श्रीलंका को लेकर क्या हमें भी डरना चाहिए ?

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श्रीलंका को लेकर क्या हमें भी डरना चाहिए ?

श्रवण गर्ग

जनता द्वारा बर्खास्त कर दिए जाने के बाद श्रीलंका से भागकर मालदीव के रास्ते सिंगापुर पहुँचने वाले 73-वर्षीय पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे का कोलम्बो में समुद्र किनारे बना विशाल शासकीय निवास इन दिनों उनके देशवासियों की अतृप्त आकांक्षाओं का पर्यटन स्थल बना हुआ है.  औपनिवेशिक काल के दो सौ साल पुराने इस राष्ट्रपति भवन को देखने पचास किलोमीटर यात्रा करके पहुँचे बौद्ध भिक्षु सुमेधा की पहली प्रतिक्रिया यह थी कि : ‘इस तरह के सुविधा-सम्पन्न आलीशान भवनों में निवास करने वाले नायकों को जानकारी नहीं होती कि आम आदमी अपनी ज़िंदगी किस तरह बसर करता है !’

गोटाबाया के भव्य भवन को देखने लोग दूर-दूर से पहुँच रहे हैं.  इनमें एक बड़ी संख्या में वे बौद्ध भिक्षु भी हैं जिनका राजपक्षे सरकार को समर्थन प्राप्त था.  लोग क़तारें बनाकर राष्ट्रपति भवन में प्रवेश कर रहे हैं.  वहाँ निर्मित विशाल तरण पुष्कर (स्वीमिंग पूल) में स्नान कर रहे हैं, आरामदेह पलंगों पर विश्राम कर रहे हैं, राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठ पाने का स्वप्न पूरा कर रहे हैं, उनके रसोई घर में भोजन पका रहे हैं और उनका पियानो बजा रहे हैं.  लोग देखकर दंग हैं कि श्रीलंका की जनता जिस समय खाने-पीने की सामग्री, दवाओं, ईंधन जैसी दैनन्दिन की ज़रूरतों को लेकर सड़कों पर संघर्ष कर रही है, उनके नेता किस तरह की अय्याशी का जीवन जी रहे हैं. 

दुनिया भर में शासकों को सत्ता के छिन जाने के क्षण तक यही भ्रम बना रहता है कि जनता उन्हें किसी भी अन्य नेता की तुलना में सबसे ज़्यादा मोहब्बत करती है.  तानाशाहों में इस तरह की ख़ुशफ़हमी ज़्यादा रहती है.  महेंद्र राजपक्षे के शासनकाल के दौरान 2009 में गोटाबाया के नेतृत्व में जब श्रीलंका की सेनाओं ने तमिल पृथकतावादियों का नृशंसतापूर्वक ख़ात्मा कर दिया तो राजपक्षे परिवार की तानाशाही और बढ़ गई.  समूचे तंत्र पर राजपक्षे परिवार का क़ब्ज़ा हो गया.  (गोटाबाया राजपक्षे राष्ट्रपति, भाई महिंद्रा राजपक्षे प्रधानमंत्री, भाई बासिल राजपक्षे वित्त मंत्री, चामल राजपक्षे कृषि मंत्री और नामल राजपक्षे खेल और युवा मामलों का मंत्री )

राजपक्षे परिवार ने तमिल उग्रवादियों और अन्य राजनीतिक विरोधियों को समाप्त कर दिया, देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर भी प्रतिबंध लगा दिए पर सरकार की जन-विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ अपनी ही समर्थक बहुसंख्यक सिंहली जनता के भीतर पनप रहे आक्रोश को वह नहीं समझ नहीं पाया.  नागरिक अब राष्ट्रपति भवन के कोने-कोने को खंगाल कर उन तमाम वस्तुओं को देख आश्चर्य से भर रहे हैं जिनकी वे जीवन में कल्पना भी नहीं कर सकते थे. 

जनता जब नायकों को नेतृत्व करने का अधिकार सौंपती है तो उनकी छवि में अपने चेहरे और अपने अभावों की तलाश भी करती है.  जब वह छवि जब खंडित होने लगती है तो जनता उन्हीं शासकों की विरोधी बन जाती है जिनमें वह सबसे ज़्यादा चाहने का भ्रम पैदा करती है.  शासक तब अपने ही नागरिकों द्वारा की जाने वाली उपेक्षा को बर्दाश्त नहीं कर पाते.  राजपक्षे परिवार ने जनता के अभावों के ख़िलाफ़ बहुसंख्यक बौद्ध-सिंहली राष्ट्रवाद को हथियार बनाकर देश में अधिनायकवाद क़ायम करने की कोशिश की तो सड़कों पर जन-विद्रोह उमड़ पड़ा और उसमें समाज के सभी तबकों के लोग शामिल हो गए. 

