चंचल
हम दोनो के बीच वह आख़िरी झगड़ा था , गो क़ि उस समय हमे यह अनुमान नही था कि यह आख़िरी बन जायगा , लेकिन वक्त ने कुछ और तय कर रखा था - आख़िरी मुलाक़ात भी वही बनी . इसके बाद उनकी बीमारी अल्ज़ाइमर में चले जाना , मिलना , न मिलना दोनो बराबर था . उनकी बीमारी का सुन कर उनसे मिलने जब उनके आवास पर पहुँचा तो - बहुत दर्दनाक मंजर था - ज़ार्ज़ कोमा में हैं , मोटी सी चादर में ढके हुए , सामने लैला जी ( लैला कबीर फ़र्नांडिस - ज़ार्ज़ की पत्नी ) खड़ी हैं , एक कुर्सी पर दलाई लामा जी बैठे हैं , उनका हाथ ज़ार्ज़ के घुटने पर है . लामा की आँख से आंसू झर रहा है - अब हमारी लड़ाई कौन लड़ेगा ज़ार्ज़ ? हमने दूर से ही प्रणाम किया और वापस मुड़ गया . अपने से पूछा - “इस” ज़ार्ज़ से क्यों मिले ?
इस ज़ार्ज़ से क्यों मिले ? यह पोस्ट इसी सवाल का जवाब बनाने की कोशिश कर रहा हूँ .
ज़ार्ज़ से हम पहली दफ़ा 1972 , में मिले . और मिलते ही उदास हो गया . यही ज़ार्ज़ है ? जाइंट किलर ? बांबे का मज़दूर नेता , जिसके एक इशारे पर बांबे ठप ? पुलिस परिषद का नेता ? रेलवे मेंस फ़ेडरेशन का नेता ? ज़ार्ज़ की शक्सियत सवाल में आ गयी . खादी का कुर्ता , पजामा , गांधी आश्रम का चप्पल एक छोटा सा बैग लिए ज़ार्ज़ खड़े हैं . इस तरह का नेता हम पहली बार देख रहे थे . हमारे पास नेता की दूसरी ही तस्वीर रही , बिल्कुल कांग्रेसी नेता की . थुल-थुल काया , निकला हुआ पेट . चौचक कुर्ता धोती . लेकिन वह तस्वीर टूट गयी और मन उदास हो गया . अवसर था - बिल्थरा रोड बलिया में समाजवादी युवजन सभा ने पूर्वांचल विद्रोह सम्मेलन आयोजित किया था जिसका उद्घाटन करने ज़ार्ज़ आए थे .
देबू दा ( देवब्रत मजूमदार ) ने हमारा परिचय कराया -
- ज़ार्ज़ ! ये चंचल है
- हलों ! और एक हाथ बढ़ आया . निहायत गर्म जोशी से हाथ मिला . यहाँ से एक नयी यात्रा शुरू हुई .
एक दिन ज़ार्ज़ की चिट्ठी मिली . मज़मून था - “उत्तर प्रदेश में पुलिस परिषद की मान्यता को लेकर सरकार और पुलिस में तनाव है . तुम लोग पुलिस की मदद करो . “ किया गया और बनारस केंद्र बन गया . इसकी वजह रामनगर पी ये सी कैम्प पर सेना का आक्रमण . नुक़सान दोनो तरफ़ हुआ . पुलिस शक के घेरे में आ गयी और पंडित कमलापति त्रिपाठी की सरकार गिर गयी . उत्तर प्रदेश इतिहास लिख रहा था पुलिस के साथ समाजवादी युवजन सभा का सुदृढ़ रिश्ता . नतीजा यह रहा क़ि विश्वविद्यालय में होनेवाले सालाना उपद्रव को रोकने के लिए पी ये सी की जगह दक्षिण की रिज़र्व पुलिस फ़ोर्स लगने लगी . यहाँ भी पीं ये सी को दोहरा फ़ायदा हुआ . पुलिस परिषद के तत्कालीन नेता गिरी के अनुसार - लड़कों (छात्रों ) से लात खाना बंद हुआ और टी ये डी ये तो बढ़ा .
तकनीकी पेंच समझिए - राजस्व भूमि रजिस्टर में काशी विश विद्यालय गाँव दर्ज है . डेढ़ कदम लांघ जाइए बनारस शहर है . पुलिस नियमावली बहुत कमाल की है . पुलिस फ़ोर्स को मिलने वाला दैनिक भत्ता शहर में ज़्यादा है गाँव में कम . गिरी इसी तरफ़ इशारा कर रहे थे .
इस ज़ार्ज़ को देखा है .
74 में रेल हड़ताल हुई . हमे दो काम मिला - एक - रेल कर्मचारियों के परिवार की मदद . और आम जन को आवश्यक वस्तुओं की सम्भावित कमी दूर करने का प्रयास . इस प्रयास में दुकानदारों द्वारा सामानों को रोकना और फिर महँगे दाम पर बेचना . ग़ज़ब का ख़ौफ़नाक मंजर बनाया आढ़तियों ने . नमक और माचिस जैसी चीज़ों की क़ीमत आसमान पर चली गयी माचिस दस दस रुपए तक बिकने लगी . हमारी ड्यूटी जौनपुर में लगी थी . अनगिनत दुकानो के गोदाम खोलवाए . वाजिब दाम पर चीनी , डालडा , माचिस , नमक सब बँटा . रेल किस तरह देश को जोड़ती है , उसकी कितनी उपयोगिता है , यह उस रेल हड़ताल से मालूम हुआ . इस रेल हड़ताल ने श्रीमती ईंदिरा गांधी को ज़ार्ज़ का स्थायी दुश्मन बना दिया . रही सही कसर माओत्से तुंग के उस ख़त ने आग में घी का काम किया जिसे माओ ने ज़ार्ज़ की बहादुरी पर लिखा था .
हमने इस ज़ार्ज़ को देखा था
75में आपातकाल लगा . इसे इमरजेंसी कहते हैं . हर ग़ैर कांग्रेसी नेता धड़ल्ले से झूठ बोलता है की हम इमरजेंसी से लड़े हैं . 25/26 जून को इमरजेंसी लगी . सारे लोग गिरफ़्तार हो गये , कुछ ने माफ़ीनाम लिख दिए , बाक़ी फ़रार रहे , तो कब और किससे लड़े ? इस इमरजेंसी के ख़िलाफ़ केवल दो थे जो लड़ रहे थे . एक अकाली दल , वह प्रति दिन जत्था बना कर निकलता और गिरफ़्तारी देता दूसरे थे ज़ार्ज़ और उनके मित्र लोग . ज़ार्ज़ पर डाइनामाइट केस चला . हम इस ज़ार्ज़ को जानते थे .
ज़ार्ज़ का यह हिस्सा कभी नही मरेगा .
हम उस उस ज़ार्ज़ की चर्चा फ़िलहाल यहाँ नही करेंगे जिस पर हम झगड़े थे .
सादर नमन ज़ार्ज़
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