चंचल
शुक्रिया न्यायालय !
- ताज महल की खोदाई की इजाज़त मिले !
- क्यों ?
- यह हिंदू इमारत है , इसके कई कमरे बंद हैं , वहाँ हिंदू साक्ष्य मिलेंगे !
- पहले यम ये करो , शोध तक पहुँचो , तब यहाँ आओ .
याची दिक़्क़त में है - यम ये करने के लिए इंटर पास करना होगा . फिर बी ये फिर , फिर , फिर . सिविल लाइन काफ़ी हाउस के सामने खड़े दरख़्त के नीचे बैठा इस फिर के चक्कर में तीन दोना चाट खा गया पर राहत ना मिली .
मीडिया ?
आज की बात नही कर रहा हूँ आज की मीडिया जो कर रही है उसे वह खुद पचा रही है . रात में सोते समय “ मुह के अतिरिक्त फैलने को किस तरह नार्मल किया जाय की मुह सिकुड़ जाय “ का आयुर्वेदिक इलाज खोजते खोजते सो लेते हैं . इसे जाने दीजिए ये बेचारे हैं .
यही सवाल उस जमाने में भी था , तब की मीडिया का एक मंजर देखिए .
7 बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग टाइम्स हाउस दूसरा तल , जहां हिंदी का नवभारत टाइम्स और अंग्रेज़ी का times of india का संपादकीय विभाग बैठता था . एक थुलथुला मोटा सा नौजवान उमर का आदमी नमूदार हुआ . उसका पहला सवाल था
- अख़बार यहीं छपता है ?
- जी !
- कौन छापता है ?
उन दिनो इस तरह के लोग अक्सर आया करते थे . ये प्रतिबंधित नही थे , न ही ऐसे लोंगो की आमद पर प्रतिवँध था . जनाब सत सोनी जी (उन्हें लम्बी उमर मिले कमाल के मज़ाक़िया इंसान , उप संपादक से शुरू हुए सम्पादक तक बने )
सत सोनी जी का कहना था - अख़बारों का माहौल निहायत संजीदा होता है , अभाव व “ किश्तों “ के वक्त पर पहुचाने के दबाव से दिक़्क़त में खड़ा यह अखबारी कर्मचारी घर में संजीदा तो रहता ही है दफ़्तर में आओ तो यहाँ भी संजीदगी और खबर बनने के लिए तैयार फ़ौफ़नाक वारदात आपके इंतज़ार में मिलेंगे . इसलिए जब इस तरह के बहेतू छपासी लोग दफ़्तर में आते हैं तो कुछ देर के लिए माहौल ख़ुशनुमा हो जाता है . और इनकी पहचान , इनके सवाल से ही हो जाता है .
- कौन छापता है अख़बार ?
कई कान खड़े हो गये , हिंदी अंग्रेज़ी दोनो के . कई कलमे चलते चलते रुक गयी , कई आँखें गोल हुई . इब्बार रब्बी , पंकज शर्मा , रंजित कुमार . कैन छापता है ? का जवाब आहिस्ता से दिया पंकज शर्मा ने - वो जो मोटा चश्मा लगाए लिख रहे हैं , अख़बार वही छापते हैं . आगंतुक मोटे चश्मे की ओर बढ़ गया . इतना ही नही , अपना झोला भी उसी टेबुल पर रख दिया और तन कर खड़ा हो गया . (ज्ञान वर्धन के लिए एक आवश्यक जानकारी रख लें , उन दिनो संपादकीय विभाग में उतनी ही कुरसियाँ रहती थी जितने कर्मचारी , समीर के आने बाद कुछ बदला हो तो इसकी सूचना नही है )
आगंतुक की हरकत से मोटे चश्मे का पारा ऊपर चढ़ रहा है इसका अनुमान सब को था .
चश्मा कान से उतरा उसकी एक दंडी चुटकी में फाँसी रही
- जी बताएँ , खड़ा हो जाऊँ ?
- नही नही ! अख़बार आप ही छापते हैं ?
- जी !
- एक खबर लाया हूँ
- बताइए
- जामा मस्जिद के नीचे लिंग है .
- लिंग है , लिंग आपने देखा ?
- मैं इतिहासकार हूँ
- ड़ी डी कोशांबी आप ही हैं
- नही नही !
- यदनाथ सरकार , टायंबी , इरफ़ान हबीब , विपिन चंद्रा ?
- नही नही मैं मुकुट बिहारी गुप्ता हूँ
- पिता जी क्या करते हैं ,
- तेल के थोक व्यापारी थे , गुज़र गये हैं ! अब वह काम मैं देखता हूँ .
- एक काम करो , दुकान की चाभी हमे दे दो हम दुकान देखेंगे तुम अख़बार देखो ! चुतिया कहीं के एक से एक बेहूदे आ जाते हैं , एक चाय लाओ भाई . इस मोटे चश्मे को लोग रमेश गौड़ बोलते थे .
इस मीडिया को चोर्रसिया बोलते हैं
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