चंचल
अभी कल तक साहित्य निखालिस साहित्य था .किसी तरह का कोई बटवारा या वर्गीकरण नही हुआ था .अचानक दिल्ली में एक हवा चली , जुबानी जमा- खर्च की जुगाली का . कहा गया अदब को करीने से सजाया जाए , लोंगो को सहूलियत हो कि किताब की जिल्द पर छपे नाम से पता चल जाय कि इस जिल्द ने किस मजमून को ढंक रखा है ? पहली लकीर खींची गई , लिंग पर - महिला लेखन / पुरुष लेखन .पाठक चौंका - कल तक तो ये नही था - महादेवी वर्मा , महास्वेता देवी अनेकों नाम हैं ,ये महज अदब तक ही महदूद रहे और इनका आकलन लेखन , और युगबोध से होता रहा ।इन्हें महिला लेखन की हद में रख कर हम अदब को बेहुर्मत नही कर रहे ? इतने में संतोष नही हुआ तो क्रांति का मुलम्मा लीपा जाने लगा - प्रगतिशील लेखक . यह क्या होता है ? हर लेखक प्रगतिशील है शेष बुझझक्कड़ी करनेवाले कलम घिस्सुओं को लेखक ही नही माना जाना चाहिए ।प्रतिक्रियावादी लेखन, अदब में आता ही नही , वह पोंगापंथ का प्रचार पर्चा भर होता है . प्रगतिशीलता मजमून, विषय , विधा और शैली से तय होती है, पार्टी के ठप्पे से नही .मुंशी प्रेमचंद , हजारी प्रसाद द्विवेदी , धर्मवीर भारती , फणीश्वरनाथ रेणु , रघुवीर सहाय , सर्वेश्वर दयाल सक्सेना , गुलशेर खान शानी वगैरह प्रगतिशील या जनवादी नही हैं, इनके खीसे में प्रगतिशील या जनवाद की रसीद नही है , लेकिन लेखक हैं .
समाज के स्खलन के साथ अदब भी टूटता रहा .इस कुटुम्ब रजिस्टर में और भी शाखाएं खुल गयी- दलित साहित्य (?) दलित का भाव क्या है .दलित साहित्य मजमून से दलित है कि लेखक दलित है ? मुंशी प्रेमचंद , यू आर अनन्तमूर्ति , रेणु , दलित मजमून की रवादारी का अपना अलग का अंदाज रखते हैं .लेकिन दलित साहित्यकार की सूची में नही है , लेकिन लेखक हैं , जहां मजमून में दलित से परहेज नही है , क्योंकि ये लेखक हैं
अदब की बखरी, कितना और तकसीम होगी , अमलबरदारो अब तो चुप रहो , बच्चों को लिखने दो .
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