि बच्चे की जिंदगी भी न खराब हो और जिसका नुकसान हुआ है उसकी भरपाई भी हो जाए. मैंने सोचा पुलिस थानों को बेटियों के हवाले कर देना चाहिए . 
थोड़ी देर बाद टीआई साहब ने हमको बुलाया . वह हमारा सवाल सुनकर पहले तो खूब हंसे , फिर उन्होंने बताया यहां पर हर किसी का कोटा फिक्स है जिसे तीन पैग पीना है वह तीन ही पीता है , चार वाला चार. और पीकर वे चुपचाप घर जाकर सो जाते हैं. शराब की वजह से कभी कोई अपराध हुआ हो ऐसा यहां नहीं होता . 

तो फिर क्या शराबबंदी के लिए जो दलीलें हमारे यहां दी जाती हैं ,गलत हैं ? भाई दीपक असीम का मानना है कि सरकार को अच्छी क्वालिटी की शराब सस्ते दामों पर उपलब्ध करानी चाहिए ! घटती सामाजिकता और खत्म होते सांस्कृतिक जीवन को बचाने का यही उपाय बचा है .  मगर हम उल्टा करते हैं शराब पर टैक्स लगाकर उसे आम आदमी की पहुंच से बाहर कर देते हैं ,फिर वह घटिया शराब पीता है बीमार होता है , या नहीं पीता और डिप्रेशन का मरीज बन कर मनोचिकित्सक के पास पहुंच जाता है , फिर वही नशा डॉक्टर उसे गोलियों की शक्ल में देता है. इस तरह नशे का एक चक्र पूरा होता है.  

जब हमें यह पता लग गया कि अपराध और शराब में कोई संबंध नहीं है तो हमने सोचा यहां के अस्पताल में जाकर पता करना चाहिए कि शराब से जले सड़े लीवर वाले कितने मरीज आते हैं ?  पर थानेदार की बातों ने हमारे मन मे बीयर के प्रति ऐसी श्रद्धा उत्पन्न कर दी थी कि हम लगभग छलांग लगाते हुए पास के एक अहातेनुमा बार में लैंड कर गए .  
हमें वेटर ने जिस टेबल पर बिठाया वहां पहले ही एक पियक्कड़ बूढ़ा बैठा था . वह हमसे एक किंगफिशर स्ट्रांग आगे चल रहा था , सो हमें मेहनत नहीं करनी पड़ी . वह खुद ही खुल गया .  उसने बताया वह एक रिटायर्ड इंस्पेक्टर है और इस बार में दिन में बैठकर अक्सर बीयर पीता है . फिर उसने एक बियर का लंबा घूंट भरा और कहा-  "मैं आप लोगों के मुकाबले बहुत 'हायर' हूं...".  हम  समझे वह नशे के क्षेत्र में आगे होने की बात कर रहा है , पर उसने स्पष्ट किया कि वह मानता है कि जिंदगी के हर मामले में उसकी समझ 'हायर' है . हमने उसे और सम्मान देना शुरू किया . अचानक उसने कहा - मुझसे कोई सवाल करो ! शायद उसके भीतर आध्यात्मिक गुरु बनने की कोई दबी हुई महत्वकांक्षी थी जो हमारे सम्मान के ईंधन से भभक उठी थी . मैंने बीयर के हल्के सुरूर के सहारे खड़े होकर पूछा- गुरुदेव मेरी एक समस्या है , मैं यदा-कदा वाला हूं , फिर भी मेरी घरवाली मुझसे झगड़ा करती है . आप नियमित रूप से प्रातः  , दोपहर संध्या करते हैं , आपने क्या मंत्र फूंका है , वह मुझे भी सिखाइए .  
उसने मुझे सचमुच सिखाना शुरू किया कि बीवी को किस तरह काबू में रखा जाए पर तब तक हमारा स्कोर भी डेढ़ डेढ़ बीयर हो गया था . हमारी जिरह ने जल्दी ही उसके पैर उखाड़ दिये . वह रोने लगा , बोला मैं बहुत दुखी हूं , मेरी बीवी भी दिन रात मुझसे झगड़ती है . हमारे बीच भाईचारा उस बार की कच्ची छत फाड़ कर आसमान छूने लगा . पर भाईचारे की कीमत होती है. उसे एक बीयर हमें अपनी तरफ से पिलानी पड़ी . शुक्र है दमन में किंगफिशर स्ट्रॉन्ग सिर्फ सौ रुपये की थी . सौदा महंगा नहीं था . 

