दलितों के घर भोजन या राजनीति

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दलितों के घर भोजन या राजनीति

शंभूनाथ शुक्ल

उतरते बैशाख की उस रात गर्मी खूब थी मगर हिंचलाल हमें अपने घर के अंदर ही बिठाए बातचीत कर रहा था ऊपर से चूल्हे का धुआँ और तपन परेशान कर रही थी.  मैने कहा कि कामरेड हम बाहर बैठकर बातें करें तो बेहतर रहे. हिंचलाल बोला कि हम बाहर बैठ तो सकते हैं पर आप शायद नहीं समझ रहे हैं कि भीतर की गर्मी बाहर की हवा से सुरक्षित है.  बाहर कब कोई छिपकर हम पर वार कर दे पता नहीं. वैसे हमारे दो आदमी बाहर डटे हैं मगर कामरेड आप नहीं जानते कि हम यहां कितनी खतरनाक स्थितियों में रह रहे हैं. हिंचलाल ने बताया कि वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमए हैं और दलित समुदाय से हैं लेकिन मौज-मस्ती भरी नौकरी करने की बजाय उन्होंने अपने भाइयों के लिए लड़ना बेहतर समझा.

जिस खमसार (एक लंबी सी कोठरी) में हम बैठे थे, उसी के एक कोने में हिंचलाल की पत्नी चूल्हे में लकड़ियाँ सुलगा रही थीं. उन्हें हमारे लिए खाना पकाना था. अल्मोनियम की एक चौड़े मुँह वाली बटलोई में दाल के लिए उस चूल्हे पर अदहन चढ़ा था. कुछ देर के लिए हिंचलाल बाहर गए और थोड़ी सी अरहर की बिना छिली दाल लाए और उस अदहन में डाल दी. दाल पकने के बाद उनकी पत्नी ने रोटियाँ सेंकी और अल्मोनियम की थाली में लगा दीं, एक कोने में दाल डाल दी. चूँकि उनके पास बटलोई से दाल निकलने के लिए चमचा नहीं था, इसलिए उनकी पत्नी ने बटलोई में हाथ डाल कर हथेलियों से वह गर्म दाल परोस दी, जिसमें हल्दी नहीं पड़ी थी. एक-एक प्याज़ की गाँठ हमारे सामने रख दी. हमें वह प्याज़ की गाँठ थाली के किनारों से काटनी थी. उनके पास कोई चाकू नहीं थी. हम लोगों ने वही भोजन किया. 

आज जब दलितों के घर भोजन करने की होड़ मची है, तो मुझे लगता है कि असली दलितों से तो ये नेता लोग मिले ही नहीं. ये दरअसल राजनीति है, नेता लोग ज़िन दलितों के घर भोजन करते हैं, वे या तो संपन्न होते हैं अथवा भोजन बाहर से मँगवाते हैं. अगर राजनेताओं के अंदर इतना ही दलित-प्रेम है तो दलितों को अपने घर बुला कर भोजन करवाएँ. या दलितों के घर जा कर उनकी तरह अभावों के साथ भोजन करें. मैं भी जिस हिंचलाल विद्यार्थी के घर गया था, वह अछूत कही जाने वाली जाति से थे, जिनका टोला शेष गाँव से अलग होता है. उनके घर भोजन करने से उन्हें भी अहसास होता है, कि ये अपने लोग हैं.  

उत्तर प्रदेश में में उस समय बाबू बनारसी दास की सरकार थी. जोड़तोड़ कर बनाई गई इस सरकार का कोई धनीधोरी नहीं था. बाबू बनारसीदास यूं तो वेस्टर्न यूपी के थे पर वे चौधरी चरण सिंह की बजाय चंद्रभानु गुप्ता के करीबी हुआ करते थे. सरकार चूंकि कई नेताओं की मिलीजुली थी इसिलए भले चंद्रभानु गुप्ता अपना सीएम तो बनवा ले गए मगर चौधरी चरण सिंह और हेमवती नंदन बहुगुणा ने उनको घेर रखा था. इस सरकार के डिप्टी सीएम नारायण सिंह बहुगुणा जी के आदमी थे. उन पर चौधरी चरण सिंह का भी वरद हस्त था. तब कांग्रेस के भीतर मांडा के पूर्व राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह का कद बढ़ रहा था मगर उनके भाई-बंधु अपने इलाकों में कहर ढाए थे. ऐसे ही समय हमें सूचना मिली कि इलाहाबाद के दूर देहाती इलाके में तरांव के जंगलों में तीन किसानों को मार दिया गया है. कानपुर में तब मैं फ्रीलांसिंग करता था इसलिए मैने और दो अन्य मित्रों ने ठान लिया कि हम रीवा सीमा से सटे उस तरांव गांव में जाएंगे. मगर किसी अखबार ने यह खबर नहीं छापी थी और तब नेट का जमाना नहीं था इसलिए यह अनाम-सा तरांव गांव, किसान सभा और उन किसानों के बाबत पता करने में बड़ी मुश्किलें आईं. बस इतना पता चला कि किसान सभा कम्युनिस्टों का संगठन है. इसलिए हमने इलाहाबाद शहर जाकर पहले तो भाकपा की स्थानीय इकाई के दफ्तर में जाकर पता किया तो मालूम हुआ कि किसान सभा माकपा का संगठन है. फिर हम माकपा के जिला सचिव जगदीश अवस्थी से मिले, जो वहां पर जिला अदालत में वकील थे. उन्होंने बताया कि तरांव की जानकारी तो उन्हें भी नहीं है पर यह मेजा रोड के पास कुरांव थाने की घटना है. उन्होने मेजा रोड के एक कामरेड का नाम दिया और कहा कि वे आगे की जानकारी देंगे. हम मेजा रोड जाकर उन कामरेड से मिल. वे वहां पर बस स्टैंड के सामने मोची का काम करते थे. उन्होंने बताया कि हमारे तहसील सचिव तो आज लखनऊ गए हैं लेकिन आप कुरांव चले जाएं और वहां पर रामकली चाय वाली हमारी कामरेड है, उसे जानकारी होगी.

