मैंने लाहौर देख लिया

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मैंने लाहौर देख लिया

सतीश जायसवाल 
असगर वज़ाहत समकालीन भारतीय कहानीकारों में एक बड़ा नाम बड़ा है. मैं उनका एक बड़ा प्रशंसक हूँ. लेकिन उनको इसका पता नहीं होगा. उनके तो कई प्रशंसक होंगे. हम समकालीन भी हैं. साठोत्तरी कहानी समय के. लेकिन उनको इसकी भी खबर नहीं होगी. उनके समकालीन भी बहुत होंगे. लेकिन उनको इस बात का पता जरूर होना चाहिए कि उनके " जिन लाहौर नईं वेख्या,वो जम्याइ नईं.." ने तो मेरा जन्मना ही अकारथ कर दिया होता, अगर मैंने लाहौर नहीं देखा होता. अच्छा हुआ कि मैंने लाहौर देख लिया. और अब बता सकता हूँ कि असगर साहब, मैंने लाहौर देख लिया. असगर वज़ाहत ने नाटक भी लिखे हैं. "जिन लाहौर नईं वेख्या,वो जम्याइ नईं.." उनका ही नाटक है. 

समकालीन भारतीय नाट्यकारों में हबीब तनवीर का नाम भी बड़ी ऊँची जगह पर है. उनके साथ तो मेरी कभी-कभार की मेल-मुलाकात और बातचीत भी रही है. हबीब तनवीर ने असगर वज़ाहत के नाटक " जिन लाहौर नईं वेख्या '' को हिंदी नाट्य मंच पर प्रस्तुत किया. 

-- जिन लाहौर नईं वेख्याँ .. के नाट्य मंचन को समकालीन भारतीय साहित्य के लेखा-जोखा में एक असाधारण घटना की तरह दर्ज़ किया जाना चाहिए था. असगर वज़ाहत के नाटक का हबीब तनवीर के निर्देशन में मंचित होना एक असाधारण घटना थी. लगभग वैसी ही असाधारण थी जैसे मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर सत्यजित रे के निर्देशन में ''शतरंज के खिलाड़ी'' का फिल्मांकन. 

हमारे यहां साहित्य और विभिन्न कला अभिव्यक्तियों के अंतरावलम्बन पर अभी वैसे ध्यान नहीं दिया जा रहा है,जैसा दिया जाना चाहिए था. किसी एक कहानी या नाटक  के ज़रिये अपने समय के दो बड़े नामों का किसी एक मंच पर मेल-मिलाप एक असाधारण घटना होती है. नाट्य मंचन या फिल्मांकन की ऐसी असाधारण घटनाओं को और इनके पारस्परिक संयोगों को ऐसे ही देखा और दर्ज़ किया जाना चाहिए. "जिन लाहौर नहीं वेख्या..." को भी ऐसे ही देखा जाना चाहिए. और लाहौर को भी. 
अब मैंने लाहौर देख लिया और लाहौर देखकर अपने होने को सत्यापित भी कर लिया. 
 
लाहौर पहुँचने से पहले मैं एक गंभीर अंतर्द्वंद्व में था कि लाहौर को मैं कैसे देखूंगा ? जैसे पंडित चन्द्रधर शर्मा ''गुलेरी'' का --" उसने कहा था " या नानक सिंह का -- "पवित्र पापी" या भीष्म साहनी के -- "अमृतसर आ गया' की तरह ? या फिर मन्टो का या खुशवंत सिंह का या असगर वज़ाहत का यह लाहौर. लेकिन लाहौर पहुँचने पर मैंने पाया कि मैं अपने अंतर्द्वंद्व से बाहर निकल चुका हूँ और बस की खिड़की से बाहर सचमुच का लाहौर अपने पूरे फैलाव में मेरे सामने से गुजर रहा है. यह लाहौर, लाहौर जैसा है. उसके अपने जैसा. 
लाहौर बाग़-बगीचों का शहर है. यह असल में भी है और रूमान में भी है. सर्दियों के इस समय में दिसंबर महीने के पहले हफ्ते की रात सज-संवर कर सैर को निकली हुयी थी. या अभिसार के लिए निकली थी ? 

शहर के बाहरी किनारों को छूकर निकल रही चौड़ी, चिकनी सडकों पर हाई-मास्ट रोशनियों की परछांइयां उपक रही थीं. और सड़क के दोनों बाजुओं में हरियाली नज़र आ रही थी. यह -हरियाली पेड़ों से उतर रही थी. और जमीन पर बिछी हुयी घास की भी थी, जिस पर ओस पड़ रही थी. इस तरफ सारा का सारा मद्धिम रौशनी में ताक-झाँक कर रहा था. और मद्धिम रोशनी पर पड़ रही ओस की नमी से वहाँ नीली झांई सी लहरा रही थी. वह सचमुच के इस शहर को रूमान में बदल रही थी. 
यह कल्पना सचमुच रूमानी थी कि मद्धिम रौशनी में जिस हरियाली को और उसमें उठ रहे फ़ौव्वारोँ को अपनी बस की रफ़्तार के पीछे छोड़कर हम यहां से निकल रहे हैं वहाँ प्रेमी जोड़ों के लिए अभिसार के उपयुक्त झुरमुट भी होंगे. और शायद प्रेमियों के कुछ जोड़े अभी उन झुरमुटों में मौजूद भी हों. 
सिकन्दरिया शहर में, समुद्र के किनारे प्रेम की देवी ''एफ्रोदिते'' का मंदिर बताया जाता है. और बताया जाता है कि मिथकीय-इतिहास के दिनों में यहां, शामों को सुन्दरियां सज-संवर कर अभिसार के लिए निकलती थीं. इन सुंदरियों के आकांक्षी प्रेमी-जन मंदिर की दीवारों पर अपने नाम के साथ अपनी आकांक्षिणी के नाम लिखकर प्रतीक्षा किया करते थे. सज-संवरकर अभिसार के लिए निकली वो सुन्दरियां विदुषियां होती थीं और कला-प्रवीणाएं भी. 
कोलकता की गणिकाओं के लिए भी ऐसा ही कहा जाता रहा है. कवि-कथाकार श्रीकांत वर्मा ने तो अपनी डायरी में एक जगह लिखा है कि, अब कोलकता में अच्छी वेश्याएं भी नहीं मिलतीं. उन्होंने वेश्याएं क्यों लिखा, समझ में नहीं आया. लेकिन सभ्य समाजों में किसी ना किसी रूप में प्रेम की जगह होती थी. प्रेमिकाओं की जगह भी.और लाहौर एक सभ्य और पारम्परिक शहर है. इसलिए यहां भी प्रेम के लिए जगह मौजूद होगी.जारी 

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