प्रेमकुमार मणि
अभी मैं कांग्रेस चिन्तन शिविर में सोनिया गांधी का भाषण सुन रहा था. मैं उस भाषण की तारीफ करना चाहूंगा. हमारी हिन्दी में उसके लिए एक ही शब्द हो सकता है - ओजस्वी. उनका भाषण पहले अंग्रेजी में हुआ ,फिर हिन्दी में. संक्षिप्त ,सारगर्भित और दुरुस्त . वाणी में अद्भुत ओज. काश ! उसका एक अंश भी राहुल या किसी अन्य कांग्रेस नेता में वैसा होता. मैंने इंदिरा गांधी के भी भाषण सुने हैं . मैं उन्हें भी कमतर ही आंकूंगा. यही नहीं , प्रधानमंत्री सहित किसी भी समकालीन दूसरे नेता में वाणी का वह ओज अनुपलब्ध है . कभी -कभार अमित शाह अवश्य मुझे प्रभावित कर जाते हैं , ओजस्विता के मामले में. मोदी तो पारसी थियेटर के कलाकार की तरह नौटंकीनुमा दीखते हैं . बेशक आमजन को प्रभावित करते होंगे. यूँ ही तो वोट बटोर नहीं ले जाते!
मैंने 1970 के इर्द -गिर्द सामाजिक जीवन में आँखें खोलीं. उन दिनों अनेक नेताओं के भाषण भी सुने. हिन्दी में जिन नेताओं के भाषण बहुत चर्चित थे , वे थे राममनोहर लोहिया , प्रकाशवीर शास्त्री ,जगजीवन राम और कॉमरेड डांगे. कुछ लोग अटल जी को भी पसंद करते थे . मैंने छात्र जीवन में ही अटल जी को सुना. प्रभावित नहीं हुआ. हालांकि बाद के उनके कुछ भाषण मुझे प्रभावित कर सके. उनका झूम -झूम कर गर्दन और तर्जनी लचका कर बोलना मुझे अश्लील लगता रहा . जगजीवन राम बहुत अच्छा बोलते थे . उन्हें 1975 या 76 में हुए भोजपुरी सम्मलेन में पटना के राजाराम मोहन राय सेमिनरी मैदान में भी सुना . भोजपुरी में उनका भाषण हुआ था. अद्भुत.
भाषण देना एक कला है. इसमें बहुत कुछ एक साथ मिला होता है . विषय , शब्दावली और अंदाजे- बयां इसके आवश्यक अवयव हैं . एक की भी अनुपस्थिति भाषण के स्वरुप को बिगाड़ सकती है . कहीं पढ़ा था ,एक दफा एनी बेसेंट के भाषण को सुन कर जवाहरलाल नेहरू मुग्ध थे. उन्होंने अपने घर पर उनके भाषण की पिता से खूब तारीफ की. कई दफा कहा बहुत अच्छा बोलीं. चिढ़ते हुए मोतीलाल जी ने कहा -जनाब ,यह तो कहिए कि वह बोलीं क्या ? अब जवाहरलाल चुप थे. यह संस्मरण उन्होंने लिखा है कि मैंने पिता से यह सीख ली कि भाषण अपने मूल में उसका कंटेंट है . बाकि तामझाम हैं.
आम भारतीय लोग भाषण का मतलब मनोरंजन समझते हैं. गांधी जी अच्छे वक्ता नहीं थे .बहुत ख़राब बोलते थे. लेकिन उनकी बातों में सच्चाई होती थी ;इसलिए लोग उन्हें ध्यान से सुनते थे. जवाहरलाल नेहरू , नरेन्द्रदेव , जयप्रकाश आदि ऐसे बोलते थे मानों क्लास ले रहे हों. वे जनता को शिक्षित -प्रशिक्षित करते थे . लोहिया मिले -जुले वक्ता थे . कभी अच्छा बोलते थे , कभी सामान्य. वह जब राजनीति से हटकर सांस्कृतिक सवालों पर बोलते थे तब उनका ह्रदय और मष्तिष्क एकरूप हो जाता था. फिर उनकी मेधा अपने वास्तविक रूप में प्रकट होती थी . मैं कल्पना करता हूँ लोहिया यदि नेहरू के प्रति डाह में डूबे नहीं होते और आरएसएस को गहराई से समझ रहे होते तो कितने मेधावी रूप में हमारे सामने होते. लेकिन अभी तो केवल भाषण की बात करूँगा .
हमारी हिन्दी में ओजस्वी वक्ताओं की कमी दिखती है. सामान्य वक्ता कई हैं ,लेकिन उल्लेखनीय कोई नहीं. नेताओं का पढ़ना -लिखना होता नहीं . अख़बार पढ़ कर वे काम चलाते हैं. अधिकांश लोग राजनीति को तो नहीं ही समझते ,सामान्य इतिहास ,संस्कृति और राजकाज के अन्तर्सम्बन्धों को भी नहीं समझते . इन सबका असर उनके भाषण पर होता है. बिहारी नेताओं खास कर समाजवादी धड़े के नेताओं का एक तकियाकलाम है काम. वे बात -बात में इसका इतना अश्लील इस्तेमाल करते हैं कि जी चिड़चिड़ा जाता है. ' हमने सड़क बनाने का काम किया. हमने प्रधानमंत्री जी को यह सूचना देने का काम किया . हमने समय पर आने का काम किया ... ' उफ़ ! हिन्दी का कबाड़ा कर देते हैं लोग.
भाषण और भाषण कला पर हिन्दी में स्वतंत्र रूप से कोई किताब आनी चाहिए . इसकी जरुरत है.
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