दिनकर की दुनिया

गोवा की आजादी में लोहिया का योगदान पत्रकारों पर हमले के खिलाफ पटना में नागरिक प्रतिवाद सीएम के पीछे सीबीआई ठाकुर का कुआं'पर बवाल रूकने का नाम नहीं ले रहा भाजपा ने बिधूड़ी का कद और बढ़ाया आखिर मोदी है, तो मुमकिन है बिधूड़ी की सदस्य्ता रद्द करने की मांग रमेश बिधूडी तो मोहरा है आरएसएस ने महिला आरक्षण विधेयक का दबाव डाला और रविशंकर , हर्षवर्धन हंस रहे थे संजय गांधी अस्पताल के चार सौ कर्मचारी बेरोजगार महिला आरक्षण को तत्काल लागू करने से कौन रोक रहा है? स्मृति ईरानी और सोनिया गांधी आमने-सामने देवभूमि में समाजवादी शंखनाद भाजपाई तो उत्पात की तैयारी में हैं . दीपंकर भट्टाचार्य घोषी का उद्घोष , न रहे कोई मदहोश! भाजपा हटाओ-देश बचाओ अभियान की गई समीक्षा आचार्य विनोबा भावे को याद किया स्कीम वर्करों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न क्या सोच रहे हैं मोदी ?

दिनकर की दुनिया

प्रेमकुमार मणि 
आज 23  सितम्बर कवि दिनकर ( 1908  -1974  )का जन्मदिन है . कल 24 को  उनके जन्मस्थान सिमरिया में आयोजित एक जलसे में मुझे भाग लेना है  . कल सुबह प्रस्थान करूँगा . लेकिन दिनकर किसी न किसी रूप में आज दिन भर दिल -दिमाग पर छाये रहे . वह हमारे बिहार के ऐसे संस्कृति पुरुष थे ,जिन्होंने पिछली सदी में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी  पहचान बनाई थी . उन्हें राष्ट्रकवि माना गया . सम्मान की उन्हें कभी कमी नहीं रही . लेकिन उनका जीवन बहुत सुखी था, नहीं कहा जा सकता .  
         दिनकर जी पर जब कभी सोचा, विचार किया है , हैरान हुआ हूँ . उनके जीवन में इतने अंतर्विरोध थे जिसकी कल्पना मुश्किल है . सिमरिया के एक मामूली  किसान परिवार में जन्मे इस कवि की दुनिया विचित्र थी . वह उस दौर में हुए जब राष्ट्रीय आंदोलन उभार पर था . किन्तु इस संघर्ष में उनके शामिल होने की कोई सूचना नहीं मिलती . कवि के सपनों में राष्ट्र रहा किया ,लेकिन वह स्वयं अपने घर -परिवार की माया से कभी मुक्त नहीं हो सके  . उस परिवार को पालने केलिए चाकरी करते रहे ,जो हमेशा उनके लिए जंजाल बना रहा . चाकरी से मुक्त हुए तब प्रोफ़ेसर बनाये गए और फिर राजयसभा सदस्य . लेकिन उनकी मुश्किलें कम नहीं हुई . परिवार की पीड़ा से वह कभी मुक्त नहीं हुए . 

दिनकरजी ने आत्मकथा नहीं लिखी . उनकी डायरी के पन्ने , पत्र और उनपर लिखे गए संस्मरण कुछ बतलाते हैं . उनका  एक पत्र उनकी स्थिति  का थोड़ा साक्ष्य देता है . इसी पर केंद्रित होना चाहूंगा . यह पत्र उन्होंने  अपने एक अंतरंग मित्र जो उन दिनों अमेरिका में थे ,को वर्ष 1953 में लिखा है . 2008 में मैंने दिनकर जन्मशती पर एक पत्रिका का विशेषांक सम्पादित किया था . यह पूरा  पत्र उसमे प्रकाशित है  .  

