चंचल
हम जिस गाँव को छोड़ कर , शहर गए थे शहर कमाने , गच्चा खा गए . शहर दो होता है . अगवार और पिछवार . अगवार ललचाता है , अफगान क्रीम और हिमालय पावडर से पुता चेहरा , माथे पर लटकी मोहक गदरायी मुग्धा के अधखुले बदन का साइनबोर्ड, मद्धिम स्वर में गुनगुनाता है - रुक जाए रे रुक जा , यहीं पे कहीं ' और कदम ठिठक जाता है , खुद ब खुद . चीखते समंदर के सामने पसरी रेत पर मचलती नवयौवना का आराम गाह कमाठीपुरा की खुली मोरी पर बिछी खटिया है , कहकर आप शहर की असल असलियत में उनको छुपा रहे हैं , जिसमे बाबू अकबाल सिंह दिनरात जगत भाई के तबेले में गोबर काढेंगे , तेलीवाली गली के चाल में पांचू भगत के साथ हतपोइया रोटी सकेंगे और जब मुलुक जाने लगेंगे तो बीवी के सिंगार पटार की सामग्री के साथ शहर के अगवार का चमकता अक्स भी लेते चलेंगे . वीटी से चढ़े बाबू अकबाल सिंह और पांचू भगत की गठरी कब अलग होकर एक दूरी पर खड़ी हो गईं, पता ही नही चला . इलाहाबाद के हाल्ट छिंउकी पर उतरते ही अकबाल, अचानक गांव के लम्मरदार के नाती हो गए और पांचू खानदानी हलवाहा .
कम्बखत समाजशास्त्र चुप है - पिंकी , अकबाल और पांचू का पिछवार कब और कैसे अगवार बन जाता है , या हम दोगली जिंदगी के बेवस समाज बन चुके हैं ?
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