श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था की बदहाली

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श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था की बदहाली

राजेंद्र तिवारी

उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार,  विकास की झूठी कहानी, लोकलुभावन नीतियों, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के शिकंजे और बहुसंख्यकवाद की राजनीति के चलते श्रीलंका अपने इतिहास के सबसे भयंकर आर्थिक संकट से गुजर रहा है.  सार्वजनिक परिवहन तेल के अभाव में ठप है, स्ट्रीट लाइट बंद कर दी गईं हैं, १३ घंटे की बिजली कटौती लागू है, खाद्य पदार्थों, दुग्ध पाउडर व दवाइयों का टोटा है, कागज की कमी की वजह से बच्चों की परीक्षाएं स्थगित कर दी गईं हैं.  राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्ष के खिलाफ पूरे देश में प्रदर्शन शुरू हो गए हैं.  श्रीलंका के राष्ट्रपति के बड़े भाई महिंदा इस समय प्रधानमंत्री हैं और छोटे भाई बासिल वित्तमंत्री.  उनके एक और भाई चमाल भी संसद सदस्य हैं.  लोगों का कहना है कि देश के ७० फीसदी बजट पर इस राजपक्ष परिवार का कब्जा है और ५० फीसदी सार्वजनिक खरीदी में से इस परिवार को हिस्सा मिलता है. 

२०१२ में लगभग नौ फीसदी की उच्च विकास दर दर्ज करने वाला देश आज आर्थिक दिवालिएपन की कगार पर है.  आखिर क्यों? तात्कालिक तौर पर देखा जाए तो तीन बड़े कारण नजर आते हैं - बिना तैयारी के ऑर्गेनिक खेती अनिवार्य कर दिया जाना, कोलंबो ब्लास्ट व उसके बाद कोरोना महामारी की वजह से पर्यटन उद्योग बुरी तरह प्रभावित होना और रूस-उक्रेन युद्ध की वजह से तेज की कीमतों में वृद्धि व श्रीलंका से होने वाले चाय निर्यात में कमी.  श्रीलंका में कृषि उत्पादन लगभग आधा रह गया, इंपोर्ट बिल बढ़ गया और विदेशी मुद्रा की आवक में जबरदस्त कमी आ गई.  लेकिन यह कहानी सिर्फ इतनी नहीं है. 

श्रीलंका की अर्थव्यवस्था नवउदारवादी राह पर आने के समय से ही संकट प्रवण रही है.  दक्षिण एशिया में आईएमएफ के नव उदारवादी पैकेज को स्वीकारने वाला यह पहला देश है.  १९७० के दशक के उत्तरार्ध तत्कालीन राष्ट्रपति जेआर जयवर्धने ने मुक्त अर्थव्यवस्था सुधार के नाम पर आईएमएफ की शर्तों के मुताबिक संरचनागत बदलाव शुरू किए और इसकी आड़ में ट्रेड यूनियनों या वामपंथियों को अपने निशाने पर लिया और साथ ही तमिल अल्पसंख्यकों को भी दबाने का काम किया.  आईएमएफ के पैसे से बना गुब्बारा ज्यादा दिन नहीं टिका.  लेकिन जयवर्धने की नीतियों ने देश को गृहयुद्ध जैसे हालात में जरूर झोंक दिया.  २६-२७ साल तक चले इस संघर्ष के दौरान भी आईएमएफ का साथ मिलता रहा.  इस दौरान उच्च पदों पर भ्रष्टाचार ने भी जमकर पांव पसारे.  रेडियो लाइसेंस, शराब, बालू, माइनिंग आदि के लाइसेंस राजनीतिकों व उनके खास लोगों के बीच खूब बांटे गए.  २००५ में जब महिंदा राजपक्ष (मौजूदा प्रधानमंत्री व गोटबाया राजपक्ष के बड़े भाई) राष्ट्रपति बने तो उन्होंने निवर्तमान राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतंगा के साथ-साथ तीन और रेडियो लाइसेंस कौड़ी के भाव में जारी किये.  ये लाइसेंस बाद में ४-५ करोड़ डॉलर की भारी रकम लेकर बेच दिये गये.  यह तरीका संसद में विरोधियों को चुप रखता रहा.  मौजूदा नीतियां भी इसी तरह की हैं.  उदाहरण के तौर पर विधायिका के सदस्य महंगी विदेशी गाड़ी बिना कोई ड्यूटी दिए मंगा सकते हैं.  ये लोग इन गाड़ियों को मंगाकर तीन-चार गुने दामों पर बेच देते हैं.  २००९ से पहले सुरक्षा के नाम पर तमाम तामझाम नेताओं व ब्यूरोक्रैसी के लिए किए गए जो अब तक जारी हैं.  २००९ में लिट्टे के साथ समझौते के बाद अमन वापसी के साथ ही श्रीलंका उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में दुनिया के निवेशकों की पसंदीदा जगह बन गया और विकास की लुभावनी कहानी तेजी पकड़ने लगी और फिर से गुब्बारा फूलने लगा.  २०१२ में विकास दर नौ फीसदी पर पहुंच गई.  लेकिन उसके बाद आर्थिक दृष्टि व दूर-अंदेशी की कमी और भ्रष्टाचार के चलते इसकी हवा कम होती गई.  