दमन के बारे में मेरी सबसे बड़ी जिज्ञासा थी-पुर्तगालियों का शासन ! भारत पर राज करने वालों की कहानियां मुगलों से शुरू होकर अंग्रेजों पर खत्म हो जाती हैं . पर पुर्तगालियों ने तो भारत के इस हिस्से पर 400 साल से ज्यादा राज्य किया . वे  1559 में आए और 1961 में गए . पर अजीब बात है कि हमारे पास अंग्रेजो के खिलाफ हुए स्वतंत्रता संग्राम की अनगिनत कहानियां  हैं ,  पर उस दौरान गोवा दमन दीव में क्या चल रहा था हमें नहीं पता ? क्या पुर्तगालियों के संबंध अपनी प्रजा से इतने अच्छे थे कि भारत के आजाद होने के 15 साल बाद तक भी कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ ? इस बारे में  अलग-अलग बातें हैं . हम जिस होटल में ठहरे थे वहां का मालिक एक पारसी बूढ़ा था. उसने कहा-  पुर्तगालियों ने यहां के लोगों का बहुत ध्यान रखा. यहां तक कि गर्भवती महिलाओं और बच्चों को कुपोषण से बचाने के लिए एक अलग विभाग था ,जो मुफ्त में पुर्तगाल से चीज़ , दूध के पैकेट बुलाकर बाँटता था.  शादियों का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य था . इस सर्टिफिकेट की बिना पर गोवा दमन दीव के रहवासियों को पुर्तगाल की नागरिकता मिल जाती थी . यह सिलसिला उनके लौट जाने के बाद भी चलता रहा और यहां के कई गरीब मछुआरे वहां जाकर करोड़पति हो गए . 
पता नहीं बूढ़े की बातों में कितनी सच्चाई है. पर पुर्तगालियों और अंग्रेजों में फर्क तो था. अंग्रेज व्यापार बुद्धि वाले थे , जबकि पुर्तगाल साहसी एडवेंचर पसंद मल्लाहों का देश था . वे इलाके जीतना तो जानते थे पर उन्हें अंग्रेजों की तरह वहां से लाभ कमाना नहीं आया . उनकी ज़्यादातर कॉलोनियां घाटे का सौदा रहीं . वे दिन रात शराब पीकर गाने बजाने में मस्त रहने वाले लोग थे. आज हम गोवा दमन दीव के लोगों की जो मस्त मौला जिंदगी देखते हैं वो शायद पुर्तगालियों के साथ रहने का असर है . हिंदुस्तानियों को जैज़ म्यूजिक और वेस्टर्न इंस्ट्रूमेंट्स सिखाने में पुर्तगालियों का बड़ा योगदान है . 
पर कुछ लोग कहते हैं पुर्तगाली बुरे और क्रूर थे इसलिए उनका विरोध करने का साहस कोई नहीं जुटा पाता था . उन्होंने जबरिया धर्म परिवर्तन भी कराया . अंग्रेजों की नीति थी जहां राज करो वहां के धार्मिक सामाजिक मामलों में दखल मत दो . ज्यादातर अंग्रेज अधिकारी प्रोटेस्टेंट ईसाई थे जो धर्म के मामले में उतने रूढ़िवादी नहीं होते , जबकि पुर्तगाली रोमन कैथोलिक थे और धर्म को लेकर के ज्यादा गंभीर . पर फिर दमन में ईसाइयों की संख्या तीन अंको में ही क्यों है ? 
पुर्तगालियों की दिलचस्पियां अंग्रेजों से अलग थी , इस बात का पता यहां की इमारतों से भी लगता है . कोलकाता और मुंबई में अंग्रेजों की बनाई इमारतों के मुकाबले यहां कोई ऐसी काबिले तारीफ इमारत नहीं है . एक टूटा फूटा किला है जिसमें अब सरकारी दफ्तर लगते हैं . वे यहां चार सौ साल रहे , मगर उनका कोई  निशान बाकी नहीं है सिवाय यहां की भाषा पर उनके असर के . 
पता नहीं वे दोस्त बन कर रहे या दुश्मन ,जो भी हो  उनके बारे में हमें उससे ज्यादा जानना चाहिए जितना हम जानते हैं . 

बहरहाल मजा रहा . तीन दिन हंसते बहकते बीते .संजय वर्मा की फ़ेसबुक वाल से साभार 

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