फ़ज़ल इमाम मल्लिक
रमज़ान में इफ्तार की सियासत खूब होती है. हालांकि रमज़ान शुरू होने के साथ ही मुसलमानों का एक तबका शिद्दत से इस सवाल को उठाता है कि सियासी इफ्तार से बचा जाए. लेकिन ऐसा हो नहीं पाता. देश के कई हिस्सों में इन दिनों सियासी इफ्तार का जलवा है. कोई सियासत में पीछे नहीं रहना चाहता. लेकिन दिलचस्प यह है कि जिन पर क़ौम की राह दिखाने की ज़िम्मेदारी है वे उलेमा हज़रात भी बहुत लहक कर ऐसे इफ़्तार में शिरकत करते हैं. दुआ भी मांगते हैं. उलेमाओं में भी सियासी लीडरान के साथ तसवीरें खिंचवाने का एक अलग तरह का जनून रहता है. कोई मना नहीं करता ऐसे इफ़तार पार्टियों में जाने से. यह ठीक वैसा ही है जैसा चैनलों पर उलेमा दिखाई देते हैं और टीवी बहसों में हिस्सा लेकर मज़हब की ऐसी-तैसी करते हैं.
मुसलमानों में भी इफ़्तार में शिरकत करने की होड़ लगी रहती है. कुर्ता टाइट कर पहुंच जाते हैं. नेताओं के साथ तसवीरें खिंचवाते हैं (यह बात मुझ पर भी कुछ-कुछ लागू होती है. कभी-कभार इस तरह की इफ़तार पार्टी में मैं भी जाता रहा हूं. लेकिन यह भी बता दूं कि इस तरह की इफ़्तार पार्टी में बहुत कम जाना हुआ है. शायद अब तक की जिंदगी में बमुश्किल दस बारह ही.) और फिर सोशल मीडिया पर ठसक से डालते हैं. फेसबुक पर मेरे कई मुसलिम दोस्तों ने अपील की थी कि इस तरह के इफ़्तार से दूर रहें. लेकिन मुसलमानों का ज़मीर अब मुर्दा हो चुका है. वे इस तरह की इफ़्तार पार्टियों में शामिल होकर शान समझने लगे हैं.
रोज़ा भले न रखें लेकिन इफ़्तार पार्टियों में जाने की होड़ मची रहती है. कुछ चेहरे तो ऐसे हैं जो हर इफ़्तार पार्टी में नज़र आ जाते हैं. रमज़ान निपट गया. इफ़्तार पार्टियां भी अगले साल के लिए लपेट कर किसी तहख़ाने में रख दी जाएंगी और मुसलमान झुनझुना बजाते हुए अगले साल का इंतज़ार करेंगे. सियासी इफ़्तार पार्टियों पर रोक लगनी चाहिए, लेकिन लगे तो कैसे. ख़ुद भी सियासत में हूं. सियासी पार्टी से वाबिस्ता हूं. हम तो नहीं चाहते हैं कि इफ़्तार का आयोजन सियासी दल करें. इस साल इसका ध्यान भी रखा. अगले साल देखते हैं क्या होता है.
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