पत्र 14  -8  -1953  को चौधरी टोला ,पटना से लिखा गया है . शुरूआती क्षेम -समाचार के बाद लिखते हैं -" अब कुछ मेरी भी कथा सुनो . इस साल अगहन से लेकर आषाढ़ तक दो भतीजियों की शादी की झंझट में रहा . पहले वर खोजने में ,पीछे ब्याह की तैयारी में . नौकरी छोड़ कर संसद मेंआया ,आमदनी जाती रही .इस बीच गंगाजी ने भी  कृपा की और पंद्रह बीघे जमीन कट गयी .यह जमीन सबसे अच्छी थी . छोटे साहब की स्त्री ने इतना कोहराम मचाया कि तीन साल पहले मेरी अनुपस्थिति में ही घर पर बंटवारा हो गया और मजा यह कि दोनों भाइयों ने एक -एक  बेटा पढ़ाने केलिए मेरे मत्थे फेंक दिया और बेटियों के ब्याह भी . ब्याह में छोटे भाई ने कुछ रुपये दिए .तरह -चौदह हज़ार का प्रबंध मुझे करना पड़ा .ज़िंदगी में पहले -पहल कर्ज़दार होना पड़ा है . क़र्ज़ पाप है और उस से  प्रतिभा  कुंठित हो जाती है . " 