हमारे यहाँ कुछ लोगों द्वारा नागरिकों को डराया जा रहा है कि अगर स्थितियां वर्तमान जैसी ही बनीं रहीं तो आगे चलकर हालात श्रीलंका की तरह के बन सकते हैं.  देश की आर्थिक स्थिति को लेकर सत्तारूढ़ दल के ही एक वरिष्ठ नेता डॉ.सुब्रमण्यम स्वामी जिस तरह के आँकड़े पेश कर रहे हैं वे सरकार द्वारा किए जाने वाले दावों से मेल नहीं खाते.  डॉ.स्वामी के आरोपों का आधिकारिक तौर पर खंडन भी नहीं किया गया है.  डॉ.स्वामी ने हाल में ट्वीट किया था कि यूपीए सरकार के दौरान साल 2011 में भारत दुनिया के 193 देशों के बीच तीसरे नम्बर की आर्थिक शक्ति था पर इस समय देश 164वें क्रम की आर्थिक ताक़त बनकर रह गया है. 

इसी प्रकार, पूर्व वरिष्ठ नौकरशाह और वर्तमान में तृणमूल सांसद जवाहर सरकार ने आगाह किया है कि इस समय भारत पर 621 अरब डॉलर का विदेशी क़र्ज़ है और इसमें से 267 अरब डॉलर अगले नौ माह में क़र्ज़ के पुनर्भुगतान के रूप में खर्च हो जाएँगे जो कि देश के कुल मुद्रा भंडार का 44 प्रतिशत होगा.  श्रीलंका की वर्तमान स्थिति का एक बड़ा कारण उसके द्वारा विदेशी क़र्ज़ों का समय पर भुगतान नहीं कर पाना था. 

कहा जा सकता है कि पड़ोसी देशों में पाकिस्तान के बाद श्रीलंका में हुई उथल-पुथल में जनता की भूमिका को लेकर सत्तारूढ़ दल के लिए चिंतित होने के पर्याप्त कारण हैं.  यह बात अलग है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देश के भीतर और विदेश यात्राओं के दौरान व्यक्त किए जाने वाले आत्म-विश्वास और उनकी भाव-भंगिमा से क़तई आभास नहीं मिलता कि भारत कभी श्रीलंका जैसे देशों की क़तार में शामिल हो सकता है. 

मोदी के दिल्ली की सत्ता में क़ाबिज़ होने के कारणों में यह बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं थी कि उन्होंने गुजरात को विकास के रोल मॉडल के रूप में राष्ट्रीय क्षितिज पर पेश करने में सफलता पाई जितनी यह कि रेल्वे स्टेशन पर चाय बेचने वाले के बेटे के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करके वे देश के अत्यंत अभावग्रस्त मतदाता की सबसे कमजोर नब्ज पर हाथ रखने में कामयाब हो गए. 

इस तरह के आरोपों के बीच भी कि उनके राज में सिर्फ़ दो औद्योगिक घरानों की ही सम्पन्नता बढ़ी है या प्रधानमंत्री महँगे सूट, घड़ी, चश्मे पहनते हैं और क़ीमती पेन का इस्तेमाल करते हैं, मोदी ने चाय बेचने वाले के बेटे की अपनी छवि को जनता के बीच बराबर क़ायम रखा है.  प्रधानमंत्री आज भी अपने ब्लॉग में उल्लेख करना नहीं भूलते हैं कि पिता के डेढ़ कमरे के खपरैल वाले मकान में भाई-बहनों के साथ उनका बचपन किन कठिनाइयों में बीता है. 

मोदी ने देश की अभावग्रस्त जनता के बीच अपने तिलिस्म को सफलतापूर्वक बनाए रखा रखा है पर कहना मुश्किल है कि अगर स्थितियाँ नहीं बदलीं तो आम आदमी की बढ़ती तकलीफ़ों के बीच वह तिलिस्म अनंतकाल तक क़ायम रह पाएगा.  केवल साल 2015 से 2019 तक की अवधि छोड़ दें तो राजपक्षे परिवार 2005 से श्रीलंका की सत्ता पर मज़बूती के साथ क़ाबिज़ था पर जनता का धैर्य अंततः टूट गया और उसने स्थायी राष्ट्रवाद और अभावों के बजाय अस्थायी अराजकता के साथ अपने भविष्य को नत्थी कर दिया. 

श्रीलंका की समस्या का जल्दी समाधान नहीं हो पाएगा. देश छोटा है पर उसका संकट काफ़ी बड़ा है. अभी सिर्फ़ एक ही राजपक्षे भाई (गोटाबाया) देश छोड़कर भागा है, बाक़ी सभी श्रीलंका में ही मौजूद हैं. वे आगे कुछ भी कर सकते हैं.  हिंद महासागर क्षेत्र में श्रीलंका की भौगोलिक स्थिति के सामरिक महत्व के चलते उसके राजनीतिक भविष्य में भारत और चीन सहित कई देशों की रुचि हो सकती है.  श्रीलंका के भविष्य को लेकर फ़िलहाल इस उम्मीद से ही संतोष कर लेना चाहिए कि वहाँ की सत्ता में आने वाले नए शासक अब राष्ट्रवाद और धर्म को नागरिकों के असंतोष को शांत करने के ईंधन का विकल्प नहीं बना सकेंगे. 


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