चंचल
जमुना बिन्नी को हम भी नही जानते थे , क्यों हमारे जानने का दायरा , दिल्ली की कुछ कुर्सियों , बम्बई के लिपे- पुते चेहरों , या लकड़ी के फट्टे से मार खाई एक गेंद के पीछे भागते मस्तंडों तक ही महदूद कर दिया गया है . हम कैसे जानेंगे Jamuna Bini को ? हमको तो गहरी खाई के सामने खड़ा कर दिया गया है , कहा जा रहा है - “जानो मत , सवाल मत पूछो , बस मिटाओ , “ .
जमुना बिनी को हम भी नही जानते , क्यों क़ि हम दुनिया के सबसे बड़े जानकार हैं . अचानक किसी ने कान की ललरी पर सिटकी लगा कर ज़ोर से दबाया - “ हम तुम्हारे भगत सिंह , सुभाषचंद बोस , अज्ञेय , बिरजू महराज , राजेश खन्ना , गवासकर को जानते हैं तुम हमारे ( पूर्वोत्तर के सातों राज्यों ) के कितने लोंगो को जानते हो ? यह थी जमुना बिनी जी . अरुणाचल प्रदेश में राजीव गांधी विश्वविद्यालय में हिंदी की प्रोफ़ेसर और कविता में महारत . अभी हाल में एक और बड़े अलंकरण से पुरस्कृत हुयी हैं - “ तिलका माँझी पुरस्कार “ . कविता है - जब आदिवासी गाता है .
- तिलका माँझी ?
- हम नही जानते , जब हम हैदर अली टीपू सुल्तान , महाराजा रणजीत सिंह , राम किंकर , ऋत्विक घटक को नही जानते , किताबों से इनके पाठ हटा दिए गये तो आप हमसे तिलका माँझी के बारे में पूछ रहे हैं ?
एक गहरी साज़िश के तहत , हमे आत्मकेंद्रित किया जा रहा है , तुर्रा यह कि हम बेहद आत्म्मुग्ध हुए, जयकारा कर रहे हैं .
रमज़ान मुबारक हो ,
- रमज़ान क्या है ?
- यह तो मुसलमानो का त्योहार है , हमसे क्या मतलब ?
- मुसलमान को कितना जानते हो ?
बरगद ठहाका लगाता है - किससे पूछते हो , क़ि वह मुसलमान को कितना जानता है ? जब वह खुद अपने को नही जानता तो मुसलमान को कितना जानेगा ? इसे इंसानियत के मूल स्वरूप पर बात करो , इसकी ज़ुबान में .
“ गर्मी के तपते महीने में एक अभावग्रस्त इंसान चुपचाप सड़क किनारे धूप में बैठा है , कोई कुछ दे दे तो पेट की आग शांत हो ? “
सामने से गुजरनेवाले अलग अलग मानसिकता के होंगे . अलहदा उनकी सोच होगी , लेकिन एक बात पर सब एक मत होंगे क़ि यह भिखारी है . इस पहली राय के बाद ही दूसरी कोई बात उठेगी . उस डगर से गुजरने वालों की एक सूची देखिए -
१- इन्हें न सड़क दिख रही है न वह - इन्हें अपना दम्भ और ग़ुरूर दिख रहा है . नाक पर रूमाल रख कर आगे बढ़ जाँयगे .
२- हाथ पाँव सलामत है , काम क्यों नही करते ? ये उपदेसक जी हैं , राजनीति में नही हैं लेकिन नेता बाबू के खर्चे पर सब्ज़ी ख़रीदते हैं . सरकारी गल्ला की दुकान पर क़तार बद्ध होकर
“ मुफ़्त” वाला नमक और रिफ़ाइन उठाते हैं और जिसका नमक खाते हैं उसका हक़ मज़बूत करते हैं .
३- माफ़ करे उपरवाला ! यह दिन न दिखलाए ! मरजी उसकी कब क्याकर दे ? लो भाई और खीसे से कुछ निकाल कर इज्जत के साथ उसके हाथ पर रख दिया .
४- उसे देखा , उसमें खुद को पाया , हम भी इस हालात से गुज़रे हैं . चुपचाप जो कुछ था निकला कर उसके सामने रख कर आगे बढ़ गया , बुदबुदाता गया - वक्त बदलता है मित्र !
- आप किस क़तार में हैं ?
भारतीय वांगमय इमदाद की बात करता है , दधीच , कर्ण , की कथा में वह ज़िंदा रखता है अपनी तहज़ीब . धूप बैठा रह गया है , तपती धूप में , बारिश में , ठंढ में , संदेश देता है आत्म नियंत्रण , समय बोध . इंद्रियों की पिपासा पर नकलेल लगाओ उसे अंकुश में रखो . सारे सलीके एक हैं नाम अलग अलग हैं . सुन भाई ! रमज़ान भी यही है . अपने पर नियंत्रण और दूसरे की इमदाद . “ मुफ़्त “ विशेषण के साथ वाला इमदाद नही . रहीम वाला इमदाद -
देनदार कोउ और है , भेजत सो दिन रैन .
लोग भरम हम पै धरें , याते नीचे नैन ॥
ओ अभाव में है उसकी इमदाद कर दो , चुपचाप . रमज़ान में इसे ज़कात कहते हैं .
स्वाभिमान और सलीका समाज देता है तब कर्ण दधीच , रहीम बुद्ध और गांधी पैदा होते हैं . स्वाभिमान स्व से ऊपर उठकर समस्ठि तक जाता है . पाव भर चना और नमक के मुफ़्त (?) पर , दाता जब अपना नाम और चेहरा दिखाने लगे और समाज उससे उपकृत होने लगे तो वह समाज भिखमंगे पैदा कर सकता है , स्वाभिमानी नही .
बापू ने चुपचाप अपनी चादर , अभाव में में खड़ी महिला की ओर बढ़ा दिया था , आँखें नीचे ही नही थी नम भी थी .
हम तो इंसानी सभ्यता को मुबारकबाद दे रहे हैं .
आत्म नियंत्रण और परहित है रमज़ान .
ज़कात में उतर कर देखिए , किसी का अभाव दूर करके आपको एक आंतरिक सुख मिलेगा .
ज़कात की भाषा अलग हो सकती है लेकिन भारतीय उप महाद्वीप का गाँव इसी ज़कात पर ज़िंदा है .
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