हाय बिहार ,हमारा बिहार !

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हाय बिहार ,हमारा बिहार !

प्रेम कुमार मणि 

कल 14 मार्च को बिहार विधानसभा में एकबार फिर वीभत्स रूप दिखा.  कुछ वर्षों से विधानसभा की लाइव कार्यवाही को सार्वजनिक रूप में  दिखलाया जाने लगा है.  यह अच्छी बात है.  जनता को जानने का अधिकार है कि उनके प्रतिनिधि क्या कर रहे हैं.  पिछले वर्ष इसी सभा में पुलिस घुस गई थी और विधायकों को पटक -पटक कर पीटती रही थी.  उस समय भी लोकतान्त्रिक मर्यादाएं शर्मसार हुई थीं.  हां, तब मुख्यमंत्री को संविधान खतरे में नहीं दिखा था.  कल दिखा.  मुख्यमंत्री का गुस्सा सातवें आसमान पर था.  सभा के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री के बीच जिस तरह की तू -तू -मैं -मैं हो रही थी, वह शायद ही संसदीय इतिहास में कभी हुआ होगा.  मुख्यमंत्री चिल्ला रहे थे.  अध्यक्ष को संविधान का पाठ सिखा रहे थे.  तेवर भयावह था.  ऐसा तो गली -नुक्कड़ की गुंडई में भी नहीं होता.  


  मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को मैं भी नजदीक से जानता हूँ .  हमलोगों ने साथ काम किया है ,मित्र रहे हैं.  उनकी कुछ विशेषताएं रही हैं .  उनमें से एक यह भी रही है कि सार्वजनिक मर्यादा का ख्याल रखते थे.  लेकिन ऐसा लगता है इनदिनों मुख्यमंत्री मानसिक रूप से बेहद अस्वस्थ हैं और उन्हें वाकई इलाज की जरुरत है.  कल जो घटित हुआ है ,वह पहली बार नहीं है.  पिछले वर्ष नेता प्रतिपक्ष के भाषण के बीच भी वह इसी तरह आपा खो कर फट पड़े थे. 


कल मुख्यमंत्री संविधान की बात कर रहे थे.  उन्हें जानना चाहिए कि वह कानून बनाने वाली सभा में बोल रहे हैं और उसका पहला पाठ होता है कि वहां सब कुछ अध्यक्ष के अनुशासन में होना चाहिए.  अध्यक्ष कोई  दूध धुले नहीं हैं, लेकिन कल उनका बेबशी में यह कहना कि आप लोगों ने ही मुझे अध्यक्ष चुना है बहुत कुछ कह जाता है.  ( हालांकि इसी अध्यक्ष ने पिछले वर्ष सभा परिसर में विधायकों के पुलिस और गुंडों द्वारा पीटे जाने की घटना पर लीपापोती कर के मामले को ठन्डे बस्ते में डाल दिया है . ) जब संस्थाओं की मर्यादा ध्वस्त होने लगती है ,तो ऐसा ही होता है . यही तो है जंगल -राज. 

 

मुख्यमंत्री कल जो बोल रहे थे ,उसी पर केंद्रित होना चाहूंगा.  संविधान की उन्हें बहुत याद आ रही थी.  किसी भी समाज की कुछ परम्पराएं होती हैं.  सब कुछ लिखा हुआ ही नहीं होता.  हमारा संविधान तो एक लिखित पाठ है.  इसलिए है कि हमारा समाज सामंती -पुरोहिती समाज था.  जब लोकतान्त्रिक समाज बन जाएगा लिखित संविधान की जरुरत नहीं पड़ेंगी, जैसा  कि ब्रिटिश समाज और संसदीय व्यवस्था में है.  ब्रिटिश संसद में तो एक दफा  राजा की मुंडी ही काट ली गई थी.  कल मुख्यमंत्री इस तेवर में बोल रहे थे,मानो विधानसभा के मुकाबले सरकार कोई सुप्रीम पावर है.  यदि लोकतान्त्रिक व्यवस्था है तो विधानसभा और संसद के सामने न्यायालय, सरकार और यहां तक कि संविधान भी द्वितीयक है.  संविधान भी संसद द्वारा बदला जा सकता है.  लोकतंत्र में धारासभा के ऊपर कुछ नहीं है. 


 मुख्यमंत्री को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए.  तीसरे नंबर की पार्टी हैं और मुख्यमंत्री बने हुए हैं.  उनमें नैतिकता होती तो संविधान का हवाला देते कि जनता ने हमें ख़ारिज किया है ; हमें नैतिक अधिकार नहीं है सरकार बनाने का.  इसी तरह वह सत्रह वर्षों से उच्च सदन का  सदस्य हो कर मुख्यमंत्री बने हुए हैं.  यह लोकतान्त्रिक रिवाज नहीं है.  वह कौन- सी परिपाटी बना रहे हैं.  सब कुछ संविधान में ही लिखा नहीं होता.  लोकलाज और नैतिकता भी कोई चीज होती है.  दूसरों को संविधान और नैतिकता पढ़ाने के पूर्व स्वयं भी उसका पाठ सीख लेना चाहिए.  


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