समकालीन साहित्यकारों से वे कम परेशान न थे . उन्ही से सुनिए -" लोग समझते हैं कि मैं मंत्री बनने को ही नौकरी छोड़ कर दिल्ली आया हूँ . और इस प्रवाद को फैलाने में सर्वाधिक हाथ पितृवत पूज्य ,परम श्रद्धेय राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण जी को है . वे संसद मेंआ गए ,यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार था , मैं गरीब क्यों आया , इसका उन्हें क्रोध है . सच कहता हूँ ,जन्म भर गुप्तजी पर श्रद्धा सच्चे मन से करता रहा हूँ ….मगर फिर भी यह देवता कुपित है और इतना कुपित है कि छिप  -छिप कर वह मुझे सभी भले आदमियों की आँखों से गिरा रहा है . "  
" बेनीपुरीजी भी नाराज़ थे ,क्योंकि वे खेत चरना चाहते थे और मुझ से यह उम्मीद करते थे कि मैं लाठी लेकर झाड़ पर घूमता रहूं ,जिस से कोई खेत वाला भैंस को खेत से बाहर नहीं करे . और भी दो -एक मित्र अकारण रुष्ट हैं . और यहां की विद्वत्मण्डली तो पहले जाति पूछती है . सबसे दूर ,सब से अलग , आजकल सिमटकर अपने घर में घुस गया हूँ . बिहार नष्ट हो गया ,इसका सांस्कृतिक जीवन भी अब विषाक्त है .अब तुम जाति की सुविधा के बिना यहां न तो कोई दोस्त पा सकते हो , न प्रेमी , न प्रशंसक और न मददगार .जय हो यहां की राजनीति की .  और सुधार कौन करे ? जो खड़ा होगा उस पर एक अलग किस्म की बौछार होगी . मेरा पक्का विश्वास है कि बुद्ध यहां नहीं आये थे . ,महावीर का जन्म यहां नहीं हुआ था . यह सारा इतिहास गलत है  . साहित्य का क्षेत्र यहां बिलकुल गंदा है . 'पंडित सोइ जो गाल बाजवा भी नहीं ' यहां का साहित्यकार वह है ,जो टेक्स्टबुक लिखता है . बेनीपुरी रुपये कमाते -कमाते थक गया ,आजकल मूर्छा से पीड़ित रहता है . चारों ओर का वातावरण देख कर मैं भयभीत हो गया हूँ . . चारों ओर रेगिस्तान है ,कैक्टस लैंड का विस्तार है . "  
"  अब फिर घर का हाल सुनो . रामसेवक इस वर्ष एम ए देने वाले थे ,मगर ऐन परीक्षा के दिन नर्वस होकर बीमार हो गए . उनमें  पराक्रम अब तक नहीं जगा . श्रीमती आधी जान की हो रही हैं और जो पतोहू आयी है उससे काम नहीं लेकर खुद मरी जा रही है .लाख सुधारना चाहा ,मगर घर की हालत  सुधरती नहीं  . भगवान अब मुझे उठा ले तो अच्छा है  . …. लोग मेरी हड्डी -पसली चबाकर खा जाना चाहता है और ऐसी अवस्था में मैंने नौकरी छोड़ने की गलती की . गलती की तो क्या करें ? नौकरी तो प्रचार विभाग में ही छोड़ दी थी .जब सरकार  ने शिक्षा विभाग का ऑफर भेजा ,दोस्तों ने सलाह दी 'देखो इसमें शायद जी लग जाये . लेकिन कॉलेज में तबियत लगकर भी नहीं लगी . वहां भी जातिवादियों का जाल था वहां भी अपमानजनक बातें सुनने में आयीं . वहां भी ईर्ष्या द्वेष और मलिनता का सामना करना पड़ा . साथ ही ,यह भी भासित रहा कि कविता की सब से अच्छी कब्र कॉलेज ही है .कविता को बचाने केलिए वहां से भागने को तो पहले ही तैयार था ,जब कांग्रेस का ऑफर आया मैं नौकरी छोड़कर संसद में आ गया . अब मैथिलीशरण और अर्थाभाव ,ये दो संकट झेल रहा हूँ और बाहर लोग अब भी काफी अमीर समझते हैं . खुद घरवाले सोचते हैं अभी इस बिल में और नहीं तो पचीस -पचास हज़ार तो जरूर होंगे . "  
इन स्थितियों में एक कवि ने किस तरह अपनी चेतना को बचाया होगा ,इसका अनुमान करना अधिक मुश्किल नहीं है . ' संस्कृति के चारअध्याय ' में उन्होंने एक बड़े विमर्श को सामने रखने का प्रयास किया है . लेकिन जितना अच्छा होना चाहिए था ,वह हो नहीं सका है . उनकी मेधा पर विचार करता हूँ तब हैरानी होती है . कौन -सी चीज थी जिसने उन्हें टैगोर की ऊंचाई तक नहीं पहुँचने दिया . मैं समझता हूँ ,यह बिहारी  समाज और घर -परिवार . लम्बे समय तक इस ओजस्वी गायक को न साहित्यिक वातावरण मिला ,न प्रतियोगी . तुकबन्दीकारों की दुनिया में वह वाह -वाह के झूले पर देर तक झूलते रह गए . उनसे वह आत्मनिर्वासन संभव न हो सका ,जो उनके लिए अपेक्षित था . 
अज्ञेय ने उन पर जो स्मृति लेख लिखा है ,वह प्रथमदृष्टया कटु प्रतीत होता है . अज्ञेय के अनुभव होंगे ,उनकी प्रतिक्रिया है . उस पर कोई निर्णय मैं कैसे दे सकता हूँ ;लेकिन दिनकर के अंतर्मन को उस स्मृतिलेख से समझा जा सकता है . दिनकर को प्रशस्ति खूब मिली और उनकी निन्दा भी पर्याप्त हुई ;किन्तु उनपर सम्यक -अध्ययन -विवेचन आज भी अपेक्षित है . मेरी कामना है उनके इलाके में उनके नाम पर एक विश्वविद्यालय की स्थापना हो .यह विश्वविद्यालय उनके विचारों के अनुरूप बने . स्त्री और दलित उनकी वैचारिकता के केंद्रीय तत्व हैं . इसी केंद्र पर उनका राष्ट्र भी है . कोशिश हो कि उस विश्वविद्यालय में पचास फीसद महिलाएँ हों ,छात्र और शिक्षक दोनों स्तरों पर . यह उनके लिए सबसे उपयुक्त श्रद्धांजलि होगी .

  • |

Comments

Subscribe

Receive updates and latest news direct from our team. Simply enter your email below :