शाम गहराने लगी थी और इलाका सूनसान जंगलों और पत्थरों से भरा. हम वहां किसी को जानते भी नहीं थे. मगर हमारे अंदर इस अचर्चित घटना को कवर करने की इतनी प्रबल इच्छा थी कि हम सारे जोखिम मोल लेने को तैयार थे. हम फिर बस पर चढ़े और करीब नौ बजे रात जाकर पहुंचे कुरांव कस्बे में. कस्बे में सन्नाटा था और बस अड्डे पर दो-चार सवारियों के अलावा और कोई नहीं. किससे पूछें, समझ नहीं आ रहा था. हमने बस के ड्राइवर व कंडक्टर से रामकली चाय वाले के बारे में पूछा तो बोले आप आगे जाकर पता कर लो. चाय वाली रामकली मिली. हमें तराँव जाकर हिंचलाल से मिलने को कहा गया, जो वहाँ से क़रीब डेढ़ कोस यानी तीन मील दूर था. वहाँ से एक पहलवान नुमा आदमी हमारे साथ आया था. करीब घंटे भर उसी ऊबड़-खाबड़ कच्चे रास्ते, जिसे वहां के लोग बटहा बोलते हैं, पर चलने के बाद हम एक पगडंडी की तरफ मुड़ गए. थोड़ी ही दूर पर कुछ घास-फूस के घर नजर आने लगे. पता चला कि यही तरांव है. 

वहाँ हिंचलाल ने हमें बताया, कि इस तरफ़ पत्थरों की तुड़ाई होती है. साथ में धान की खेती. एक जमाने में यह पूरा इलाका राजा मांडा और डैया की रियासत में था. इन रियासतों के राजाओं ने अपनी जमींदारी जाने पर इस इलाके को फर्जी नामों के पट्टे पर चढ़ाकर सारी जमीन बचा ली और जो उनके बटैया अथवा जोतदार किसान थे उनकी जमीन छीन ली. ट्रस्ट बना कर वही रजवाड़े फिर से जमीन पर काबिज हो गए. यूं तो वह सारी जमीन मांडा के पूर्व जागीरदार वीपी सिंह के पास थी लेकिन वे स्वयं तो राजनीति के अखाड़े पर डटे थे और ट्रस्ट का कामकाज उनके भाई लोग देखते थे. यहां के किसान भूमिहीन मजदूर थेऔर इन्हीं ट्रस्टों में काम करते थे. कई मजदूरों को तो ट्रस्ट में बहाल किया हुआ था लेकिन ट्रस्ट के कामकाज में उनका कोई दखल नहीं था वे इन मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं देते थे और अपने यहां ही काम करने को मजबूर भी करते.  इंकार करने पर मारपीट करतेऔर इसी के चलते तीन किसानों को मार दिया गया था. मांडा रियासत के वारिस वीपी सिंह थे. वे पुणे के फर्ग्युसन कालेज से ग्रेजुएट थे. अंग्रेजी और अवधी में प्रवीण वीपी सिंह केंद्र में एक बार वाणिज्य उपमंत्री भी रह चुके थे. चुप्पा थे इसलिए संजय की पसंद भी थे. मगर उनके भाई लोग रीवा से सटे कुरांव के इलाके में जो कारनामे कर रहे थे इसलिए वीपी सिंह अपने भाइयों से दुखी भी रहते थे. पर इस मोर्चे पर चुप रह जाना ही उन्हें पसंद था. तभी यह घटना घट गई. यह घटना स्थानीय अख़बारों में नहीं छपी. इसके बावजूद हम वहां पहुंच गए थे. इसे लेकर सुगबुगाहट तो थी. इसलिए हिंचलाल ने हमें बाहर नहीं निकलने दिया.



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