२०१२ से विकास दर लगातार गिरती रही.  इसी बीच, २०१७ में तत्कालीन प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने देश की ऋण समस्या से तात्कालिक राहत के लिए चीन को अपना बंदरगाह ९९ साल की लीज पर दे दिया.  दरअसल, विकास झूठी कहानी गढ़ी जाती रही.  अरबों डॉलर जिन ढांचागत परियोजनाओं पर खर्च किये गए, वे विकास की कहानी तो बन गईं लेकिन आर्थिक विकास में उनका कोई योगदान नहीं रहा.  इसी बीच निराशा के माहौल में गोटबाया राजपक्ष राष्ट्रपति पद के दमदार दावेदार के तौर पर उभरे.  उन्होंने श्रीलंकाइयों के अच्छे दिन का वादा किया.  उनकी छवि लिट्टे को हराने वाली तो थी ही, वे अपने भाई के शासनकाल में सचिव के रूप में काफी ख्याति पा चुके थे.  उनके पक्ष में जोरदार माहौल बना और वे चुनाव जीत गए.  चुनाव जीतने के बाद दिसंबर २०१९ में गोटबाया ने टैक्स दरों में जबरदस्त कटौती कर दी.  परिणामस्वरूप, सरकार के राजस्व में अगले साल जबरदस्त गिरावट आई और करदाताओं की संख्या भी घटकर आधी रह गई.  टैक्स-जीडीपी अनुपात २०१७-१९ के औसत १२.७ फीसदी से घटकर ८.४ फीसदी रह गया. 

२०१९ में कोलंबो के एक होटल व तीन चर्चों में हुए बम धमाकों में २५३ लोग मारे गए.  इसका असर पर्यटन उद्योग पर पड़ा.  कोरोना ने तो कमर ही तोड़ कर रख दी.  देश की करीब २५ फीसदी आबादी पर्यटन उद्योग से जुड़ी है और श्रीलंका की जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी १५ फीसदी हुआ करती थी जो २०२० में घटकर पांच फीसदी रह गई.  कोरोना के दौराना सरकारी व्यय तो बढ़ा लेकिन सरकार की आय कम ही होती चली गई.  खराब हालात की ओर लुढ़कते देश को सहारा तो मिला नहीं बल्कि राष्ट्रपति राजपक्ष ने मई २०२१ में श्रीलंका को पूर्ण ऑर्गेनिक खेती वाला देश घोषित करते हुए रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, खरपतवारनाशकों व कवकनाशकों के आयात पर लोग लगा दी.  उनको अंतरराष्ट्रीय पर्यावरणवादी लॉबी की वाहवाही मिली.  भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी उनकी तारीफ में कसीदे पढ़े.  लेकिन श्रीलंका के किसान बेहाल हो गये.  ऑर्गेनिक खेती का न तो प्रशिक्षण था और न ही ऑर्गेनिक खादों की समुचित उपलब्धता.  उपज आधे पर आ गई.  खाद्यान्न व सब्जी उत्पादन कम होने के चलते जमाखोरी शुरू हो गई और बाजार में कृषि उत्पादों के दाम बेतहाशा (२०० से ५०० फीसदी तक) बढ़ गए.  इस तरह २०२१ समाप्त होते-होते श्रीलंका बुरी तरह लड़खड़ा गया.  विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खाली हो गया है.  रूस के उक्रेन पर आक्रमण के चलते चाय निर्यात गड़बड़ा गया और तेल आयात भी महंगा हो गया.  सरकार ने बुधवार को हाथ खड़े कर दिये कि तेल खरीदने के लिए उनके पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं है.  श्रीलंका पर आईएमएफ, अमेरिका, चीन, जापान व भारत आदि देशों से ५१ अरब डॉलर का कर्ज है.  राजकोषीय घाटा १० फीसदी से ज्यादा हो गया है.  महंगाई दर १८ फीसदी पार कर रही है और खाद्य महंगाई २२ फीसदी से ज्यादा है.  देश को १५ अरब डॉलर के विदेश बांड का पुनर्भुगतान करना है.  इसमें से ७ अरब डॉलर का भुगतान इसी साल और एक अरब डॉलर का भुगतान जून माह तक करना है.  देश का ९५.४ फीसदी राजस्व तो ऋण के ब्याज भुगतान में जा रहा है.  लेकिन अब उसका भी टोटा है.  क्रेडिट रेटिंग खतरनाक रूप से घट जाने के कारण कॉमर्शियल ऋण उपलब्ध नहीं है.  भारत ने श्रीलंका को डेढ़ अरब डॉलर की क्रेडिट लाइन उपलब्ध कराई है.  लेकिन सिर्फ इससे काम चलने वाला नहीं.  चीन से भी श्रीलंका की बात चल रही है.  चीन से पहले से ही ५ अरब डॉलर का कॉमर्शियल ऋण चल रहा है.  आईएमएफ जाने की भी तैयारी में श्रीलंका लगा हुआ है. 

इतने बड़े संकट में होने के बाद भी श्रीलंका के हुक्मरानों ने कोई सबक नहीं लिया और देश में उठ रहे प्रतिरोध के स्वरों को शांत करने के लिए सरकार ने श्रीलंकाई नववर्ष (अगले माह) पर हर परिवार के खाते में ५००० श्रीलंकाई रुपए जमा करने का आश्वासन दिया है.  श्रीलंका में लगभग ३१ लाख परिवार हैं.  पहली बात तो यह पैसा कहां से आएगा और यदि पैसा सबके खाते में पहुंत भी गया तो लोग इतने पैसे से क्या खरीद सकेंगे जब एक किग्रा दुग्ध पाउडर की कीमत करीब ५००० श्रीलंकाई रुपये पहुंच गई हो?

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