अब तो खपरैला छवाई कम हो गई है

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अब तो खपरैला छवाई कम हो गई है

डा शारिक अहमद खान 

पर अटारी की छत टिकती थी.बड़ेर पर ही छत का वज़न होता,इसलिए ये मज़बूत लकड़ी की हुआ करती.सागौन और सरई की लकड़ी बड़ेर के लिए उपयुक्त मानी जाती,खजूर की लकड़ी भी चलन में थी,बेल की लकड़ी का भी बड़ेर में इस्तेमाल होता था.लेकिन बेल की लकड़ी को एक बरसात खुले में छोड़ उसे पानी दिखाना होता,वरना बेल की लकड़ी में कीड़े लग जाते और फिर इस बड़ेर पर टिकी छत के कभी भी ढह जाने का ख़तरा उत्पन्न हो जाता.बड़ेर पर लगता गुल्ला और गुल्ले पर पक्की लकड़ी जैसे बबूल वग़ैरह की बैसाखी लगा करती,अब इस बैसाखी पर लगाया जाता पक्का बाँस.इस बाँस के चयन में भी बहुत सावधानी बरती जाती.कच्चा बाँस लगता तो बारिश की रिमझिम फुहार पड़ते ही उस बाँस में कीड़े लगने की संभावना बलवती हो जाती,तब छत कमज़ोर हो जाती और उसके ढहने की आशंका रहती.इसलिए पका बाँस लगता,पके बाँस के ऊपर कास की बारी आती थी.कास को बहुत गज्झिन लगाया जाता,मतलब ख़ूब घना लगाया जाता,मुट्ठी में बांधकर पास पास लगाया जाता.कास एक तरह की घास होती है.आमतौर पर नदी के किनारे होती है.आदमक़द से लंबी-लंबी होती है.सरपत से अलग घास कास होती है.जहाँ बाढ़ आती है और जलभराव होता है उस इलाक़े में कास ख़ूब होती है.कास के फूल सफ़ेद होते हैं.

जब बरसात ख़त्म होती है तो कास की कटाई होती है.बाँसफोर जाति के लोग कास की कटाई का काम अधिक करते हैं,दूसरी कई जातियों में भी कास की कटाई का काम होता है लेकिन बाँसफोर का प्रतिशत अधिक है.वही कास का बोझ बना बरसात बाद कास बेचने का काम करते हैं.अब तो खपरैला छवाई कम हो गई लेकिन फिर भी शौक़ीनों के यहाँ खपरैला छवाई में और फेरौटी में कास काम आती है.ख़ैर,यही कास खपरैल के मकान में इस्तेमाल होती.अब इस कास के ऊपर गीली मिट्टी का लेपन होता.गीली मिट्टी का लेपन हेड मिस्त्री करते.जो हमारे आज़मगढ़ के इलाक़े में नोनिया-लोनिया जाति के ही अधिक होते.ये जाति मिट्टी खोदने,नमक बनाने और मकान बनाने की माहिर थी.हेड मिस्त्री इसी बिरादरी से ज़्यादा होते,उनकी कला इसी कास के ऊपर किए जाने वाले माटी लेपन में देखी जाती.माटी लेपन में लकड़ी का सपाटा भी नहीं चलाना होता था,वरना कहीं छेद बन सकता था,ये लेपन ख़ालिस हाथ का ही कमाल होता.माटी लेपन हो जाने के बाद भूसा मिलाकर गाय के गोबर से लेपन होता.अब इसके ऊपर लगता था थपुआ और थपुए के जोड़ पर लगती नरिया.इसी नरिया को पकड़कर बरसात का पानी खपरैले से नीचे आता और खपरैल के नीचे बनी टपक से नीचे टपक जाता.नरिया थुपुआ काली मिट्टी का बेहतर माना जाता था और कुम्हार की परख इसी में होती थी कि वो कितना मज़बूत नरिया थपुआ बनाता है.कई बार नरिया-थपुआ के अलग से कुम्हार होते जो सिर्फ़ नरिया थपुआ बनाते.जैसे आजकल ईंट का उद्योग है,उसी तरह से नरिया थपुआ बनाने का उद्योग भी पुराने दौर में बहुत जगहों पर चलता था.नरिया-थपुआ को भट्ठी पर मज़बूती से बनाने के लिए उसे खपड़े या कापुस से ढका जाता था.जब छत पर नरिया-थपुआ लग जाता तो छत का काम पूरा हो जाता.अब एक ऐसी छत तैयार थी जिसके भीतर गर्मी में एसी से बेहतर ठंडक होती और ये शरीर को नुकसान ना पहुंचाने वाली क़ुदरती ठंडक होतीहर साल बारिश आने से पहले इस खपरैल वाली छत का मुआयना करना होता,ज़रूरत होती तो फेरौटी करायी जाती,ये एक प्रकार की मरम्मत होती जिसमें लीकेज बंद किया जाता,पुराने और टूटे नरिया-थपुआ मतलब खपरैल को बदल दिया जाता.पुराने मकानों में जो बाहरी बैठका होता उसमें दिया जलाने और सामान रखने के लिए आला बना होता जो ताखा भी कहा जाता और उर्दू में ताक़ इसका नाम था.

बैठके में कपड़ा टांगने की लकड़ी की खूंटी भी होती थी जो दीवार में ठुंकी होती.बाहरी बैठके में ही एक कमरा होता जिसे मेहमानख़ाना या गोल कमरा कहा जाता.मेहमान उस दौर में गर्मी में सहन में चारपाई पर सोया करते और बारिश-जाड़े में बैठके मतलब खुले बरामदे में उनकी चारपाई लगा बिस्तर लगा दिया जाता,लेकिन फिर भी एक गोल कमरा बैठके में ज़रूरी था जिसका इस्तेमाल कभी-कभार ही मेहमान करते.मेहमान आमतौर पर बाहरी सहन में ही बैठते और दरख़्तों के नीचे बिछी चारपाईयों पर आराम फ़रमाते.खटिया पर बैठ मिट्टी के पेंदे वाला फ़र्शी हुक्का गुड़गुड़ाते.सहन में बिछी ये खटिया गुड़गुड़ी से निकलकर आयी सुतली से बिनी होती.सन मतलब सनई और पटवा से सुतली बनती है और इसी से चारपायी बिनी जाती है.नारियल की रस्सी से हेठी खटिया बनती है,शौक़ीन नारियल की सुतली का इस्तेमाल अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते हैं.सहन में पेड़ों के नीचे बिछी इन्हीं चारपाईयों पर गर्मियों की दुपहरी में लेट हवा खाने और रात में खुले आकाश में छिटके तारे निहारने का अपना अलग आनंद है.तस्वीर में खपरैल का हवादार बैठका नज़र आ रहा है.ऐसे खपरैल के बैठकों ड्योढ़ियों और अटारियों से बीते ज़माने और फ़ुर्सत के रात दिन की याद आती है.

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